कहते हैं कि पी चिदंबरम सरकार से इस्तीफे की घमकी दे रहे थे। जिस व्यकित के इस्तीफे की मांग पूरा विपक्ष कर रहा हो और लगभग सारा देश जिसका इस्तीफा चाहता हो, वह इस्तीफा नहीं दे, बलिक इस्तीफे की घमकी दे, इससे ज्यादा बेतुका बात और कुछ नहीं हो सकती है, लेकिन भारत में घोटालों के अनावरण के इस दौर में आज बेतुकी बातों का ही साम्राज्य स्थापित हो गया है, इसलिए बेतुकापन में भी एक तार्किकता दिखार्इ पड़ती है।
सवाल उठता है कि चिदंबरम किसे इस्तीफे की घमकी दे रहे थे? वह विपक्ष को तो इस्तीफे की धमकी नहीं दे सकते थे, जो उससे पहले से ही इस्तीफा माग रहा था। वह देश के लोगों को भी इस्तीफे की घमकी नहीं दे सकते थे, क्योंकि उनमें से भी ज्यादातर उनका इस्तीफा चाह रहा था। वे प्रणब मुखर्जी को भी इस्तीफे की घमकी नहीं दे सकते थे, क्यांकि कांग्रेस के इन दोनों नेताओं में वित्त मंत्रालय को लेकर पहले से ही युदध चल रहा है और यदि पी चिदंबरम सरकार से बाहर हो जाएं, तो प्रणब मुखर्जी के लिए वित्त मंत्रालय पूरी तरह सुरक्षित हो जाएगा। तो क्या पी चिदबरम प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को यह धमकी दे रहे थे?
इसकी संभावना कुछ ज्यादा लगती है, लेकिन यदि ध्यान से देखा जाय, तो इसमें भी सच्चार्इ नहीं है। इसका कारण यह है कि जिस 2 जी नोट के सार्वजनिक हो जाने के कारण पी चिदंबरम परेशान थे, उस नोट की तैयारी में प्रधानमंत्री की ही भूमिका थी। जैसा कि प्रणब मुखर्जी ने अपनी चिटठी में सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री का बताया कि उस नोट की पहल कैबिनेट सेक्रेटरी ने ही की थी और उन्हीं के नेतृत्व में तीन मंत्रालयों और पीएमओ के नौकरशाहों की बैठकें होती थीं। वह नोट उन बैठकों से ही निकला था। कैबिनेट सेक्रेटरी इस तरह का नोट बिना प्रधानमंत्री के निर्देश के बनाने में दिलचस्पी नहीं रख सकते।
यानी वह नोट प्रधानमंत्री के इशारे पर तैयार किया गया था। आखिर प्रधानमंत्री को उसकी जरूरत क्यों पड़ी? उसकी जरूरत इसलिए पड़ी कि पी चिदंबरम 2 जी घोटाले में अपने आपको पाक साफ साबित करने मे उतारु हो रहे थे और वैसा करते हुए वे प्रधानमंत्री तक को उस घोटाले में घसीट रहे थे। वे बार बार सार्वजनिक बयान दे रहे थे कि उनका मंत्रालय शुरू से अंत तक स्पेक्ट्रम की नीलामी के पक्ष में था और राजा ने जो कुछ किया उनके विरोध के बावजूद किया। यदि दो मंत्रालयों में किसी मसले पर मतभेद हो, तो वह मसला प्रधानमंत्री द्वारा हल किया जाता है। यह मसला भी प्रधानमंत्री के पास गया। उनके पास जाने के बाद राजा की इच्छा के अनुसार ही काम हुआ। यानी इसका मतलब यह है कि राजा और चिदंबरम के बीच हो रहे विवाद मे ंप्रधानमंत्री ने राजा का पक्ष लिया और घोटाला हो गया।
इस तरह से पी चिदंबरम इस घोटाले के लिए खुद को नहीं, बलिक प्रधानमंत्री को जिम्मेदार बता रहे थे। अरुण जेटली के अनुसार प्रधानमंत्री से जब उन्होंने पूछा कि दोनों के बीच मतभेद की सिथति में उन्होंने अपनी तरफ से हस्तक्षेप क्यों नहीं कियाा, तो प्रधानमंत्री का जवाब था कि एक बार दोनों उनके पास आए और कहा कि उन दोनों में सहमति हो गर्इ है और अब कोर्इ विवाद नहीं है। इसका हवाला देते हुए प्रधानमंत्री ने जेटली को बताया कि उनके बीच में सहमति हो जाने के बाद उन्होंने हस्तक्षेप नहीं किया। यानी राजा से चिदंबरम का विरोध लिखित था, जबकि सहमति मौखिक और इस मौखिक सहमति का कोर्इ लिखित प्रमाण नहीं था।
यही कारण है कि कैबिनेट सेक्रेटरी ने पहले करते हुए 2 जी घोटाले से संबंधित सारे पत्राचारों को संबंधित मंत्रालयों से खंगलवाया और फिर उन दस्तावेजों के आधार पर यह नोट तैयार हुआ। इस नोट का उददेश्य प्रधानमंत्री को बचाना भी था। गौर तलब है कि नोट बनाने का यह फैसला उस समय किया, जब केन्द्र सरकार ने संसद को चलाने के लिए 2 जी घोटाले पर जेपीसी के गठन की अनिवार्यता को स्वीकार कर लिया था। जनवरी 2011 में इस नोट को तैयार करने का काम शुरू हुआ और फरवरी महीेने में जेपीसी के गठन की मांग को केन्द्र सरकार ने स्वीकार कर लिया। यह नोट भी मार्च महीने तक में तैयार कर लिया गया।। यानी प्रधानमंत्री और उनका कार्यालय पी चिदंबरम के उस बयानों को झूठा साबित करना चाहते थे कि 2 जी स्पेक्ट्रम के मूल्य निर्धारण की नीति मे ंउनकी कोर्इ भूमिका नहीं थी और यदि कोर्इ भूमिका थी भी तो वह विरोध की भूमिका थी।
उस नोट का सबसे महत्वपूर्ण अंश 15 जनवरी, 2008 को प्रधानमंत्री को भेजी गर्इ वह चिटठी है, जिसमें पी चिदंबरम ने स्पेक्ट्रम की बिक्री की नीलामी के द्वारा किए जाने की जमकर वकालत की है और अंत में एक वाक्य में लिख मारा है कि अब तक 2 जी स्पेक्ट्रम की बिक्री से संबंधित जो भी काम अथवा निर्णय हुए है, उनसे संबंधित अघ्याय को बंद मान लिया जाय। 2 जी स्पेक्ट्रम के घोटाले की तारीख 10 जनवरी, 2008 है। यानी घोटाले के 5 दिनों के बाद चिदंबरम प्रधानमंत्री से कहते हैं कि घोटालों की ओर से आंखें मूद ली जाय।
उपरोक्त तथ्य को जगजाहिर करके प्रधानमंत्री और उनके कार्यालय ने चिदंबरम के पाकसाफ होने के दावे की घजिजयां उड़ा दी। जब आरटीआर्इ के द्वारा यह मामला उजागर हुआ, उस समय पी चिदंबरम को कोर्ट में बुलाने की राजा मांग कर रहे थे और सुब्रमण्यम स्वामी भी उनके खिलाफ मुकदमा चलाने की मांग कर रहे थे। पी चिदंबरम के लिए उस नोट का सार्वजनिक होना उनपर बज्रपात होने से कम नहीं था। लिहाजा वह तिलमिला गए।
उसके बाद उन्होंने इस्तीफे की घमकी दे डाली। कहते हैं कि प्रधानमंत्री ने उन्हें उनके देश वानस आने का इंतजार करने को कहा। प्रधानमंत्री वापस आए और उनका इस्तीफा नहीं हुआ, लेकिन नोट के कारण चिदंबरम और श्री मुखर्जी के बीच तनाव खत्म करने का जिम्मा उठाया सोनिया गांधी ने। इस पूरे प्रकरण के दौरान यह जाहिर हो गया कि पी चिदंबरम के इस्तीफे का डर सबसे ज्यादा सोनिया गांधी को ही सता रहा है। चिदंबरम के खिलाफ बयान देने में सुख महसूस करने वाले दिबिवजय सिंह तक चिदंबरम के बचाव में उतर आए, हालांकि बचाव वाले बयान के कुछ घंटे पहले ही उन्होंने चिदंबरम की आलाचना का सुख भी हासिल किया था। चार घंटे के अंदर दिगिवजय में आया यह बदलाव सीघे तौर पर सोनिया के निर्देश के तहत ही हुआ होगा। पूरी कांग्रेस श्री चिदंबरम के दबाव में आ खड़ी हुर्इ। इसके साथ यह सवाल पूछा जा रहा है कि आखिर सोनिया गांधी पर चिदंबरम की घमकी में क्यों आ गर्इ? (संवाद)
सोनिया गांधी ने गृहमंत्री को क्यों बचाया?
चिदंबरम की घमकी ने असर दिखाया
उपेन्द्र प्रसाद - 2011-10-01 11:29
टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर कांग्रेस के अंदर चल रहा घमसान अब समाप्त हो गया है, लेकिन इस घमासान ने पार्टी और सरकार की छवि और भी धूमिल कर दी है। इस घमसान ने पहली बार पार्टी के शिखर नेतृत्व को भी संदेह के घेरे में ला खड़ा किया है। अब तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पी चिदंबरम का संरक्षक माना जाता था। अब पहली बार यह दिखार्इ पड़ा है कि श्री चिंदबरम को सरकार में बनाए रखने में मनमोहन सिंह से ज्यादा सोनिया गांधी की दिलचस्पी है।