अद्भुत रस
अद्भुत रस वह अनुभूति है जब कोई व्यक्ति विस्मित हो जाता है और यह विस्मय उस समय विशेष में स्थायी भाव की तरह व्यक्ति की सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रियों को अपने अधीन कर लेता है। तब सभी ज्ञानेन्द्रियां उस विस्मय के अभिभूत होकर अन्य मामलों में निष्चेष्ट हो जाती हैं।हिन्दी के आचार्य कुलपति ने रस-रहस्य नामक ग्रंथ में कहा -
जहं अनहोनी देखिये, वचन रचन अनुरुप।
अद्भुत रस के जानिये, ये विभाव सु अनुप।।
वचन कम्प अरु रेग तनु, यह कहिए अनुभाव।
हर्ष शोक चित मोह पुनि, यह संचारी भाव।।
जेहि ठां नृत्य कवित्त में, व्यंग्य आचरज होय।
तौऊ रस में जानियो, अद्भुत रस है सोय।
भानुदत्त ने रसतरंगिणी में इसे इस प्रकार परिभाषित किया है -
विस्मयस्य सम्यक्समृद्धिरद्भुतः सर्वेन्द्रियाणां ताटस्थ्यं वा।
अर्थात् विस्मय की सम्यक समृद्धि अथवा सम्पूर्ण इन्द्रियों की तटस्थता अद्भुत रस है।
भरत मुनि ने अद्भुत रस की उत्पत्ति वीर रस से बतायी है। इसका रंग पीला तथा देवता ब्रह्मा है, ऐसा उन्होंने बताया।
परन्तु हिन्दी के आचार्य देव ने अपनी रचना भवानी विलास में कहा -
आहचरज देखे सुने बिस्मै बाढ़त।
चित्त अद्भुत रस बिस्मै बढ़ै अचल सचकित निमित्त।
उधर विश्वनाथ ने गन्धर्व को अद्भुत रस का देवता बताया है।
उन्होंने कहा कि सम्पूर्ण रसगर्भित स्थानों में अद्भुत रस माना जाना चाहिए क्योंकि रस का प्राण लोकोत्तर चमत्कार ही है, जो उनके अनुसार चित्त का विस्तार रुप विस्मय ही है।
इस संदर्भ में नारायण पंडित के बारे में कहा गया है -
रसे सारश्चमत्कारः सर्वत्राप्यनुभूयते। तच्चमत्कारसारत्वे सर्वत्राप्यद्भुतो रसः। तस्मादद्भुतमवाह कृतो नारायणो रसम्।
अर्थात् सब रसों में चमत्कार सार रूप में वर्तमान होता है तथा इसके साररूप होने से सर्वत्र अद्भुत रस ही प्रतीत होता है, जैसा कि रस के बारे में नारायण पंडित ने व्यवस्था दी है।
पंडित राज ने अद्भुत रस को श्रृंगार तथा वीर का अविरोधी बता है।
विश्वनाथ ने कहा कि अद्भुत रस की पहुंच सर्वत्र सम्पूर्ण रसों में हो सकती है।
अद्भुत रस में सामान्य अवस्थाओं से विपरीतता अत्यधिक होती है, तथा ऐसी अचरजपूर्ण विपरीतता की ओर मन अकस्मात् आकर्षित होकर विचार का सृजन कर बैठता है जो विस्मय का मूल है।
जब भी अद्भुत रस का भाव जागृत होता है तो व्यक्ति आंखें फाड़कर देखता है, टकटकी लगाकर देखता है, उसके शरीर में रोमांच होता है, आंखों से आंसू तथा शरीर से स्वेद भी निकलता है, अतीव शोक या विषाद उत्पन्न करता है, साधुवाद देता है या फिर हा-हा करता है, अंग कंपित होते हैं या अचानक मुड़ते हैं, गद्गद होता है या उत्कंठित होता है। इसके अतिरिक्त और भी लक्षण प्रकट हो सकते हैं।
आवेग, वितर्क, हर्ष, भ्रान्ति, जड़ता, चपलता, चिंता, उत्सुकता आदि अत्यधिक उत्पन्न हो सकते हैं।
अद्भुत रस चार प्रकार के होते हैं - दृष्ट अर्थात् देखा हुआ, श्रुत अर्थात् सुना हुआ, अनुमित अर्थात् अनुमान किया हुआ तथा संकीर्तित अर्थात् वैसा प्रभावपूर्ण वर्णन जिससे बोधव्य का सम्यक ज्ञान हो जाये।
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