त्रिभंगी
त्रिभंगी मात्रिक समछन्द के एक भेद, मात्रिक छन्द के एक भेद, तथा दण्डक वर्णिक छन्द के एक भेद के नाम हैं।मात्रिक समछन्द के भेद में, भानु के अनुसार, प्रत्येक चरण में 10, 8, 8, 6 की यति से कुल 32 मात्राएं होती हैं तथा अन्त में ग होता है। इसमें प्रत्येक चरण की प्रत्येक यति पर यमक का प्रयोग होता है।
केशव ने श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति के लिए भी इसका प्रयोग किया है। उनका एक उदाहरण देखें -
नाचै नव नारी, सुमन श्रृंगारी, गति मनुहारी, सुख साजै।
तुलसीदास ने तो प्रत्येक चरण में 10, 8, 14 पर यति ओर यमक का प्रयोग किया है।
उदाहरण – परसत पद पावन, शोक नसावन, प्रकट भई तप पुंज सही। (राम चरित मानस)
इस छन्द के उतार-चढ़ाव के साथ जो गति होती है उससे क्षिप्रता या भावावेश को व्यक्त करना सुगम होता है। वीर, रौद्र, तथा वीभत्स रसों की अभिव्यक्ति के लिए भी इसे उपयुक्त माना जाता है।
मात्रिक छन्द के भेद में भी 32 मात्राएं होती हैं। 10, 8, 8 तथा 6 मात्राओं पर यति होती है तथा अन्त में गुरु होता है।
उदाहरण के रूप में तुलसीदास की पंक्ति देखें -
भये प्रकट कृपाला, दीन दयाला, कौशल्या हितकारी।
त्रिभंगी दण्डक वर्णिक छन्द के सम्बंध में मतभेद हैं। जयकीर्ति ने इसमें 27 वर्ण का होना बताया है, जबकि छन्दप्रभाकर में 34 वर्ण बताया गया है। हिन्दी साहित्य में इछ छन्द का प्रयोग नगण्य है।
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