भाजपा अपने घोषित और अघोषित दोनों उद्देश्यों में सफल रही। राम मंदिर का एक बहुत बड़ा आंदोलन खड़ा हुआ, जिसके कारण 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस ही हो गया। उस यात्रा के कारण वीपी सिंह की मंडल राजनीति की काट अपनी कमंडल राजनीति से करने में भाजपा सफल हो गई और उसके सांसदों की सदस्य संख्या 1991 के चुनाव में बढ़ गई, जबकि वीपी सिंह की पार्टी ही घीरे धीरे खत्म हो गई। उस यात्रा ने भाजपा के लोकसभा सांसदों की संख्या 180 के पार पहुंचा दी और उसे 6 साल के लिए केन्द्र की सत्ता में भी बैठा दिया।

लेकिन राम रथ यात्रा के अलावा भाजपा नेताओं की अन्य सारी यात्राएं विफल रही हैं। उनमें न तो लोग उमड़े और न ही उनसे पार्टी का कोई राजनैतिक हित सधा। सवाल उठता है कि लालकृष्ण आडवाणी का भ्रष्टाचार के खिलाफ निकाली जा रही यह यात्रा क्या कामयाब हो पाएगी? यह यात्रा भ्रष्टाचार के खिलाफ निकाली जा रही है। आज देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा है, जिसका नेतृत्व अन्ना हजारे कर रहे हैं। अभी यह आंदोलन मौन है, लेकिन यह कभी भी मुखर हो सकता है, क्योकि देश के लोगों में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सामुदायिक संकल्प दिखाई पड़ रहा है।

उसी आंदोलन की पृष्ठ भूमि में लालकृष्ण आडवाणी एक बार फिर रथ पर बैठने का आतुर हो गए हैं। उनकी यात्रा सफल होगी यह विफल उसका जवाब देने के पहले यह जान लेना जरूरी है कि क्या आडवाणी की यह यात्रा सचमुच भ्रष्टाचार के खिलाफ है? इसे कोई मानने को तैयार नहीं होगा। किसी मुद्दे पर रथयात्रा या कोई अभियान इसलिए निकाला जाता है ताकि उस मुद्दे पर लोगों का जनमत बनाया जा सके। लेकिन यहां तो भ्रष्टाचार के खिलाफ जनमत पहले ही बना हुआ है। अन्ना की गिरफ्तारी के बाद देश भर में जिस तरह का माहौल बना वह तो यही बताता है कि लोग पहले से ही भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े हैं। इसलिए यात्रा के द्वारा आडवाणी लोगों में भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई नई चेतना पैदा नहीं करना चाहते, क्योंकि उस तरह की चेतना तो पहले से ही है।

एक दूसरा लक्ष्य पार्टी को मजबूत बनाना हो सकता है। आडवाणी और उनकी पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ पैदा हुए इस माहौल का राजनैतिक फायदा उठाना चाहें, तो इसमें गलत कुछ भी नहीं है, लेकिन क्या यह फायदा उठाने के लिए वाकई किसी रथयात्रा की जरूरत है? अन्ना हजारे व उनके संमर्थक आंदोलनकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सशक्त व प्रभावी लोकपाल कानून बनाना चाहते हैं, जिस पर सरकार हीलाहवाली कर रही है। यदि मुख्य विप़क्षी दल होने के कारण भाजपा इस आंदोलन का फायदा उठाना चाहती है, तो उसे किसी रथयात्रा की कोई जरूरत ही नहीं है। उसके लिए तो इतना ही काफी होगा कि वह अन्ना के आंदोलन से जो जनलोकपाल विधेयक का प्रारूप तैयार हुआ है, उसका ताल ठांेककर समर्थन कर दे। यह सच है कि अन्ना और उनकी टीम के लोग भाजपा व अन्य राजनैतिक पार्टियों के नेताओं को अपने मंच पर आने नहीं देते, लेकिन उनके आंदोलन का फायदा उठाने के लिए भाजपा यदि संसद के मंच का इस्तेमाल करे तो वही काफी है।

लेकिन संसद में भजपा का रवैया बहुत उत्साहजनक नहीं रहा है। वह यह दावा नहीं कर सकती कि जनलोकपाल विधेयक के मसौदे को उसका पूरा समर्थन हासिल है। वह समर्थन करती है, लेकिन उसके समर्थन का स्वरूप क्या है और उसके लिए वह किस हद तक जा सकती है, इस पर साफ नहीं है। वह सरकार को भ्रष्टाचार के मसले पर तो आउट करना चाहती है, लेकिन वह खुद भ्रष्टाचार को आउट नहीं करना चाहती। इसलिए संसद में ढुलमुल रवैया अपनाने वाली भाजपा यदि किसी रथयात्रा से अपने को सशक्त करना चाहेगी, तो ऐसा संभव नहीं है। यह सच है कि कांग्रेस की स्थिति खराब होने के कारण उसे वहां फायदा होगा, जहां कांग्रेस को सिर्फ वही चुनौती देती है, लेकिन उस फायदे के लिए उसे रथयात्रा की जरूरत नहीं है, बल्कि वह तो उसे मुफ्त में उपलब्ध है। कांग्रेस से खफा मतदाता तो उसे ही पसंद करेंगे।

तो फिर लालकृष्ण आडवाणी को रथयात्रा की जरूरत क्यों आन पड़ी? इसका एकमात्र कारण भाजपा की अंदरूनी राजनीति है। आरएसएस के दबाव के कारण आडवाणी को भाजपा में एक तरह से रिटायर कर दिया गया है। उनके पास न तो पार्टी में कोई पद है और न ही वे लोकसभा में पार्टी के नेता हैं। उन्हें मेंटर की भूमिका में खड़ा कर दिया गया है। एक तरह से यह साफ कर दिया गया है कि आगामी लोकसभा चुनाव के समय आडवाणी पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश नहीं किए जाएंगे। आडवाणी की उम्र ज्यादा हो गई है, लेकिन उनका स्वास्थ्य काफी अच्छा है। वे पार्टी और सरकार में कोई भी बड़ी जिम्मेदारी निभाने के लिए शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तौर पर पूरी तरह सक्षम हैं।

लालकृष्ण आडवाणी को इस बात का लाभ मिला हुआ है कि अभी तक भाजपा में उनके अलावा कोई अन्य सर्व मान्य नेता नहीं हो सका है। उनके बाद पार्टी में सबसे कद्दावर नेता नरेन्द्र मोदी हैं, जो गुजरात के मुख्यमंत्री होने के बावजूद राष्ट्र की राजनीति में लगातार चर्चा का विषय बने रहते हैं और एक करिश्माई नेता भी हैं। लेकिन अभी भी पार्टी के अंदर उनके कुछ प्रतिस्पर्धी नेताओं ने उन्हें अपना नेता मानना स्वीकार नहीं किया है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में भी नरेन्द्र मोदी को वह जगह नहीं मिली है, जो आडवाणी को प्राप्त है।

यही कारण है कि आडवाणी अभी भी पार्टी के सर्वाच्च नेता बने हुए हैं और आने वाले चुनाव में फिर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं। इस रथयात्रा से लालकृष्ण आडवाणी वस्तुतः अपने उन आलोचकों का मुह बंद करना चाहते हैं, जो अधिक उम्र के कारण आडवाणी को सक्रिय राजनीति के काबिल मानने से इनकार कर रहे हैं। यही कारण है कि आडवाणी फिर से रथयात्रा पर निकल रहे हैं। इस यात्रा से भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी मुहिम को लाभ मिले या न मिले, भाजपा को इससे फायदा हो या न हो, लेकिन आडवाणी शायद यह साबित करने मे ंजरूर सफल हो जाएगे कि उनमें राजनीति करने की अभी बहुत क्षमता है और आने वाले लोकसभा चुनाव में वे पार्टी का नेतृत्व करने में सक्षम हैं। (संवाद)