यह संकट मूल रूप से अमीर देशों का संकट है, लेकिन इसके कारण गरीब और विकासशील देश प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। जाहिर है, दुनिया एक और आर्थिक संकट के खतरे की ओर बढ़ रही है और उसके समाधान के लिए ग्लोबल प्रयासों की जरूरत है। वह प्रयास सिर्फ लक्षणों तक सीमित नहीं होने चाहिए, बलिक समस्या का समाधान उसकी जड़ से ही होना चाहिए।

विश्व जिस खतरे का सामना कर रहा है, उसका केन्द्र अमीर देश हैं। 2008 में अमेरिका आवास सेक्टर का सब प्राइम कर्ज संकट दुनिया के अन्य अमीर देशों में भी वित्तीय संकट का कारण बना था। वह संकट मूल रूप से कार्पोरेट संकट था। उसका समाधान सरकारों ने राजकोषीय उपायों से किया। कार्पोरेट सेक्टर को रियायतें देकर उनकी समस्या को हल कर दिया और 2010 में विकास की दर ठीकठाक रही। लग रहा था कि अब दुनिया उस वित्तीय संकट से उबर गर्इ है, लेकिन 2011 ने इस आशावादिता पर पानी फेर दिया है। इस साल विकास की गति धीमी पड़ गर्इ है। मुद्राकोष को उम्मीद थी कि इस साल भी विश्व अर्थव्यवस्था की विकास दर साढ़े 4 फीसदी की रहेगी, लेकिन अब यह अनुमान घटाकर 4 फीसदी का कर दिया गया है। 4 फीसदी का अनुमान सही हो, इसमे भी कोष बहुत ही अगर मगर लगा रहा है।

4 फीसदी की यह विकास दर पाने के लिए भी दुनिया अमीर देशो ंपर नहीं, बलिक भारत जैसे विकासशील देशों पर निर्भर है। कोष के अनुसार अमीर देशों की विकास दर इस साल 1 दशमलव 6 फीसदी रहेगी, जबकि विकासशील देशों की विकास दर 6 दशमलव 4 फीसदी होगी। विकासशील देशों की विकास दर तो हासिल भी किया जा सकता है, लेकिन अमीर देशों की यह अनुमानित विकास दर का हासिल हो पाना आसान नही है, क्योंकि उन देशों की सरकारों से जो उम्मीदें की जा रही हैं, वे पूरी करने में विफल हो रहे हैं।

संकटग्रस्त अमीर देशों को आज मुद्रा कोष वही सब करने को कह रहा है, जो कभी भारत, मेकिसको, ब्राजील और वेनूजुएला जैसे देशों को करने का कहता था। यानी उन्हें भी अपनी राजकोषीय अनुशासनहीनता को कम कर बजट और राजकोषीय घाटा कम करने को कहा जा रहा है और सही मौदि्रक नीति के पालन के उपदेश दिए जा रहे हैं, लेकिन यदि अमीर देश की सरकारें अपने राजकोष को अनुशासित करने की कोशिश करती है, जिसका मतलब टैक्स बढ़ाना और सामाजिक कार्यो पर होने वाले खर्चों में कटौती है, तो उसका सड़कों पर जबर्दस्त विरोध होता है। ग्रीस में हम इस तरह के विरोध देख चुके हैं। उसी तरह का डर अन्य देशों में भी है और उसके कारण वहां की सरकारें अलोकप्रिय राजकोषीय नीतियां अपनाने में डर रही हैं और खतरा यह है कि अमीर देशों में 1 दशमलव 6 फीसदी की विकास दर भी शायद हासिल नहीं किया जा सके।

राजकोषीय उपायों का इस्तेमाल करके तो 2008 का वित्तीय संकट हल किया गया था, लेकिन आज जब राजकोष का ही संकट चल रहा है, तो उसके लिए वे सरकारें क्या करें? समस्या वहीं तक सीमित नहीं है। वित्तीय संकट के दौरान बैंको को भी अनुशासित करने के लिए उनके कर्इ पर कतर दिए गए थे। उसके कारण अब बैंक आर्थिक विकास को तेज करने के लिए पहले जैसे कर्ज देने की आजादी नहीं रखते। कहने का मतलब यह है कि राजकोषीय और मौदि्रक दोनो तरह की उपायो को अपनाने की ताकत कम हो गर्इ है और मंदी से निपटने के लिए उम्मीद की जा रही है कि इन दोनों प्रकार की नीतियों का समिमलित रूप से इस्तेमाल हो। यदि बैंकों को पहले की तरह खुला छोड़ दिया जाय, तो फिर 2008 जैसे वित्तीय संकट की आशंका है और राजकोष अब उतना मजबूत और समृदध नही रहा कि अर्थव्यवस्था में आ रही मंदी को समाप्त किया जा सके।

यह समस्या अमीर देशों की है। कभी दुनिया की आर्थिक महाशकित कहे जाने वाले देश आज लाचार हैं। अमेरिका भारी कर्ज संकट में दबा हुआ है। वहां बेरोजगारी की दर 9 फीसदी से बढ़़कर इस साल साढ़े 9 फीसदी हो गर्इ है। विदेशी ओर आंतरिक दोनों प्रकार के कर्जों में वह दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश है। इस कर्जसंकट से उबरने का उसे फिलहाल कोर्इ रास्त नहीं दिख रहा है। उसके विदेशी व्यापार का यदि खाता देखा जाय, तो वह आयात ज्यादा करता है और निर्यात कम यानी चालू खातें पर वह घाटे में चल रहा है। दुनिया के अन्य अमीर देशों का भी यही हाल है। पूरा यूरोप कर्ज संकट का शिकार है। एक और महाशकित जापान पिछले साल आए भूकंप और सुनामी की गिरफत से बाहर नहीं निकल पाया है। उसकी अर्थव्यवस्था अब खुद ही दूसरों का सहारा ढूंढ़ रही है।

तो दारोमदार एक बार फिर भारत जैसे विकासशील देशों पर है, जिनकी समिमलित विकास दर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने इस साल के लिए 6 दशमलग 4 फीसदी होना तय किया है। सवाल उठता है कि क्या ये अर्थव्यवस्थाएं इतनी सक्षम हैं कि वह अमीर देशों से निकलने वाली मंदी की तरंगों से दुनिया को तबाह होने से बचा सके? वह ऐसा कर सके, इसके लिए यह जरूरी है कि वे ख्ुाद भी मंदी की उस तरंगों का शिकार होने से बचे। 2008 के अमीर देशों के वित्तीय संकट ने तो इसका ज्यादा नुकसान नहीं किया था, हालांकि प्रभावित ये भी हुर्इ थीं, लेकिन इस बार शायद वैसा न सके। इन देशों ने भी अपनी राजकोषीय और मौदि्रक नीतियों से कार्पोरेट सेक्टर को भारी राहत दी थी और उसके कारण अमीर देशों का वित्तीय संकट इनका बहुत नुकसान नहीं कर पाया था। पर आज राजकोषीय रूप से ये देश भी पहले जैसे सक्षम नहीं हैं। भारत में भी हम राजकोषीय दृषिट से उतने सक्षम नहीं हैं, जितने हम 2008 में थे। बढ़ती महगार्इ को थाम पाने में हमारी मौदि्रक नीतियां आज बार बार विफल हो रही है। यदि मुद्रा कोष का आकलन सही है, तो इस बार अमीर देशों की आर्थिक मंदी से ये विकासशील देश ज्यादा प्रभावित होने वाले हैं, जबकि 2008 के वित्तीय संकट से वे बहुत हद तक बचे हुए थे।

सवाल उठता है कि इस समस्य का समाधान क्या है अथवा इसका कोर्इ समाधान ही नहीं है? यह विश्व अर्थव्यवस्था बाजार पर टिकी हुर्इ है। बाजार जब डगमगाया, तो सरकार ने हस्तक्षेप करके उसे संभाला, पर सवाल यह उठता है कि सरकार कितना हस्तक्षेप करे? यदि सरकारी हस्तक्षेप से ही बाजार को संरक्षित करना है, तो फिर बाजार की जरूरत ही क्या रह जाती है? आने वाले दिन बाजार की अर्थव्यवस्था के लिए निर्णायक साबित होने वाले हैं। (संवाद)