उनकी अनुपस्थिति में भारत में बहुत कुछ हो गया। उनकी अनुपस्थिति में भारत में रेड्डी बंधुओं की गिरफ्तारी भी हो गई और जगन मोहन रेड्डी के खिलाफ सीबीआई की जांच भी शुरू हो गई। उनकी अनुपस्थिति में ही भारत में इधर लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा की घोषणा कर दी। दिल्ली हाई कोर्ट में आतंकवादियों ने बम भी इस बीच फोड़ डाले।

यानी जब सोनिया फिर से भारत लौटी है, तो इस बीच भारत में भारी बदलाव आ गए हैं और इस बदलावों कांग्रेस का चेहरा भी बुरी तरह बिगड़ गया है। अन्ना के आंदोलन ने अनेक चीजों के अलावा यह भी साबित कर दिया कि दिशा निर्देश के लिए कांग्रेस सोनिया गांधी पर बुरी तरह आश्रित है। सोनिया के बिना उसका कोई काम नहीं चलता। पूरे अन्ना के आंदोलन के दौरान कांग्रेस ने जो भूमिका अपनाई उससे उसकी छवि दागदार हो गई है। सरकार ने जो रूख अपनाया उससे सरकार का चेहरा बिगड़ गया है।

कांग्रेस के लिए सबसे खराब राहुल गांधी का इस संकट के दौरान प्रदर्शन रहा। यह चुनौतियों भरा समय था, लेकिन राहुल गांधी इन चुनौतियों से लगातार भागते रहे। उन्हें एक मौका मिला था कि वे इस संकट से पार्टी को कैसे उबारें, लेकिन वे अपने आपको इस संकट से दूर भगाते रहे और सबकुछ सरकार पर छोड़ दिया। सोनिया गांधी ने अपनी अनुपस्थिति में पार्टी का निर्णय लेने के लिए 4 सदस्यों की एक समिति बना दी थी, जिसमें राहुल गांधी भी शामिल थे। इसमें राहुल को मौका मिला था कि अपनी मां की अनुपस्थिति में अपनी पार्टी का नेतृत्व करते हुए अन्ना द्वारा पेश की गई चुनौती का सामना करें अथवा उस मामले को सुलझाएं। लेकिन उनकी छवि एक भगोड़े नेता की बनी, जो चुनौतियों से जूझना ही नहीं चाहता है।

अन्ना आंदोलन के बीच राहुल का रवैया और उनकी बनी वह छवि पार्टी के लिए शुभ नहीं है। आने वाले महीनों में पार्टी को 5 राज्यों की विधानसभा चुनावों का सामना करना पड़ रहा है। उन 5 राज्यों में उत्तर प्रदेश भी शामिल है, जहां राहुल गांधी की अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। भट्ठा पारसौल आंदोलन के दौरान राहुल गांधी ने वहां पार्टी का सफलता पूर्वक नेतृत्व किया था। राज्य की अन्य विपक्षी पार्टियों को गोली कांड का विरोध करने के मामले में बहुत पीछे छोड़ दिया था। राहुल की छवि किसानों के लिए संघर्ष करने वाले एक जुझारू नेता की बनी थी। लेकिन अन्ना आंदोलन के दौरान उनकी चुप्पी और निष्क्रियता ने सब किए कराए पर पानी फेर दिया। राहुल युवाओं को कांग्रेस से जोड़ने की राजनीति कर रहे हैं और युवाओं की आशाओं के केन्द्र बनने की कोशिश कर रहे हैं। उस कोशिश में उन्हें सफलता भी मिल रही थी, लेकिन अन्ना के आंदोलन के बाद वह स्थिति भी बदल गई है।

इससे अन्ना का प्रभाव ही माना जाएगा कि जब राहुल गांधी दिल्ली बम विस्फोट मे घायल लोगों को दे,खने लोहिया हॉस्पीटल पहुंचे, तो घायल लोगों के सगे संबंधियों ने उनके खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी। राहुल के लिए संभवतः यह पहला मौका था कि वे किसी के साथ सहानुभूति व्यक्त कर रहे हों और वहां उनको गालियां मिल रही हों। जाहिर है माहौल राहुल और कांग्रेस के लिए बहुत ही ज्यादा खराब हो गया है।

इस तरह के माहौल में सोनिया गांधी की जिम्मेदारी बहुत ज्यादा बढ़ गई है। उन्हें कांग्रेस ही नहीं, राहुल गांधी की छवि की भी परवाह करनी होगी। अभी यह पता नहीं कि सोनिया गांधी के स्वास्थ्य का क्या हाल है। कल उन्होंने उत्तर प्रदेश चुनावों को लेकर एक बैठक की अध्यक्षता की, लेकिन उनका हाल जानने के लिए उनसे मिलने की अनुमति प्रधानमंत्री को भी नहीं है।

कांग्रेस की चुनौतियों के अलावा डीएमके और तृणमूल कांग्रेस के कारण यूपीए सरकार के सामने खड़े हो रहे संकट भी उनके सामने हैं। कनमोरी की गिरफ्तारी के बाद डीएमके अभी भी काफी नाराज है और यूपीए सरकार को कमजोर देखते ही करुणानिधि कभी भी झटका दे सकते हैं। ममता बनर्जी से भी केन्द्र सरकार को बेचैनी मिलने लगी है। तीस्ता जल बंटवारे को लेकर ममता ने भारत सरकार को तो परेशान किया ही, पश्चिम बंगाल में कांग्रेस कार्यकर्त्ताओं के खिलाफ तृणमूल कार्यकर्त्ताआ हमले करवा रहे है। जाहिर है सोनिया गांधी को एक से एक बड़ी राजनैतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। (संवाद)