केन्द्र सरकार महंगार्इ की समस्या के हल के लिए भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा तैयार की जाने वाली मुद्रा नीतियों की सहायता ले रही है। अपनी मुद्रा नीति से भारतीय रिजर्व बैंक सिर्फ एक काम कर रहा है और वह है कि ब्याज दरों को लगातार बढ़ाते जाना। अब पिछले कुछ समय में 12 बार ब्याज दरों को बढ़ा चुका है। ब्याज दर बढ़ाने के पीछे तर्क यही दिया जाता है कि इसके कारण बैंक कम कर्ज जारी करेगा और लोगों के पास खर्च के लिए कम रुपया रहेगा। अर्थव्यवस्था मे रुपया कम रहने से बाजार मे लोगों की प्रभावी क्रयशकित कम हो जाएगी। कम क्रयशकित होने के कारण बाजार मे ंवस्तुओं की मांग भी कम होगी और इसके कारण मांग और आपूर्ति के नियम का पालन करते हुए बाजार में कीमतें भी नीचे चली जाएगी।
पर भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दर बार बार बढ़ाने के बाद भी महंगार्इ घटने का नाम नहीं ले रही है। इस तरह मुद्रा नीति द्वारा महंगार्इ पर नियंत्रण करने का प्रयास लगातार विफल हो रहा है। इसका एक कारण तो यही हो सकता है कि देश में काले की धन की समानांतर अर्थव्यवस्था पकड़ बहुत मजबूत हो चुकी है। भारतीय रिजर्व बैंक की मुद्रा नीति के दायरे में देश का सफेद धन ही होता है, काला धन नहीं। काला धन हमारी अर्थव्यवस्था में कितना है इसके बारे में सिर्फ अनुमान ही लगाए जा सकते हैं, इसका कोर्इ पुख्ता आंकड़ा हमारे पास नहीं है और शायद इस तरह का आंकड़ा हमें कभी भी मिल भी नहीं सके, क्योंकि पर्दे के पीछे क्या हो रहा है, इसके बारे में दावे से कोर्इ कुछ भी नहीं कह सकता।
लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक की मुद्रा नीति जिस तरह से महंगार्इ पर नियंत्रण करने में विफल हो रही है, उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था अब हमारी वैध अर्थव्यवस्था से भी बड़ी हो गर्इ होगी, तभी तो कोर्इ मौदि्रक युकित काम नहीं कर पा रही है। कीमतों पर नियंत्रण कर पाने में भारतीय रिजर्व बैक की विफलता इस बात का एलान है कि काला धन ने इतना विकराल रूप ले लिया है कि उसके सामने हमारी एक नीति निर्धारक ( भारतीय रिजर्व बैंक) लाचार हो गया है।
भारतीय रिजर्व बैंक अपनी नीतियों से बैंकों की ब्याज दर को बढ़ाए जा रहा है। उसका उददेश्य है कीमतों पर नियंत्रण करना। यह उददेश्य तो हासिल नहीं हो पा रहा है, लेकिन बैंको की ब्याज दर बढ़ने के कारण उधोग और व्यापार पर असर पड़ रहा है। इसके कारण उधोगों और व्यापार के लिए उपलब्ध पूंजी महंगी होती जा रही है। जाहिर है उत्पादो का लागत मूल्य भी बढ़ता जा रहा है। यानी वस्तुएं अपने उत्पादन के समय ही महंगी होती जा रही हैं, फिर बाजार में जाकर उसके सस्ते होने का सवाल ही कहां पैदा होता है?
लागत मूल्य तो बाद मे बढ़ता है, लेकिन उधोग और व्यापार में लगी कंपनियों के लिए तो आफत बैंक ब्याज दर बढ़ने के साथ ही शुरू हो जाती है और उनके कामकाज पर इसका असर पड़ने लगता है। इससे औधोगिक विकास की दर प्रभावित होती है। लिहाजा, भारतीय रिजर्व बैंक की ब्याज दर महंगा करने की यह नीति आर्थिक विकास दर को भी कमजोर करने का काम कर रही है।
इस तरह महंगार्इ आर्थिक विकास दर के लिए एक तरह से खतरा भी बन गर्इ है। केन्द्र सरकार की महंगार्इ रोकने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक पर अतिशय निर्भरता आज ऊंची विकास दर हासिल करने के रास्ते में रोड़ा बन गया है।
इस तरह के माहौल में आज हम अनुमान लगा रहे हैं कि चालू वित्त वर्ष में हमारे देश की आर्थिक विकास दर क्या होगी? सबसे ज्यादा आशावादी अनुमान 8 फीसदी है, लेकिन क्या इस अनुमान को सच साबित किया जा सकता है? एक समय था जब हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और योजना आयोग के उपाध्यक्ष माेंटेक सिंह अहलूवालिया आर्थिक विकास की दर को दहार्इ अंकोेंमें ले जाने का दावा कर रहे थे, लेकिन वर्तमान दशक में पिछले दशक की विकास दर को भी बरकरार रखने में हम सफल होते नहीं दिखार्इ पड़ रहे हैं।
बढ़ती महंगार्इ के कारण हमारा रुपया अपने घरेलू बाजार मे तो सस्ता हो ही रहा है, अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी रुपया लगातार कमजोर होता जा रहा है। आज एक अमेरिकी डालर की कीमत लगभग 50 रुपए हो गर्इ है, जो कुछ महीने पहले 40 रुपए के आसवास थी। कमजोर रुपया हमारे देश के निर्यार्तकों को तो फायदा पहुंचा रहा है और देश के निर्यात सेक्टर को भी इसका लाभ होगा, लेकिन इसके कारण हमारा आयात बिल भी बढ़ रहा है। भारत ने इन दिनों अपने उत्पादन में विदेशी इनपुट के अनुपात को बढ़ा दिया है, जिसके कारण घरेलू बाजार के लिए घरेलू उत्पादन करने वालों की शामत आ रही है। कच्चा तेल और उसके उत्पाद हमारे देश के आयात बिल का सबसे बड़ा हिस्सा हैं। रुपया कमजोर होने से आयातित कच्चा तेल और उसके उत्पाद भी रुपयों की र्इकार्इ में महंगे हो रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार मे कच्चे तेल की बढ़ी कीमत का हवाला देकर हमारी तेल कंपनियां पेट्रोल तो महंगा कर ही रही थी, अब अंतरराष्ट्रीय बाजार में रुपया के कमजोर होने का हवाला देकर भी पेट्रोल महंगा किया जा चुका है। आज अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल सस्ता हो रहा है, लेकिन रुपया के कमजोर हो जाने के कारण इसका लाभ भारत के पेट्रोल उपभोक्ताओं को नहीं मिल सकता। रुपये के सस्ता होने का हवाला देकर केन्द्र सरकार डीजल की कीमतों को भी कभी भी बढ़ा सकती है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कमजोर हो रहा रुपया अपने घरेलू बाजार में महंगार्इ का और भी बढ़ाने का काम करेगा। इस तरह हमारी विकास दर अब महगार्इ में उलझकर रह गर्इ है।
विश्वव्यापी मंदी के खतरे एक बार फिर मंडरा रहे हैं। अमेरिका का संकट सुलझने के बजाय और भी गहरा रहा है। भूकंप और सुनामी से तबाह जापान अभी भी उबरने का इंतजार कर रहा है और यूरोप के देश वित्तीय संकट से अभी भी जूझते हुए दिखार्इ दे रहे हैं। इस अंतरराष्ट्रीय माहौल में भारत अपनी विकास दर के प्रति कितना आश्वस्त हो सकता है, इसके बारे में अनुमान लगाना कठिन नहीं है। (संवाद)
भारत का आर्थिक दु:स्वप्न
महंगाई की फांस में उलझ गयी है विकास दर
उपेन्द्र प्रसाद - 2011-10-05 12:39
आज अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक माहौल ही नहीं, खुद भारत का आंतरिक माहौल भी बहुत अच्छा नहीं है। आर्थिक और गैर आर्थिक दोनों किस्म के माहौल विकास की हमारी कोशिशों के खिलाफ खड़े दिखार्इ पड़ रहे हैं। आर्थिक माहौल की बात करें, तो मुद्रास्फीति एक बहुत बड़ी चुनौती बनकर हमारे सामने खड़ी है। महंगार्इ की आम दर तो अपने आपमें ज्यादा है ही, खाध वस्तुओं की मुद्रास्फीति भी लगातार ऊंची बनी हुर्इ है। यह अभी भी दहार्इ अंकों के आसपास है। पिछले साल तो यह 18 फीसदी के आसपास थी। सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि 18 फीसदी के बेस पर वर्तमान 9 से 10 फीसदी की खाध मुद्रास्फीति दर देश के आम लोगों के लिए कितना जानलेवा साबित हो रही होगी।