जुलाई से सितंबर के बीच की तिमाही में देश के अर्थतंत्र ने 7.9 फीसदी की दर से विकास किया है, जो अनुमान से बहुत ज्यादा है। अनुमान तो 6.3 फीसदी की विकास दर का था। कुछ संशयवादी तो उस अनुमानित दर के विकास पर भी सवाल खड़े कर रहे थे, पर संशयवादियों के सारे संशय और अनुमान को भी गलत साबित करते हुए विकास दर 7.9 फीसदी के आंकड़े तक पहुंच गई। 1996 से तिमाही विकास का आंकड़ा तैयार करने की परंपरा शुरू की गई थी। यह भारतीय अर्थतंत्र की मजबूती का ही परिणाम है कि इस साल की विकास दर किसी दूसरी तिमाही में दर्ज की गई अब तक की सबसे बड़ी विकास दर है।

सवाल उठता है कि आखिर यह चमत्कार कैसे संभव हो पा रहा है? तो इसका जवाब यह है कि इसे चमत्कार मानना ही गलत है। दरअसल जब विकसित देशों का संकट शुरू हुआ था, उसी समय भारत तथा चीन से उम्मीद की गई थी कि संकट की घड़ी में ये न केवल खुद अविचलित रहेंगे, बल्कि अन्य देशों के संकट को भी हल करने में सहायक साबित होंगे। भारत दुनिया की उन उम्मीदों पर खरा उतरा है और उसका ही नतीजा है कि हम उम्मीद से बढ़कर प्रदर्शन कर रहे हैं।

भारत के शेयर बाजार की बनी तेजी इसका एक अन्य प्रमाण है। एक समय था, जब बम्बई शेयर बाजार के सूचकांक 8000 से भी नीचे चले गए थे। अब यह सूचकांक 17000 से भी ऊपर चला गया है। अन्य बाजारों की तरह यह गिहता भी है, लेकिन वह गिरने के बावजूद 16000 से नीचे नहीं जाता। जब दुबई संकट के प्रभाव में एशियाई बाजार धराशाई हो रहे थे, तग भी भारत के शेयर बाजार ज्यादा नहीं डिगे। एक दिन गिरने के बाद यह सभल गया और संभलने के बाद यह एक नई ऊंचाई छूने लगा।

दूसरी तिमाही में विकास का वह स्तर पाने में हमारी कामयाबी के पीछे उद्योग और सेवा सेक्टर में दर्ज किया गया विकास है। दोनों सेक्टरों में विकास 9 से 10 फीसदी के बीच में दर्ज किया गया है। कृषि के क्षेत्र में हम पिछड़े जरूर हैं, क्योंकि खराब मानसून का इस साल भारत शिकार हो गया। कृषि उत्पादन की वृद्धि दर एक फीसदी से भी कम रही। इस साल खेती की खराब उपज हमारे लिए समस्या बनी रहेगी।

आर्थिक संकट से पूरी दुनिया धीरे धीरे उबर रही है। इससे सबसे ज्यादा प्रभावित अमेरिका था। वहां भी इस संकट से राहत की सांस ली जा रही है। वैसी हालत में भारत को भी उसका लाभ मिलना स्वाभाविक है। भारत न सिर्फ अन्य देशों के उबरने का लाभ उठा रहा है, बल्कि यह अन्य देशों को उबरने में सहायता भी पहुंचाने का काम करता है। दुबई संकट इसका ताजा उदाहरण है। उस संकट के कारण खाड़ी के देशों के बाजार ही नहीं बल्कि अल्य एशियाई देशों के बाजार पर भी संकट के बादल मंडराने लगे थे। भारत के बाजार जल्द संभल गए और इसके संभलने का मनोवैज्ञानिक असर अन्य बाजारों पर भी पड़ा।

दुबई के साथ भारत का करीबी रिश्ता रहा है। अकेले दुबई रह रहे भारतीयों की आबादी वहां की कुल आबादी का 42 ़3 फीसदी है। सभी खाड़ी देशों में कुल भारतीय लोगों की संख्या 50 लाख से भी ज्यादा है। खाड़ी देशों में रह रहे भारतीय हर साल 27 अरब अमेरिकी डालर से भी ज्यादा धन कमाकर भारत भेजते हैं। जाहिर है, भारत की अर्थव्यवस्था दुबई अथवा किसी भी खाड़ी देश की विपरीत घटना पर काफी संवेदनशील होनी चाहिए, लेकिन दुबई संकट का कोई खास बुरा असर भारत के शेयर बाजारों पर नहीं पड़ना भारत की अंदरूनी ताकत को दिखाता है।

अमेरिका में दो साल पहले शुरू हुए आर्थिक संकट और दुबई से शुरू हुए संकट में काफी समानता है। दोनों का संकट मूल रूप से वित्तीय संकट था। दोनों के वित्तीय संकट के पीछे प्रापर्टी का बाजार था। सब प्राइम मोर्गेज की प्रतिभूतियों की शेयरों की तरह की जा रही खरीद बिक्री और उनमें बड़े बड़े बैंकों द्वारा किए गए भारी पैमाने पर निवेश के कारण वह संकट शुरू हुआ था। मकान के उन खरीदादारों को भी नई व्यवस्था के तहत कर्ज पर मकान दे दिए गए थे, जिनके पास कर्ज को वापस करने की क्षमता नहीं थी। उन अक्षम लोगों की बुनियाद पर ही अमेरिका की वित्तीय व्यवस्था ने हजारों करोड़ की वित्तीय संपत्ति खड़ी कर रखी थी। जब मकान के गरीब खरीददार डिफाल्ट करने लगे, तो उनके बुनियाद पर खडा वित्तीय तंत्र भी भड़भड़ाकर गिर गया औस उसने पूरी दुकनया की अर्थव्यवस्था को अपनी चपेट में ले लिया।

दुबई में भी प्रोपर्टी बाजार के कारण वित्तीय व्यवस्था का संकट शुरू हुआ। संयुक्त अरब अमीरात का एक अमीरात है दुबई। पेट्रों डालरों के कारण वहां के लोग मालोमाल हो गए। लेकिन अब तेल के कुएं सूखने वाले हैं। पेट्रो डालर के दिन लदने वाले हैं। जाहिर है, यदि उन्होंने तेल का विकल्प नहीं निकाला तो उनकी बदहाली के दिन आ जाएंगे। इसी को घ्यान में रखते हुए दुबई का विकास किया जा रहर है, ताकि आने वाले दिनों में यह पर्यअन का एक बड़ा केन्द्र बनकर संयुक्त अरब अमीरात को संपन्न बनाए रखे। इसके लिए सरकारी बैंक दुबई वल्र्ड ने भारी पैमाने पर कर्ज ले लिया, ताकि वह प्रोपर्टी निर्माण के लिए बिल्डरो को धन उपलब्ध करवाता रहे।

लेकिन बैंक ने अपनी क्षमता से ज्यादा का कर्ज ले लिया और कर्ज वापसी में अपनी असमर्थता का संकेत देना शुरू कर दिया। उसके बाद तो फिर अफरातफरी मच गई। पहले खाड़ी के बैंक और शेयर बाजार लड़खड़ाते दिखे और उसके बाद संकट अन्य जगह भी फेलता दिखाई पड़ा। दुनिया अभी अमेरिका के वित्तीय संकट से प्रारंभ हुए आर्थिक संकट से मुक्ति का उत्सव मनाने के मूड में दिखाई पड़ रही थी। ठीक उसी समय रंग में भंग करते हुए दुबई का यह संकट आ खडा हुआ।

भारत ने चालू वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में 7.9 फीसदी की विकास दर पाने का रिकार्ड तैयार किया है और उसके बाद तीसरी तिमाही में दुनिया ने दुबई का संकट देखा। सवाल उठना सहज है कि क्या भारत विकास की इस गति को बरकरार रख पाएगा? यह सवाल इसलिउ खास मायने रखता हैए क्योंकि भारत के हित दुबई व अन्य खाड़ी देशों से सीधे जुड़े हुए हैं। शुरुआती तौर पर तो भारत ने दुबई संकट के सामने अपनी मजबूती दिखा दी है। उम्मीद की जा सकती है कि यह मजबूती आगे भी बनी रहेगी। (संवाद)