कारखाना परिसर के गोदामों में पडे हुए 350 मिट्रिक टन जहरीले कचरे का निष्पादन एक चुनौती बना हुआ है। गैस पीडितों के लिए संघर्ष कर रहे संगठनों का कहना है कि परिसर क्षेत्र में 8000 मिट्रिक टन जहरीले रासाय्ानिक कचरा दफन है और परिसर के सोलर इंपोरेसन तालाब में 10000 मिट्रिक टन रासायनिक कचरा है। कचरे के कारण परिसर के आसपास की कालोनियों का भूजल प्रदूषित हो गया है, और आसपास का वातावरण खराब हो गया है। वहां के निवासियों को अन्य क्षेत्रों की तुलना में ज्यादा पर्यावरणीय समस्याएं झेलनी पड़ती हैं।
दुःखद बात यह है कि कुछ माह पहले भोपाल के दौरे पर आए केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री जयराम रमेश ने यह कह दिया कि इस कचरे का मानव एवं पर्यावरण पर कोई दुष्प्रभाव नहीं है। उन्होंने परिसर में पडे रासायनिक कचरे को हाथ में उठा कर यह कहा कि इससे उनके ऊपर कोई दुष्प्रभाव नहीं पडा। उनके इस बयान पर गैस पीडित संगठनों का कहना है कि यह दुर्भाग्य है कि एक ओर भोपाल के लोग गैस त्रासदी के 25 साल हो जाने के बाद भी न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं और दूसरी ओर यह कहा जा रहा है कि उस रासायनिक कचरे का कोई दुष्प्रभाव नहीं है।
केन्द्रीय मंत्री के इस बयान के बाद मध्यप्रदेष के गैस राहत मंत्री बाबूलाल गौर ने भी यह कहना शुरू कर दिया कि कारखाना परिसर में अब हानिकारक रसायनिक कचरा नहीं है। पर गैस पीड़ितों के संगठनों ने चैलेंज देना शुरू कर दिया है कि यदि ऐसा है तो इसका प्रयोग करके राजनेता दिखाएं। राज्य सरकार यह चाहती थी कि परिसर को इस बार आम जनता के लिए खोल दिया जाए, पर इसका भी गैस पीड़ितों के संगठनों ने विरोध किया। कोर्ट ने भी राज्य सरकार को इसके लिए अनुमति नहीं दी।
गैस पीडित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार कहते हैं, "गैस पीडित पिछले 25 साल से त्रासदी का दंश झेल रहे हैं, पर उनके बारे में लगातार यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि उन्हें उचित मुआवजा मिल चुका है। उनके इलाज के लिए पर्याप्त सुविधाएं मुहैया करा दी गई है और अब उन्हें कोई परेशानी नहीं है। लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत है।
मुआवजा के लिए 1989 में यूनियन कार्बाइड के साथ हुए समझौते में 3 हजार मृतकों और एक लाख 2 हजार घायलों के लिए मुआवजा लिया गया था, जबकि दावा अदालतों में चली सुनवाई में मृतकों की संख्या 15274 और घायलों की संख्या 5 लाख 73 हजार सामने आई। आश्चर्य कि सरकार ने उसी राशि से पांच गुना अधिक लोगों को मुआवजा बांट दी, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि दावेदारों की संख्या बढ़ने पर सरकार अतिरिक्त राशि की व्यवस्था करेगी। आज भी कई ऐसे वास्तविक प्रभावित हैं, जिन्हें मुआवजा तक नहीं मिल पाया है। इलाज के लिए उन्हें समस्याओं से जूझना पड़ता है. अस्पतालों में दवाइयां नहीं मिल रही हैं।
इलाज के मामले में भी यह देखा जा रहा है कि गैस के प्रभाव के कारण प्रतिवर्ष 40 हजार लोग विभिन्न अस्पतालों में भर्ती हो रहे हैं और प्रतिदिन 6 हजार लोग इलाज के लिए अस्पताल का चक्कर लगा रहे हैं. गैस राहत अस्पतालों में अर्से से डॉक्टरों की कमी बरकरार है। गैस राहत मंत्री बाबूलाल गौर का कहना है, "उन्होंने गैस राहत विभाग और वित्त विभाग के अधिकारियों के साथ हाल ही में एक बैठक की है, जिसमें गैस राहत अस्पतालों में विशेषज्ञ डॉक्टरों एवं अन्य पैरामेडिकल स्टाफ की भर्ती के लिए सहमति बनी है. इसे कैबिनेट में रखा जाएगा।"
उल्लेखनीय है कि इन गैस अस्पतालों में विशेषज्ञ डॉक्टरों के 88, सामान्य डॉक्टर के 157 और पैरामेडिकल स्टाफ के 192 पद लंबे समय से खाली हैं।
कई संस्थाओं और नगर निगम ने भी माना है कि आसपास की बस्तियों का पानी पीने योग्य नहीं है, पर आज तक लोगों को शुद्ध पेयजल मुहैया नहीं कराया जा सका है। परिसर में पडे़ रासायनिक कचरे पुनः किसी संकट में डाल सकते हैं, पर इसके निष्पादन के लिए तू-तू, मैं-मैं हो रहा है। कई पीढि़यों तक गैस का असर झेलने को मजबूर लोग लगातार त्रासदी झेल रहे हैं, पर सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियां लगातार अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। (संवाद)
भारत: मध्य प्रदेश
25 साल बाद भी गैस पीड़ितों को न्याय नहीं
सरकार अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही है
राजु कुमार - 2009-12-10 06:25
दुनिया के भीषणतम औद्योगिक दुर्घटनाओं में से एक भोपाल गैस त्रासदी को हुए 25 साल बीत चुके हैं। पर उस घटना की चपेट में आए लाखों लोगों के जख्म आज तक नहीं भर पाए। भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड से 2.3 दिसंबर, 1984 की रात को मिथाइल आइसो सायनेट गैस की रिसाव में 15274 लोगों की मौत हुई थी और 5 लाख 73 हजार लोग सीधे तौर पर घायल हुए थे। त्रासदी के पचीस साल पूरे हो गए हैं, पर पीडित लोग आज भी उचित पुनर्वास, उचित मुआवजा, उचित इलाज और सुरक्षित वातावरण के लिए संघर्ष कर रहे हैं।