चुनावी हार ही नहीं, पार्टी के अंदर के कलह भी सतह पर आ रहे हैं। उत्तराधिकार की लड़ाई के कारण पार्टी की छवि को काफी नुकसान हुआ है। राजनाथ सिंह का कार्यकाप पूरा हो रहा है। आडवाणी को जबरन रिटायर होना पड़ रहा है। उन दोनों के उत्तराधिकार की लड़ाई अपने चरम पर है।

कर्नाटक में भाजपा के अंदर जो हुआ, वह तो उसके लिए पहला अनुभव था। यदुरप्पा की सरकार गिरते गिरते बची। सरकार को अपनी ही पार्टी के धनपशुओ सक खतरा पैदा हो गया था। वह तो कांग्रेस ने सरकार गिराने में दिलचस्पी नहीं ली, अन्यथा वहां भाजपा की यदुरप्पा सरकार कर गिलना तय था।

यदुरप्पा की सरकार तो बच गई, लेकिन उस पूरे छटनाक्रम ने भाजपा को हिलाकर रख दिया। पहली बार दक्षिण भारत के किसी राज्य में भाजपा की अपने दम सरकार बनी है और वह सरकार अपनी ही पार्टी के खान मालिको के कारण गिर रही थी। मुख्यमंत्री को अपमान की घूंट पीकर रह खान मालिक अपने मंत्रियो के सामने अपनी सरकार बचाने के लिए घुटने टेक देने पड़े।

अपनी हार और अंदरूनी लड़ाई से त्रस्त भाजपा को झारखंड के चुनाव से बहुत उम्मीदे हैं। पिछले विधानसभा आमचुनाव में पार्टी को सबसे ज्यादा सीटें मिली थीं। कुछ समय तो उसकी सरकार भी चली थी, लेकिन मधुकोड़ा और कुछ अन्य विधायको के सरकार से अलग हो जाने के कारण वह सरकार गिर गई थी।

मधुकोड़ा भाजपा सरकार के अपदस्थ होने के बाद राज्य के मुख्यमंत्री बने थे। चुनाव के दौरान ही मधुकोड़ा भ्रष्टाचार के मामले में फंस गए हैं। मधुकोड़ा की सरकार कांग्रेसए झारखंड मुक्ति मोर्चा और लालू के समर्थन से पल रही थी। लिहाजा यह प्रकरण भाजपा के लिए वरदान बनकर आया है।

भाजपा जनता दल (यू) के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहा है। जनता दल (यू) का यहां कोई आघार नहीं है और उसके उम्मीदवार भी कमजोर हैं। पिछली दफा भी जनता दल (यू) के उम्मीदवारों के भारी संख्या में हार जाने के कारण की वहां भाजपा की स्थायी सरकार नहीं बन पाई थी। 18 में सक मात्र 5 सीटें ही जनता दल (यू) जीत पाया था, जबकि भाजपा ने 63 में से 31 सीटों पर जीत हासिल थी। यदि जद(यू) की जीत का प्रतिशत भी भाजपा के बराबर होता तो भाजपा की सरकार वहा स्थायित्व हासिल कर लेती।

झारखंड के चुनाव में भाजपा का फिर से एक बार सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने को लेकर ज्यादा संशय नहीं है, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह बहुमत हासिल का पाएगी? शायद यह अपने बूते बहुमत नहीं हासिल कर पाए, लेकिन यदि अपने सहयोगी के साथ सरकार बनाने लायक सीटें जीत जाती है, तब यह भी इसके लिए बड़ी उपलब्धि होगी। बहुमत नहीं पाने की स्थिति में इसके पास एक विकल्प बाबू लाल मरांडी भी हो सकते हैं। श्री मरांडी भाजपा सरकार का वहां नेतृत्व कर चुके हैं। पार्टी के अंदर उपेक्षा के कारण वे भाजपा से अलग हैं। फिलहाल तो वे कांग्रेस के साथ मोर्चाबंदी करके चुनाव लड़ रहे हैं। लेकिन यदि मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला तो वे भाजपा में फिर से वापसी करने में परहेज नहीं करेंगे। (संवाद)