बुधवार, 21 फरवरी 2007
भारत का विदेशी ऋण : तबाह हो जायेगी जनता
गंभीर चक्रव्यूह में फंसने की ओर बढ़ते सरकारी कदम
ज्ञान पाठक
नई दिल्ली: अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के नियमों का अनुपालन करते हुए भारत सरकार देश के विदेशी ऋण के संदर्भ त्रैमासिक ताजी स्थिति मार्च महीने के अंत तक जारी करेगी, हालांकि बजट 2007-08 में इसकी एक झांकी मिल जायेगी। अब तक की प्राप्त जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत एक गंभीर चक्रव्यूह में फंसने की दिशा में बढ़ रहा है। यदि वर्तमान सरकार नहीं रुकी तो आने वाले अनेक सरकारों के लिए भारत को उस चक्रव्यूह से निकाल पाना मुश्किल होगा।
सितम्बर 2006 के जो आंकड़े दिसम्बर 2006 में पेश किये गये थे उससे ही इस बात का खुलासा हो जाता है। एक तिमाही के अन्दर ही भारत का कर्ज 4.3 अरब डालर बढ़कर 136.5 अरब डालर हो गया था। चिंता की बात यह कि भारत सरकार ने बाजार की ब्याज दर पर वाणिज्यिक कर्ज लेने का रास्ता अपनाया। यह अलग बात है कि सराकर से आज यह पूछने वाला कोई नहीं है कि उसके लिए क्या बाजार से कर्ज लेना आवश्यक हो गया था? क्या रियायती दर पर संस्थागत ऋण भारत सरकार को उपलब्ध नहीं थे? यदि भारत के इतने दुर्दिन आ गये हैं तो किस मुंह से अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार देश के कुशल आर्थिक प्रबंध का दावा कर रहे हैं?
ध्यान रहे कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का हमपर अभी कोई बकाया कर्ज नहीं है जो वास्तव में वाणिज्यिक कर्ज की तुलना में काफी कम ब्याज दर पर दुनिया भर को कर्ज उपलब्ध कराता है।
यह भी ध्यान में रखने की बात है कि चालू वर्ष के प्रारंभ में अर्थात एक अप्रैल 2006 को भारत का विदेशी कर्ज 126.39 अरब डालर था। उसमें बहुपक्षीय कर्ज 32.55, द्विपक्षीय कर्ज 15.72, आई एम एफ से कर्ज शून्य, निर्यात क्रेडिट 5.39, वाणिज्यिक कर्ज 26.84, अनिवासी भारतीय दीर्धावधि जमा 35.13, रुपये में कर्ज 2.03, दीर्धावधि कर्ज 117.69, तथा अल्पावधि कर्ज 8.69 अरब डालर था।
इन सभी मदों में सितम्बर के अंत आते – आते क्रमश: 1.5 प्रति शत, - 0.6 प्रतिशत, शून्य प्रति शत, 3 प्रति शत, 4.4 प्रति शत, 2.6 प्रति शत, 0.3 प्रति शत, 2.3 प्रति शत, और 16.2 प्रति शत का इजाफा हो गया।
साफ है कि भारत सरकार की विदेश नीति भी फेल कर रही है या उसे फेल करा दी जा रही है। वरना यह कैसे होता कि भारत द्विपक्षीय, बहुपक्षीय और आईएमएफ से कम ब्याज दरों पर ऋण हासिल करने में फिसड्डी हो गया और उसे वाणिज्यिक आधार पर और अल्पावधि ऋण सबसे ज्यादा लेना पड़ा? क्या भारत की मदद के लिए कोई तैयार नहीं है या निजी स्वार्थों के कारण हमारे नेता कम ब्याज दरों पर संस्थागत ऋण लेने के मुकाबले अधिक ब्याज दर पर वाणिज्यिक ऋण लेने का रास्ता अपना रहे हैं? यह सवाल पूछना इसलिए भी लाजिमी हो गया है क्योंकि हमारे देश के नागरिकों को भ्रष्टाचार का लंबा अनुभव है और हाल में ही प्रशासनिक सुधार आयोग ने शासन में नैतिकता पर दी गयी अपनी रपट में भ्रष्टाचार को ही देश का मूल संकट बताया है।
अल्पावधि कर्ज में 16.2 प्रति शत की वृद्धि यह दर्शाती है कि चालू वित्तीय वर्ष में आयात पर खर्च बढ़ा है। आयात पर यदि इसी गति से खर्च बढ़ता रहा तो देश की हालत आने वाले दिनों में बद से बदतर होती जायेगी जिसे संभाल पाना भी मुश्किल हो जायेगा। यह देश की आर्थिक नीतियों की कमजोरी को भी दर्शाता है। जो देश अपने देश के उत्पदनों को ध्वस्त करने का रास्ता अपनायेगा उसका यही हश्र होगा। देश के अंदर उत्पादनों की कमी होती चली जायेगी और विदेशी माल की खपत बढ़ती चली जायेगी। हमारी घरेलू आत्मनिर्भरता समाप्ति की ओर रहेगी और विदेशी माल पर निर्भरता बढ़ती चली जायेगी। यही तो है आर्थिक बदइंतजामी, जिसे हमारे प्रधान मंत्री डा मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री पी चिदंबरम विकास बता रहे हैं। हाल में ही भारत ने अमेरिका के साथ एक नाभिकीय सौदे को भारत के लिए ऐतिहासिक लाभकारी बताया गया और भारत की जनता से इसपर विश्वास करने की उम्मीद की गयी। लेकिन सच तो यह है कि भारत के नाभिकीय विकास के लिए थोरियम मार्ग का त्याग कर भारत की आत्मनिर्भरता त्याग दी गयी तथा अमेरिका से यूरेनियम और अन्य नाभिकीय प्रौद्योगिकी के आयात का सौदा कर भारत की अमेरिका पर निर्भरता का मार्ग प्रशस्त किया गया। सवाल पूछा जा सकता है कि भारत के आयात बिल में जिस गति से वृद्धि हुई है, उनमें कितने आयात गैर-जरुरी थे? पर यह सवाल भी आज के माहौल में कौन पूछे, और यदि पूछा भी जाता है तो सरकारी निर्लज्जता इतनी की ऐसे सवालों की परवाह नहीं की जाती।
भारत सरकार ने भारत के सभी प्रकार के विदेशी कर्जों को थोड़ा बेहतर ढंग से दिखाने के लिए प्रत्येक मद की हिस्सेदारी का एक ग्राफ सामने रखा है। उसने बताया की कुल कर्ज में वाणिज्यिक कर्ज 23.8, अनिवासी भारतीय जमा 26.8, निर्यात क्रेडिट 4.1, द्विपक्षीय कर्ज 11.5, बहुपक्षीय कर्ज 24.6, और अल्पावधि कर्ज 7.8 प्रति शत है। लेकिन इस नजरिये से यह नहीं पता चलता कि सरकार के कार्यनिष्पादन का स्तर क्या रहा। जैसे ही कोई व्यक्ति तुलनात्मक अध्ययन करता है काफी निराशाजनक तस्वीर सामने आती है।
सबसे दुर्भाग्यजनक बात यह है कि भारत का विदेशी ऋण पिछले कुछ वर्षों से सरकारी या आधिकारिक से निजी की ओर खिसक रहा है। सिर्फ एक साल पहले मार्च 2005 के अंत में गैर सरकारी विदेशी कर्ज कुल कर्ज का 39.9 प्रति शत था अर्थात् 3,95,060 लाख डालर था। यह सितम्बर 2006 में बढ़कर कुल कर्ज का 66 प्रति शत अर्थात् 9,01,200 लाख डाल हो गया। ठीक इसके विपरीत विदेशी सरकारों या आधिकारिक कर्ज कुल कर्ज का 60.1 प्रति शत अर्थात 5,95,020 लाख डालर से घटकर 34 प्रति शत अर्थात् 4,63,960 लाख डालर हो गया। यह एक चिंताजनक स्थिति है क्योंकि निजी संस्थानों से लिए गये कर्ज पर हमेशा ही ज्याद ब्याज दर अदा करनी पड़ती है। इस बात की जांच होनी चाहिए कि सरकार आखिर इस रास्ते पर क्यों चल रही है और कम ब्याज दर अदा करने वाले रास्ते को यह क्यों छोड़ रही है? यह तो किसी भी तरह से अच्छा कार्य निष्पादन नहीं माना जा सकता।
लेकिन वर्तमान सरकार इस तथ्य को छिपाने के लिए ही बार-बार बल देकर कहती रही है कि भारत का विदेशी कर्ज सकल घरेलू उत्पाद के प्रति शत के रुप में घट रहा है। उसने कई बार बताया कि यह विदेशी कर्ज मार्च 2005 के अन्त में सकल घरेलू उत्पाद का 17.3 प्रति शत था जो मार्च 2006 में घटकर 15.8 प्रति शत हो गया। यह जनता के आंखों में धूल झोंकने के अलावा क्या है, विशेषकर इस तथ्य के आलोक में कि कर्ज अदायगी का बोझ 2004-05 में सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 6.1 प्रति शत था जो 2005-06 में बढ़कर 10.2 प्रति शत हो गया। मार्च 2006 में अल्पावधि विदेशी कर्ज अदायगी का बोझ भी 7 प्रति शत था जो छह महीने के भीतर सितम्बर 2006 में 7.8 प्रति शत हो गया। यदि भारत के विदेशी मुद्रा के अनुपात में भी देखें तो यह अल्पावधि कर्ज अदायगी का बोझ छह माह की उक्त अवधि में 6 प्रति शत से बढ़कर 6.7 प्रति शत हो गया।
वाणिज्यिक कर्जों की सबसे बुरी बात यह कि भारत ने अपनी संपदा धरोहर रखकर 57,439 करोड़ रुपये के कर्ज लिये हैं। कुल 4,016 करोड़ रुपये के कर्ज तो बहुपक्षीय या द्विपक्षीय गारंटी और आईएफसी(डब्ल्यू) गारंटी पर लिये गये।
इस स्थिति से भारत को निजात दिलाने के लिए सरकार और विपक्ष की ओर से सार्थक पहल होनी चाहिए वरना भारत के लोग तबाह हो जायेंगे।#
ज्ञान पाठक के अभिलेखागार से
भारत का विदेशी ऋण
System Administrator - 2007-10-20 05:28
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के नियमों का अनुपालन करते हुए भारत सरकार देश के विदेशी ऋण के संदर्भ त्रैमासिक ताजी स्थिति मार्च महीने के अंत तक जारी करेगी, हालांकि बजट 2007-08 में इसकी एक झांकी मिल जायेगी। अब तक की प्राप्त जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत एक गंभीर चक्रव्यूह में फंसने की दिशा में बढ़ रहा है।