9000 से 18700 फीट की ऊंचाई के बीच घटते बढ़ते 3488 कि.मी. लंबे पर्वत क्षेत्र, शून्य से भी 45 डिग्री नीचे के पारे में चिलचिलाती सर्दीली जगहों, अथाह घाटियों, दुर्गम गड्ढों, अंधियारी नदियों, खतरनाक ग्लेशियरों, पथरीली ढालों और अदृश्य प्राकृतिक खतरों के बीच आईटीबीपी के जवान और अधिकारी अपने सेवा काल का एक बड़ा हिस्सा बिताते हैं। यह काराकोरम दर्रे ( जम्मू कश्मीर में तिब्बत तक व्यापार का पुराना मार्ग) से अरुणाचल प्रदेश में दिफू ला तक विस्तृत है।

आईटीबीपी लोकाचार

आईटीबीपीएफ के चिन्ह में संक्षिप्तता से इसके लोकाचार का वर्णन है यानि बहादुरी और निष्ठापूर्ण प्रतिबद्धता। एक आटीबीपी जवान अपने नमक के प्रति वफादार, अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान और इंसानी या प्राकृतिक, किसी भी तरह की कठिन परिस्थिति में अडिग रहता है। वह चीजों में सुधार और उपलब्ध संसाधनों के अधिकाधिक इस्तेमाल के पथ पर चलता है।

बल की भूमिका

इस सेना ने 1965 में भारत पाक संघर्ष में हिस्सा लिया। दुश्मनों से लडकर इसने उन्हें युद्ध क्षेत्र से बाहर भगा दिया, पाकिस्तानी घुसपैठियों और सैनिक बलों को समाप्त करने के लिए तलाशी अभियान को अंजाम दिया और प्रमुख प्रतिष्ठानों को सुरक्षा प्रदान की। 1971 के युद्ध में इसकी दो पलटनों ने श्रीनगर और पुंछ क्षेत्र में घुसपैठियों के ठिकानों के अनेक क्षेत्रों की पहचान/पता लगाने और उन्हें नष्ट करने के विशेष कार्य को अंजाम दिया, इस अभियान के लिए इनकी काफी सराहना हुई।

1978 में राष्ट्रीय आदेशों ने बलों की भूमिका को पुनः परिभाषित किया जिससे इसके मूल स्वभाव में परिवर्तन किया गया। एक बहुआयामी बल बनाने के लिए इसे विविध कार्य सौंपे गए।

अपने दायित्व क्षेत्र में आईटीबीपी आईबी को संरक्षण प्रदान करती है। आईबी के साथ मिलकर यह सीमा पार से होने वाले अपराध और गुप्त सूचनाओं के संकलन, तस्करों और घुसपैठियों से पूछताछ और अंतर्राष्ट्रीय सीमा/एलएसी पर संयुक्त रुप से गश्त भी करती है। संवेदनशील क्षेत्रों में आईटीबीपीएफ सेना के साथ मिलकर काम करती है। शांति काल में यह अपने आप को पेशेवर तौर पर और अधिक तैयार और निपुण बनाती है ताकि समय आने पर वास्तविक चुनौतियों से निपटा जा सके।

2003 में मंत्री समूह की संस्तुति यानि ‘एक सीमा एक बल’ को अंजाम देने के लिए आईटीबीपी को असम और अरुणाचल प्रदेश में भारत-चीन के पूर्वी क्षेत्र का उत्तरदायित्व सौंपा गया था और फलस्वरुप पूर्वोत्तर में युगांतरकारी रुप से आईटीबीपी प्रविष्ट हुई।

दुर्गम सड़क संपर्क के कारण पूर्वोत्तर क्षेत्र में सीमा की रखवाली पश्चिम और मध्य क्षेत्र की रखवाली से कहीं अधिक कठिन है। सीमा की रखवाली के अतिरिक्त यह बल पूर्वोत्तर राज्यों में आंतरिक सुरक्षा कर्तव्यों का भी निर्वहन करती है। ऊंचाई वाले क्षेत्रों में आईटीबीपी की ऊंची चौकिया अन्य बलों से कहीं आगे है। आईटीबीपी के जवानों को हिम-तूफानों, हिम-स्खलनों और भू-स्खलनों का लगातार सामना करना पड़ता है।

अतिरिक्त दायित्व

1982 तक इस सेना की गतिविधियां हिमालय तक ही सीमित थीं, लेकिन समय के बदलाव के साथ , इस बल के कर्मियों को अन्य चुनौतियों का सामना करने के लिए भी प्रशिक्षित किया गया। 1982 में आयोजित एशियाड के दौरान आईटीबीपीएफ के जवानों ने बेहद नाज़ुक और साथ ही जोखिम भरे सुरक्षा कर्तव्यों का प्रदर्शन किया। जहां इसके जवानों को विभिन्न स्टेडियमों, अलग-अलग देशों के दल, खेल गांव परिसर और विभिन्न अति विशिष्ट व्यक्तियों की चाक-चौबंद सुरक्षा का ज़िम्मा सौंपा गया था।

कठिन कार्य के लिए जवानों का प्रशिक्षण

प्रारंभिक चरणों में इस बल को सौंपे गए कार्य के कारण इसकी भूमिका वन्य और हिमालय के प्राकृतिक क्षेत्रों तक ही सीमित थी । जवानों को दिए जाने वाले उपयुक्त प्रशिक्षण के कारण सीमा पार से होने वाली विरोधी गतिविधियों से निपटना इतना दुष्कर नहीं था लेकिन ऐसे दुर्गम क्षेत्रों में स्वंय के अस्तित्व को बनाए रखना सबसे अधिक चुनौतिपूर्ण है।

इसी कारण हिमालय के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में तैनाती से पहले बल के जवानों को पहाड़ो की चढ़ाई, पर्वतारोहरण, और पर्वत पर युद्ध के तरीकों से संबंधित प्रशिक्षण दिया जाता है। उन्हें अच्छा सिपाही बनाने के लिए गुरिल्ला युद्ध का अभ्यास कराया जाता है।

एचएएमटीएस

उच्च ऊंचाई वाले चिकित्सा प्रशिक्षण स्कूल (एचएएमटीएस) की अवधारणा और इसका औपचारिक उद्घाटन 17 जुलाई 2009 को लेह में किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य पराचिकित्सकों को ऊंचाई वाले स्थान पर पेश आने वाले रोगों और बीमारियों का निदान और उसके प्रबंधन के बारे में प्रशिक्षित करना था। एक अर्धसैनिक बल होने के कारण बडी संख्या में आईटीबीपी के जवानों की नियुक्ति उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्रों में की जाती है, इसलिए इसे ज़रुरी और अनुकूल समझा गया कि एक प्रशिक्षण केन्द्र द्वारा पराचिकित्सकों और डॉक्टरों को उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पेश आने वाली बीमारियों के निदान, उपचार और प्रबंधन के बारे में प्रशिक्षित किया जाए और इससे संबंधित विभिन्न उपलब्ध उपकरणों के बारे में नवीनतम जानकारी दी जा सके। भारत में एमबीबीएस के पाठ्यक्रम में आमतौर पर उच्च ऊंचाई के क्षेत्रों में होने वाले रोगों और इसकी दवाओं को समाविष्ट नही किया जाता परिणामस्वरुप डॉक्टर भी इस प्रकार की बीमारियों और इसके उपचार से परिचित नहीं होते। जुलाई 2009 में इसकी स्थापना के बाद से एचएएमटीएस द्वारा संचालित दो पाठ्यक्रम इस प्रकार है- पहला आयुर्विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए बुनियादी उच्च ऊंचाई का पाठ्यक्रम जिसकी अवधि दो सप्ताह की है और दूसरा चिकित्सा अधिकारियों के लिए एक सप्ताह की अवधि का आरंभिक पाठ्यक्रम।

आयुर्विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए बुनयादी उच्च ऊंचाई वाले पाठ्यक्रम के आठ बैच और चिकित्सा अधिकारियों के आरंभिक पाठ्यक्रम के तीन बैचों सहित अब तक कुल 193 प्रशिक्षुओं के प्रशिक्षण को पूरा किया जा चुका है। हाल तक यह संस्थान उपलब्ध संसाधनों चाहे वह प्रशिक्षकों, चिकित्सा अधिकारियों अथवा बुनियादी ढांचे वगैरह के रुप में हो, को संकेन्द्रित कर अपना संचालन कर रहा था। लेकिन अब इसके लिए पूरी तरह समर्पित कर्मचारियों को औपचारिक रुप से स्वीकृति मिलने के बाद भविष्य में इसके महत्वकांक्षी विस्तार को देखा जा सकता है। देश में अपनी तरह का यह एकमात्र संस्थान है जो डॉक्टरों और पराचिकित्सकों को उच्च ऊंचाई वाले रोगों से निपटने के संबंध में प्रशिक्षित करता है।

एक कल्याणकारी चेहरा

हिमालय की ऊंचाईयों और कठोर तत्वों के बीच अपने परिवार से दूर अपने सेवा काल का एक बडा हिस्सा बिताना जवानों के लिए काफी दुष्कर है। बल जवानों की इस चिंता को समझता है और इस बात को सुनिश्चित करता है कि वे परेशानी मुक्त हों। पलटनों का कडे से लेकर हल्का चिकित्सकीय परीक्षण किया जाता है सेना के अस्पतालों की मदद से उन्हें अच्छी सुविधा मुहैया कराई जाती है। जवानों के परिवार निकटवर्ती आईटीबीपी युनिटों से चिकित्सीय सुविधा प्राप्त कर सकते हैं।

नागरिक कार्यक्रम

सीमा के लोगों को सुरक्षा की भावना प्रदान करने और वहां के लोगों का दिल और दिमाग जीतने के लिए आईटीबीपी के जवान दूरस्थ सीमा क्षेत्रों में सड़कों और पुलों के निर्माण / मरम्मत के साथ ही प्राकृतिक आपदा के समय उनकी मदद, चिकित्सा और पशु चिकित्सा के लिए शिविरों का आयोजन करते हैं। एक उदार बल के रुप में आईटीबीपी स्थानीय सीमा जनता के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखता है।

भारत-चीन सीमा पर दूरस्थ और दुर्गम गांवो के विकास और वहां ज़रुरी विकासात्मक गतिविधियों तथा बुनियादी चिकित्सा सुविधा प्रदान करने के लिए आईटीबीपी ने एक व्यापक कार्यक्रम शुरू किया है । श्रमदान और स्थानीय अधिकारियों की सहायता से आईटीबीपी विभिन्न क्षेत्रों जैसे सार्वजनिक स्वच्छता और सफाई, प्रौढ़ और बच्चो की शिक्षा, आवधिक चिकित्सा शिविरों के संचालन, पेयजल, विद्युतिकरण और बुनियादी तंत्र के निर्माण के लिए सक्रिय है।

आईटीबीपी ने लद्दाख में बहुत से ग्रामीण टेलिफोन एक्सचेंजों को खोला है और इसकी बहुत से ऊंचाई वाली चौकी उपग्रह टेलीफोन से जुडी है। आईटीबीपी के जवान और स्थानीय लोग नाममात्र की दर पर इस सुविधा का प्रयोग कर सकते हैं। लेह में पिछले वर्ष हुए भू-स्खलन और बादल फटने के दौरान आईटीबीपी के जवान प्रभावित इलाकों में राहत और पुनर्वास कार्य में सबसे पहले आगे आए थे। इन्होंने राहत शिविरों की स्थापना की और संकंट में घिरे लोगों को राहत देने के लिए चिकित्सा शिविर भी लगाया। आईटीबीपी के इन कार्यों के लिए बल को स्थानीय लोगों की सराहना प्राप्त हुई।

खेल

आईटीबीपी के जवानों ने विभिन्न खेलों में भी उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है। अंतर्राष्ट्रीय पर्वतारोहण में इसने अपनी मिसाल स्थापित की है। ऐवरेस्ट (5 बार ) और कंचनजंघा की चोटियों सहित इस बल ने 165 से भी अधिक विश्वस्तरीय चोटियों पर तिरंगा लहराया है। भारत का सर्वोच्च शिखर नंदा देवी, हिमालय में माउंट कामेत और ईरान और अमेरिका की पर्वत चोटियां भी इस सूची में शामिल है। इस बल के लिए वह बेहद गर्व का क्षण था जब 10 और 12 मई 1992 को एक महिला पुलिस अधिकारी समेत आठ पर्वतारोहिओं ने माउंट एवरेस्ट के ऊपर चढ़ाई कर इतिहास बनाया।

स्कीइंग इसकी विशिष्टता है। वर्षों से इस खेल में राष्ट्रीय चैंपियन रहे आईटीबीपी ने 1981 में कामेत की चोटी से नीचे की ओर सर्वप्रथम स्कीइंग दर्ज की। पूर्व में आईटीबीपी के स्की खिलाडियों ने मई 1997 में त्रूशूर (23360 फीट) और अप्रैल 1978 में केदार की चोटी (24410 फीट) से नीचे की ओर स्कीइंग की। स्कीइंग में राष्ट्रीय चैंपियन आईटीबीपी ने कई बार अपने इस खिताब को बचाया है और शीतकालीन ओलंपिक खेलों ओर एशियाई शीतकालीन खेलों में दो बार भारत का प्रतिनिधित्व किया है।

रिवर राफ्टिंग एक अन्य क्षेत्र है जहां आईटीबीपी के जवानों ने अपनी विशिष्ट पहचान अंकित की है। 1991 में अरुणाचल प्रदेश के जैलिंग से बांगलादेश की सीमा तक ब्रह्मपुत्र नदी की धाराओं में इसने 1100 कि.मी. लंबा सफर तय किया। पिछले 200 वर्षों में कोई अन्य इस उपलब्धि को हासिल करने का साहस नहीं कर पाया है। इसके जवानों को अंटार्कटिका के वैज्ञानिक अभियान का हिस्सा बनने की दुर्लभ विशिष्टता भी प्राप्त है। हर वर्ष आईटीबीपी अंटार्कटिका के वैज्ञानिक अभियान के हर सदस्य को प्रशिक्षण देता हैं।