शनिवार, 29 जुलाई, 2006

“लाभ के पद” का विवादित विधेयक

राष्ट्रपति के पास क्या होंगे विकल्प

ज्ञान पाठक

“लाभ के पद” का विवादित विधेयक गुरुवार को एक बार फिर राज्य सभा में ज्यों का त्यों पारित कर दिया गया। अब इसे लोक सभा में रखा जाना है। वहां भी इसके पारित हो जाने की संभावना है क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व वाली वर्तमान संप्रग सरकार का ही वहां बहुमत है जिसके मंत्रिमंडल ने इस विधेयक को ज्यों का त्यों राष्ट्रपति के पास वापस भेजने का निर्णय कर रखा है।

यह अलग बात है कि राष्ट्रपति ने इस विधेयक को पुनर्विचार के लिए संसद को वापस भेजा था, न कि मंत्रिमंडल को। स्पष्ट है कि कार्यपालिका के अहम और अक्खड़पन के आगे विधायिका दासी सी बन गयी है।

उल्लेखनीय है कि काफी का समय के अंतराल में ऐसा दूसरी बार हो रहा है जब हमारी वर्तमान सरकार दोषियों को बचाने के लिए कानून बना रही है। दोनों मामलों में पहले चुनिंदे आधार पर कार्रवाई की गयी और अन्य को बचाने के लिए कानून बदलने के विधेयक पारित किये गये। दिल्ली में अवैध भवनों को बचाने के लिए संसद में पारित किये गये विधेयक पर अदालत ने सरकार को झाड़ भी पिलायी थी।

भाजपा नेतृत्व वाले प्रमुख विपक्षी गठबंधन राजग ने राष्ट्रपति द्वारा पुनर्विचार के लिए लौटाये गये इस विधेयक को बिना विचार के फिर ज्यों का त्यों सदन में लाने और उसे महज संख्या के बल पर पारित कराने की कोशिश का तीखा विरोध किया, लेकिन उसकी कोई सुध नहीं ली गयी।

विपक्षी राजनीतिक पार्टियों का आरोप है कि इस विधेयक के जरिये केन्द्र की वाम समर्थन वाली सरकार कांग्रेस और वाम पार्टियों के अनेक दोषी नेताओं को बचाने का प्रयास कर रही है, जिनमें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और वाम नेता तथा लोक सभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी भी शामिल हैं।

इसमें शक की कोई गुंजाईश नहीं कि केन्द्र की संप्रग सरकार अपने खेमे के उन नेताओं को बचाने के लिए इस कानून को लाने की कोशिश कर रही है जो लाभ के एक से अधिक पदों पर बने रहने के दोषी हैं। उल्लेखनीय है कि समाजवादी पार्टी की सांसद जया बच्चन को लाभ के अन्य पद पर भी बने रहने के आरोप में राज्य सभा की सदस्यता से अयोग्य करार दिया गया था और उसके बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था।

यह भी स्पष्ट है कि इस कानून का उपयोग सिर्फ विरोधी राजनीतिक पार्टी के नेताओं को सबक सिखाने के लिए किया गया था। जया बच्चन के मामले में तेजी से कार्रवाई की गयी जबकि संप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी और लोक सभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी समेत अनेक सांसदों के खिलाफ लाभ के पदों पर बने होने की शिकायतें की गयीं थीं। महीनों से उनकी फाईलें चुनाव आयोग में लटकायी जा रही हैं, लेकिन उसकी समय सीमा भी 31 जुलाई तक ही है। यही है इस विधेयक को जल्दी पारित करवाने का कारण, क्योंकि यदि तब तक नया कानून नहीं बन पाया तो सरकार और दोषियों की मुश्किलें बढ़ जायेंगी।

सोनिया गांधी ने आरोपों के बाद लोक सभा की सदस्यता के साथ कई संस्थाओं के पदों से इस्तीफा देकर चुनाव लड़ा और जीतकर लोक सभा में दोबारा लौटीं। लेकिन अन्य सांसदों के मामले इसी विधेयक के सहारे लटके हुए हैं। राज्यों से भी चुनाव आयोग के पास अनेक शिकायतें आकर पड़ी हुई हैं।

इस विधेयक को गत मई महीने में संसद के दोनों सदनों में पारित कर राष्ट्रपति के पास अनुमोदन के लिए भेजा गया था। उसमें 56 पदों को लाभ के पद की परिभाषा से बाहर रखने का प्रावधान किया गया था।

लेकिन चंद दिनों के भीतर ही राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम ने उसे पुनर्विचार के लिए संसद को वापस भेज दिया था। उनका मानना था कि न तो विधेयक पर समुचित विचारण हुआ था और न ही ऐसे कानून को लागू करने के दुष्प्रभावों पर।

यदि संसद इस विधेयक को फिर राष्ट्रपति के पास भेज देती है तो भारत के संविधान के अनुसार उनके लिए इसे मंजूरी देना बाध्यकारी होगा। #