यह सच है कि जिन सीटों पर चुनाव हुए, उनमें से कांग्रेस के पास किसी पर पहले कब्जा नहीं था। महाराष्ट्र की विधानसभा सीट पर सहयोगी एनसीपी का कब्जा थां। बिहार की विधानसभा सीट पर जद (यू) काबिज था और आंध्र प्रदेश की सीटें टीआरएस के पास थीं। एनसीपी पराजित हो गई और वहां की सीट भाजपा के खाते में चली गई। अन्य सीटों पर उन्हीं दलों के उम्मीदवारों की जीत हुई है, जिनके पास ये सीटें पहले से ही थीं। यानी कांग्रेस को सीटों की संख्या के लिहाज से कहीं कोई नुकसान नहीं हुआ।

प्द दो बातें यहां महत्वपूर्ण हैं। पहली बात यह है कि जिन 4 राज्यों में उपचुनाव हो रहे थे, उनमें से 3 में कांग्रेस की ही सरकार थी। इसलिए अपनी सरकारों वाले राज्यों में हार के गहरे मायने होते है। दूसरी बात यह है कि राजनीति में सिर्फ अपनी पुरानी सीटों को बचाना ही काफी नहीं माना जाता है, बल्कि सत्ता के संधर्ष में बने रहने के लिए नई सीटों पर भी जीत दर्ज करना जरूरी होता है। और इस काम में कांग्रेस विफल रही है।

कंग्रेस की सबसे ज्यादा दुर्गति हिसार लोकसभा क्षेत्र के उपचुनाव में हुई है। पूरे देश की नजर उस के नतीजों पर टिकी हुई थी, क्योंकि अन्ना हजारे ने वहां कांग्रेस को हराने की अपील जारी कर रखी थी और उनकी टीम के लोग कांग्रेस के खिलाफ प्रचार भी कर रहे थे। वहां पिछले चुनाव में भी कांग्रेस हारी थी और उसका उम्मीदवार तीसरे स्थान पर रहा था। इसलिए कांग्रेस उम्मीदवार की जीत की कोई खास उम्मीद भी नहीं थी। इसके अलावा कांग्रेस ने जो उम्मीदवार दिया था, उससे कांग्रेस के अंदर ही नाराजगी थी। पर चुनाव के नतीजे जो आए, वे निश्चय ही कांग्रेस के लिए घातक थे। वहां कांग्रेस का उम्मीदवार न केवल हारा था, बल्कि उसकी जमानत जब्त हो गई थी। जिस पार्टी की सरकार केन्द्र में हो और चुनाव वाले क्षेत्र के राज्य में भी उसी की सरकार हो, उसकी जमानत जब्त हो जाना कोई छोटी बात नहीं होती। वहां कांग्रेस के नेताओं ने अपना पूरा जोर लगा दिया था। मुख्यमंत्री हुड्डा की हरियाणा में अच्छी लोकप्रियता है। उन्होंने भी अपनी ताकत पूरी तरह कांग्रेस के उम्मीदवार के पक्ष में लगा रखी थी। उसके बावजूद कांग्रेस उम्मीदवार की जमानत भी नहीं बच सकी। यदि बेहतर उम्मीदवार दिया जाता, तो शायद कांग्रेस की वैसी दुर्गति नहीं होती।

आंध्र प्रदेश में भी कांग्रेस की पराजय हुई। यह सोचकर कांग्रेस उस नतीजे को हल्के ढंग से नहीं ले सकती कि उसने अपनी कोई सीट नहीं गंवाई। इसका कारण यह है कि यह राज्य कांग्रेस का गढ़ माना जाता है। 2009 के चुनाव में कांग्रेस को वहां से 33 सीटें मिली हैं। उसके कारण ही वह केन्द्र में आरामदायक स्थिति में है। वहां चल रहे तेलंगाना के आंदोलन ने कांग्रेस के सामने बहुत बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। अलग राज्य के मसले पर केन्द्र सरकार और कांग्रेस लगातार टालमटोल की नीति अपना रही है। इसके कारण उसे भारी नुकसान हो रहा है। आज स्थिति ऐसी है कि यदि लोकसभा का आमचुनाव हो तो कांग्रेस को 42 सीटों में से शायद 10 भी हासिल नहीं हो।

महाराष्ट्र की सीट एनसीपी के पास थी। वह उसके हाथ से निकल गई और वहां भाजपा की जीत हुई। यह सच है कि हार वहां शरद पवार की पार्टी की हुई, लेकिन उसे जिताने की जिम्मेदारी कांग्रेस की भी थी। जाहिर है राज्य में कांग्रेस की स्थिति का वह विधानसभा उपचुनाव बैरोमीटर है। यह कहकर कांग्रेस वहां की हार को खारिज नहीं कर सकती कि वह सीट उसकी नहीं, बल्कि एनसीपी की थी। एनसीपी यदि राज्य में कमजोर होती है और कांग्रेस मजबूत नहीं होती, तो फिर नुकसान किसका है?

बिहार में तो कांग्रेस कहीं है ही नहीं। वहां उसका उम्मीदवार मुकाबले मे ही कहीं नहीं था। बिहार विधानसभा मे करारी हार के बाद कांग्रेस ने तो वहां अपने आपको फिर से जिंदा करने का प्रयास ही छोड़ दिया है। वहां कांग्रेस की हार क्यों हुई, इसके बारे में पार्टी ने अबतक कोई गंभीर चर्चा तक नहीं की है।

हिसार चुनाव के नेतीजे को कांग्रेस के नेता वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने निराशाजनक कहा और कहा कि हार की समीक्षा की जाएगी। समीक्षा होनी भी चाहिए, पर दुर्भाग्य की बात है कि कांग्रेस ने अब अपनी हार की समीक्षा करना ही बंद कर दिया है। इन चुनावों के नतीजों को कांग्रेस को गंभीरता से लेना चाहिए। यदि उसने इसे हल्केपन से लिया, तो यह उसके लिए आत्मघाती साबित हो सकता है। (संवाद)