अब तो तेलंगाना आंदोलन में ''भगवान भी शामिल हो गए हैं। इस इलाके के मंदिरों में अर्जित सेवाएं बंद हो गर्इ हैं, क्योंकि पुजारी व मंदिरों के अन्य कर्मचारियों ने भी आंदोलन में शामिल होने के लिए मंदिर का अपना काम स्थगित कर रखा है। राज्य की राजधानी सहित तेलंगाना के पूरे क्षेत्र में सबकुछ थम सा गया है। हैदराबाद की ब्रांड छवि को झटका लगा है। विश्वविधालयों और सरकारी दफतरों मे कोर्इ काम नहीं हो रहा है। अब राजनैतिक नेता कहने लगे हैं कि तेलंगाना का आंदोलन उनके नियंत्रण से बाहर जा चुका है। पहले वे शेर की सवारी कर रहे थे। अब शेर स्वच्ंछंद हो चुका है और उस पर किसी का कोर्इ नियंत्रण नहीं है।
अलग तेलंगाना राज्य की मांग दशकों पुरानी है। केन्द्र और राज्य की राजनीति को यह मसला बीच बीच में लगातार गरम करता रहा है। अलग राज्य की मांग इस क्षेत्र के सभी तबकों के लोगों के दिलों दिमाब में छा गर्इ है। इस महीने यह आंदोलन फिर एक बार तेज हो गया है। दूसरी और आंध्र प्रदेश के शेष क्षेत्र के लोगों के बीच आंध्र प्रदेश को एक रखने की भावना भी उतनी ही मजबूत है।
सरकार समितियां और आयोगों का गठन कर मामले को हमेशा टालती रही है। अलग राज्य की मांग ने 1990 के दशक में उस समय फिर जोर पकड़ना शुरू किया जब तेलंगाना राष्ट्रीय समिति का गठन हुआ। उसके बाद तो अब यह आंदोलन अपने चरम उत्कर्ष पर है। पर केन्द्र सरकार को लगता है कि यदि इस समस्या की ओर से आंखें मूद ली जाए, तो इसका समाघान अपने आप निकल जाएगा।
दो कारणों से समस्या का हल नहीं निकल रहा है। पहला कारण तो यह है कि केन्द्र सरकार साहसपूर्ण निर्णय लेने में झिझक रही है और दूसरा कारण यह है कि अक्षम राज्य सरकार राजनैतिक पार्टियोें को बातचीत में उलझाकर रखने मे विफल हो रही है। राजनैतिक आम सहमति बनाने के लिए किसी राजनैतिक संकल्पशकित का जबर्दस्त अभाव है। श्रीकृष्ण आयोग की सिफारिशों को आधार बनाकर केन्द्र सरकार को सर्वानुमति बनाने की कोशिश करना चाहिए था, लेकिन इसकी जगह पर वह टाल मटोल की नीति को तवज्जो दे रही है। कांग्रेस खुद उधेड़बुन में पड़ी हुर्इ है, क्योंकि तेलंगाना क्षेत्र के इसके अपने सांसद और विधायक इस्तीफा दे चुके हैं और लोकसभा व विधानसभा के स्पीकर ने उनका इस्तीफा अभी तक स्वीकार नहीं किया है।
इस मसले पर लोकसभा, विधानसभा और उनके बाहर भी अनेक बार इस मसले पर बहस हो चुकी है। केन्द्र सरकार की भूमिका निराशाजनक रही है। गृहमंत्री पी चिदंबरम का कहना है कि अलग तेलंगाना राज्य पर सिर्फ तीन पार्टियों ने ही अपना पूरा मन तैयार कर रखा है। वे हैं- तेलंगाना राष्ट्रीय समिति, भारतीय जनता पार्टी और सीपीआर्इ, जबकि कांग्रेस, टीडीपी, सीपीएम और एमआर्इएम ने इस मसले पर अपनी राय तय नहीं की है। यह एक विचित्र सिथति है, जिसमें आंध्र प्रदेश के ये दल अलग तेलंगाना राज्य के मसले पर बीख् से दो फाड़ हो चुके हैं।
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद, जो आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के प्रभारी भी हैं ,विचित्र बात करते हैं। वे कहते हैं कि सबकुछ यहां ख्ुाला है और जन प्रतिनिधि अपना पक्ष रखने के लिए पूरी तरह आजाद हैं। यानी कांग्रेस तेलंगाना के पक्ष अथवा विपक्ष में अपनी राय बनाने की पूरी आजादी अपने सांसदों और विधायकों को दे रखी है। यही कारण है कि जो कांग्रेसी जनप्रतिनिधि तेलंगाना क्षेत्र से आते हैं वे अलग राज्य का समर्थन कर रहे हैं और जो राज्य के अन्य क्षेत्रो ंसे आते हैं, वे राज्य के विभाजन का विरोध कर रहे हैं।
आंध्र प्रदेश कांग्रेस का अंतिम गढ़ भी कहा जाता है। 1977 के लोकसभा चुनाव मे ंजब कांग्रेस पार्टी का उत्तरी भारत में खात्मा हो गया था, तो आंध्र प्रदेश और कर्नाटक ने ही उसकी इज्जत बचार्इ थी। 2004 और 2009 में यूपीए के सत्ता में आने के पीछे भी आंध्र प्रदेश का भारी योगदान रहा है, जहां उसे भारी जीत मिली। पर इसके नेता राजशेखर रेडडी की मौत ने कांग्रेस का खेल बिगाड़ दिया है। अब यदि चुनाव हो जाए, तो कांग्रेस को 10 सीटें मिलना भी दूभर हो जाए।
आज कांग्रेस को चाहिए कि वे अपने सांसदों और विधायकों को अपना निर्णय मानने को बाघ्य कर दे। वह एक निर्णय ले और कहे कि यह निर्णय आंध्र के सभी कांग्रेसी सांसदों, विधायकों व अन्य नेताओं को बाध्य होगा। उसके बाद वह उस निर्णय पर अन्य दलों की सहमति बनाने की कोशिश करे। टाल मटोल की नीति तो कांग्रेस को छोड़ ही देनी चाहिए। (सवांद)
कांग्रेस की तेलंगाना पर कोई नीति नहीं
टाल मटोल की नीति समस्या का हल नहीं
कल्याणी शंकर - 2011-09-30 13:18
पंद्रह दिनों से भी ज्यादा से आंध्र प्रदेश का तेलंगाना क्षेत्र आंदोलन की आग से झुलस रहा है। राजधानी हैदराबाद भी इससे अछूता नहीं है। लेकिन क्या यह राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित कर रहा है? देश की राजधानी की राजनीति केन्द्र सरकार के दो मंत्रियों के विवादों के नीचे दबी हुर्इ है और तेलंगाना के मसले पर कोर्इ ध्यान ही नहीं दे रहा है। न तो कांग्रेस सोनिया गांधी और न ही प्रधानमंत्री को तेलंगाना के आंदोलन की कोर्इ चिंता है।