वर्ष 2011 में ही ‘ इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ कैमिकल सोसायटीज़’ के सफल 100 साल पूरे हो रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) और इंटरनेशनल यूनियन फॉर प्योर एंड एप्लाइड कैमिस्ट्री (आईयूपीएसी) ने वर्ष 2011 को अंतर्राष्ट्रीय रसायन शास्त्र वर्ष के रूप में सफलतापूर्वक मनाने की जिम्मेदारी संयुक्त रूप से ग्रहण की है। इसका मुख्य थीम ’मानवता के लिए रसायनशास्त्र: जीवन विज्ञान में नवीन विचार’ है।

रसायन शास्त्र में हुए आविष्कारों ने मानवता को असंख्य अनुप्रयोग प्रदान किए हैं। इनमें-ऑक्सीजन से लेकर पानी, भोजन, इमारत बनाने की सामग्री, दवाइयां और मानवता का प्रगतिशील आर्थिक विकास शामिल है। इस प्रकार रसायन शास्त्र मानव प्रजाति का अविभाज्य अंग बन चुका है।

17वीं सदी तक, रसायन शास्त्र को विज्ञान की अलग शाखा नहीं माना जाता था। इसे आधुनिक रसायनशास्त्र के रूप में विश्वसनीय पहचान एंटनी लेवोयसिएर के प्रयासों की बदौलत मिली।

एंटनी लॉरेंट लेवोयसिएर (1743-1794) को आधुनिक रसायन शास्त्र का जनक माना जाता है। ज्वलनशीलता में ऑक्सीजन की भूमिका की खोज के लिए वे विशेष रूप से प्रख्यात हैं। लेवोयसिएर ने रासानिक तत्वों के नाम रखने की पद्धति की शुरूआत की, जिसका पालन आज तक किया जाता है। वर्ष 1789 में रसायन शास्त्र को उनके मुख्य योगदान ’एलिमेंटरी ट्रिटाइज ऑन कैमिस्ट्री’ में सुरूचिपूर्ण ढंग से प्रदर्शित किए गए हैं।

1 नवम्बर 1772 में, लेवोयसिएर ने एकेडमी को एक नोट दिया, जिसमें कहा गया था कि सल्फर और फॉस्फोरस को जलाने पर उनका वजन बढ़ जाता है, क्योंकि वह ‘हवा’ को सोख लेते हैं, जबकि चारकोल में कमी करके लिथार्ज से बनाए गए धातु सदृश सीसे का वजन मौलिक लिथार्ज से कम हो जाता है, क्योंकि इसमें ‘हवा’ समाप्त हो जाती है। प्रक्रिया से सम्बद्ध हवा की सटीक प्रकृति, की व्याख्या उन्होंने 1774 में जोसेफ प्रिस्ले द्वारा डेफलोजिस्टिकेटिड एयर (ऑक्सीजन) तैयार किए जाने तक नहीं की थी। एकेडमी में 1777 में पेश किए गए, लेकिन 1782 तक प्रकाशित न होने वाले संस्मरण में उन्होंने उस त्रुटिपूर्ण अनुमान के आधार पर डेफोलोजिस्टिक हवा को ऑक्सीजन या ‘एसिड प्रोड्यूसर’का नाम दिया, जिसके अनुसार सभी एसिड साधारण, आमतौर पर गैर धातु तत्वों के योग से बनते हैं। लेवोयसिएर द्वारा वर्णित ज्वलनशीलता हाइपोथेटिकल फिल्गिस्टन की मुक्ति का नहीं, बल्कि ज्वलनशील तत्व के ऑक्सीजन के साथ मिश्रण परिणाम थी। 25 जून 1783 में पियरे लाप्लेस के साथ मिलकर उन्होंने एकेडमी में घोषणा की कि पानी हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के मिश्रण से बनता है, लेकिन उस समय तक हैनरी केवनडिश इसकी सम्भावना व्यक्त कर चुके थे। जल की संरचना के अपने ज्ञान की बदौलत लेवोयसिएर ने परिमाण संबंधी जैविक विश्लेषण की शुरूआत की। उन्होंने अल्कोहल और ऑक्सीजन तथा जल के भार से अन्य ज्वलशीन जैविक मिश्रण जलाए तथा कार्बन डाइआॅक्साइड बनाई, उनके संघटन की गणना की।

ऑक्सीजन सबसे पहले करीब 1772 में पहली बार के.वी. श्ली द्वारा मक्र्यूरी ऑक्साइड जैसे कुछ धातु ऑक्साइड्स को गर्म करके तैयार की गई थी। इसे 1774 में जोसेफ प्रिस्ले ने स्वतंत्र रूप से खोजा। उन्होंने ने भी इसे मक्र्यूरी ऑक्साइड गर्म करके ही प्राप्त किया। रासायनिक तत्व के रूप में इसे मान्यता हालांकि लेवोयसिएर (1775-77) की वजह से मिली। इसका रासायनिक प्रतीक ओ, आणविक संख्या 8, आणविक भार 16 है और यह एक मानक का काम करता है जिससे अन्य तत्‍वों के आणविक भार की तुलना की जाती है।

प्राचीन यूनानी विचार के विपरीत तत्व की आधुनिक अवधारणा के लिए हमें काफी हद तक लेवोयसिएर का आभारी होना चाहिए।

18वीं सदी के मध्य तक, वैसे रसायन शास्त्र विश्लेषणात्मक संतुलन के इस्तेमाल पर आधारित एक परिमाणात्मक विज्ञान बन चुका था और जरूरी रासायनिक मानदंड स्थापित हो चुका था। विषय की प्रकृति पर नवीन और स्पष्ट विचार लेवोयसिएर ने 1789 में प्रकाशित किए थे और उसके बाद भौतिकी पद्धतियों के बाद के विकास (यानी एक्स-रेज) पदार्थों को सिर्फ उनकी रासायनिक प्रतिक्रियाओं के आधार पर तत्वों या यौगिकों के रूप में वर्गीकृत किया गया।

रासायनिक प्रतिक्रियाओं के अपने प्रायोगिक अध्ययनों से प्राप्त डाटा के इस्तेमाल से लेवोयसिएर तत्वों की प्रथम वैज्ञानिक सूची तैयार करने में सक्षम हो सके, जिन्हें उन्होंने 1789 में अपनी पुस्तक में प्रकाशित किया।

जॉन डॉल्टन्स के आणविक सिद्धांत के प्रकाशन से पहले और यहां तक कि लेवोसिएर द्वारा द्रव्यमान के संरक्षण के नियम की औपचारिक अभिव्यक्ति से पहले, रासायनिक मिश्रणों में समतुल्यता के सिद्धांत को कुछ मान्यता मिल चुकी थी।

विज्ञान और फ्रांस को दिए तमाम योगदानों के बावजूद लेवोयसिएर 51 वर्ष की आयु में फ्रांस की क्रांति का शिकार बन गए। उनकी एस्टेट जब्त कर ली गई और उनके पुस्तकालय और प्रयोगशाला को आग के हवाले कर दिया गया और उन्हें 8 मई 1794 को मौत के घाट उतार दिया गया।

माइकल फरादे (1791-1867) ने इलेक्ट्रोलिसिज के नियम की खोज की थी। जिससे उद्योगों में इलेक्ट्रोप्लेटिंग का मार्ग प्रशस्त हुआ।

कार्ल विल्हेम श्ली (1742-1786) ने क्लोरीन, मोलिबडेनम, टंगस्टेन, मैग्नीज जैसे रासायनिक तत्वों और बहुत से यौगिकों की खोज की थी। अपने एक प्रयोग के दौरान पारे को चखते समय उनकी मौत हो गई थी।

सर हम्फ्री डेवी (1778-1829) ने सोडियम, पोटाशियम, खनिज, सेफ्टी लैम्प, लाॅफिंग गैस-एन 2ओ की खोज की थी। वे एक प्रयोग करते समय अपनी आंखों की रोशनी खो बैठे थे।

राॅबर्ट विल्हेम बंसेन (1811-1899) रासायनिक स्पैक्ट्रम विज्ञान के अग्रदूत थे। बंसेन बर्नर दुनिया की हरेक प्रयोगशाला में इस्तेमाल में लाया जाता है। शोध के दौरान उनकी एक आंख की रोशनी चली गई और आर्सेनिक जहर की वजह से उनकी मौत हो गई थी।

प्रफुल्ल चंद्र रे (1861-1944) ने रसायन शास्त्र के क्षेत्र में भारत का प्रतिनिधित्व किया और बाद में भारत में रसायन शास्त्र के प्रतिष्ठित सदस्य के रूप में पहचाने गए। उन्हें मक्र्यूरस नाइट्रेट की खोज करने और अमोनियम नाइट्रेट का संश्लेषण करने श्रेय दिया जाता है। नाइट्रेट्स पर उनके शोध की वजह से उन्हें अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक बिरादरी में ’द नाइट्रेट मैन’ कहकर पुकारा जाने लगा। उन्होंने बेरोजगार युवकों के लिए रोजगार और आजीविका के साधन सृजित करने के वास्ते विज्ञान का उपयोग करने के मद्देनजर 1901 में ‘बंगाल कैमिकल एंड फार्मास्यूटिकल्स’ की स्थापना की थी। रे बहुत ही लोकप्रिय शिक्षक थे और सत्येंद्र नाथ और मेघनाद साहा जैसे उनके कुछ छात्र भारत में भावी वैज्ञानिक शोध में बेहद अहम भूमिका निभाने वाले थे।

रे यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ साइंस, कोलकाता के एक कमरे में 16 जून 1944 तक अपने आखिरी वक्त तक अकेले रहे।

इस प्रकार रसायन शास्त्र का इतिहास मानव सभ्यता का इतिहास है जिसमें कई महान वैज्ञानिकों का समर्पण और बलिदान दर्ज है।