बर्कसन का भारतीय कला से पहली बार वास्ता तब पड़ा जब वह अमेरिका में विभिन्न माध्यमों में मूर्तिकला का अध्ययन और प्रयोग कर रही थीं। उसी दौरान वे भारत की यात्रा पर आईं। प्राचीन भारतीय मंदिर और गुफा कला के प्रति उनके आकर्षण ने उनको भारत में लगभग 40 वर्षों तक रुकने के लिए मजबूर कर दिया और इस दौरान उन्होंने प्राचीन ऐतिहासिक स्थलों का दौरा किया और उनकी सुंदर कला को अपने कैमरे में कैद कर लिया। बर्कसन प्राचीन भारतीय मंदिर और गुफा वास्तुकला की सच्ची प्रशंसक हैं। एलीफेंटा, एलौरा और औरंगाबाद जिले के अन्य स्थानों के बारे में बर्कसन द्वारा लिखी गई अनेक किताबों में उनके गहन अध्ययन, दस्तावेजीकरण और व्यापक शोध को अच्छी तरह शामिल किया गया है। बर्कसन ने भारत और इजरायल के जाने-माने कला संस्थानों, कला दीर्घाओं और संग्रहालयों में अपने छायाचित्रों का प्रदर्शन किया है। भारतीय मंदिरों के उनके चित्र देश-विदेश के प्रतिष्ठापूर्ण संस्थानों के संग्रहों का हिस्सा हैं।
कार्मेल बर्कसन ने संपूर्ण भारत के अनगिनत स्थलों का व्यापक भ्रमण किया और अपने शोध के लिए उनका फोटो लिया और आलेख तैयार किए। शुरू में उनका ध्यान उस अद्वितीय सौंदर्य को समझना था जो उनकी परिचित शैली संबंधी रूपांतरणों से पूरी-तरह अलग था। उन्होंने अपने दौरों, भारतीय सभ्यता के अध्ययन और शोधों को जारी रखते हुए भारत के धार्मिक और पौराणिक विषयों के शास्त्रीय प्रतिनिधित्व और अनुपातों की प्रणाली से संबंधित मूलपाठों का अध्ययन किया।
वर्ष 2001 में, कार्मेल बर्कसन ने अपने पहले शौक - कांस्य में ढलाई के लिए मिट्टी की मूर्तियों के निर्माण पर फिर ध्यान दिया। उनका नया कार्य भारतीय मूर्तियों के इतिहास के साथ उनके लंबे जुड़ाव से प्रेरित हैं। ये नए सृजन व्यापक तौर पर परंपरागत भारतीय मूर्तिकला पर आधारित हैं, लेकिन इनमें उनकी अपनी पिछली शैली पद्धति की झलक भी मिलती है। इनमें वार्तालाप करते हुए आकारों और स्वरूपों के जीवन और मूल अद्वितीय आधारभूत संरचनाओं, विन्यास और शाष्त्रीय पहचान को समकालीन स्वरूप में बनाये रखा गया है। कार्मेल बर्कसन लिखती है: ‘यद्यपि पूर्व और पश्चिम की शैलियों में काफी फर्क है, इसके बावजूद आधारभूत संरचनाएं और जीवन स्वरूप को प्रभावित करने वाले अनेक घटक सर्वव्यापक हैं। सामूहिक अवचेतना के स्तर पर अलग ऐतिहासिक कालों में काम करने वाले, विभिन्न संस्कृतियों के कलाकारों में वो मौलिक विशेषताएं साझा हैं जिनकी पहचान कला के प्रामाणिक कार्यों के रूप में की जा सकती हैं। अवचेतना के गहरे स्तरों पर, कलात्मक प्रतिक्रिया के स्रोतों की प्राय: तुलना की जा सकती है।’
वह भारत और इसकी मूर्त विरासत से काफी प्रभावित हैं जो उनके अपने शब्दों से झलकता है। ‘भारतीय स्मारकों को जब मैंने एक बार देखा, उसके बाद मैं पीछे नहीं लौट सकी। मेरे अपने कार्य के संबंध में, भारत के अनेक स्थलों को खोजने और उसके बाद उनके चित्रात्मक अध्ययनों ने मेरी समझ को गहराई प्रदान की कि यह तभी संभव है जब कोई समाज परंपरागत विकास के निर्वाह के उद्देश्य से संगठित है। पत्थरों में उकेरी गई यह कला एक ऐसे संगठित समाज में ही पूर्ण हो सकती है जहां राजसी और कारोबारी संरक्षक सामूहिक रूप से समर्पित वास्तुकारों, विद्वानों, पुजारियों और मूर्तिकारों को सहयोग एवं संरक्षण प्रदान करते हों और जहां हजारों कर्मियों के प्रयास एक साझे लक्ष्य के लिए संगठित रूप में लगे हों। सौंदर्य और वैभव के स्मारकों पर बना यह अद्भुत, सार्थक और समायोजित धार्मिक अभिव्यक्तियों का प्रतिबिंब है।
चालीस वर्ष पहले भारत आने के पूर्व अमेरिका में एक मूर्तिकार के रूप में मुझे पहले ही मूर्तिकला के क्षेत्रों और ग्रिड के अंतर्गत के काम करने वाली आंतरिक प्रक्रियाओं का आभास हो गया था, जिनके अंतर्गत शक्ति को एक केंद्र से संचालित किया गया था। लेकिन मुझे न तो विभिन्न सामंजस्यपूर्ण और कर्कश स्वरूपों के तनाव, दबाव, ऊर्जागत वार्तालापों की मात्रा का अनुमान हुआ, और न ही अनेक मध्यकालीन मंदिरों की दीवारों, अजंता, एलीफेंटा, एलौरा और महाबलिपुरम में बोलते जीवन स्वरूपों के मापदंड और जटिलता की बहुलता का।
मैंने सोचा उस जमाने में एक-दूसरे से अलग और एक बाजार अर्थव्यवस्था के अंतर्गत काम करने वाले व्यक्तिगत समकालीन मूर्तिकारों को आज के लिए प्रासंगिक मूर्तियां बनाने हेतु संपर्कों की बहाली से क्या फायदा मिल सकता है? मेरे लिए जवाब यह है कि चाहे हम जितने व्यक्तिगत हों, अकेले काम करने के कारण हम कितने ही सीमित हों, कोई फर्क नहीं पड़ता। प्राचीन मूर्तिकार के साथ जो साझा हो सकता है वह सौंदर्य और भारत की भावना से संबंधित है- जो जीवन स्वरूप की अखंडता से जुड़ा हुआ है।
भारतीय स्थलों के फोटो लेने के वर्षों के बाद जब मैंने फिर से मूर्तियां बनाना शुरू किया तो मैंने उन गुणों को ध्यान में रखा जिनकी चर्चा मैंने पहले की है, क्योंकि वे शक्ति के क्षेत्रों में काम करते हैं। कला निर्माण की प्रक्रिया में सचेत स्तर वास्तव में एक अधीनस्थ भूमिका का निर्वाह करता है; सर्वदा आकर्षक आंख विभिन्न तत्वों को एक सचल इकाई में व्यवस्थित करने का कार्य करती है।
जहां मेरी मूर्तिकला के मूलभूत आकार मेरे पिछले कार्य के लिए प्रासंगिक हैं, विन्यास और पौराणिक संदर्भ प्राचीन भारतीय शिल्पकारों पर आधारित हैं, या ये इन विन्यासों के संबंध में मेरी अपनी व्याख्याएं हैं। जब मैंने महसूस किया कि एलौरा की गुफा 15 में दोहरी आकृतियों ने विश्वकला के इतिहास में वाकई महत्वपूर्ण योगदान किया है, दो सचल आकृतियों में एक-दूसरे का संबंध मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गया। परिणामस्वरूप मेरी अधिकांश मूर्तियां इन पारस्परिक संबंधों द्वारा खड़ी की गई सौंदर्यबोध समस्याओं के प्रति समर्पित हैं।
कार्मेल बर्कसन ने अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज नई दिल्ली स्थित यूएसआईएस, (2011), जहांगीर आर्ट गैलरी, मुंबई (2010) और आर्ट हेरीटेज, नई दिल्ली (2005) में अपने कार्यों की चार प्रमुख प्रदर्शनियों का आयोजन किया और इजराइल (1996) में तीन संग्रहालयों में भारतीय मंदिरों के चित्रों की प्रदर्शनी भी लगाई। उन्होंने 1983 में वेंडी डोनिगर ओ फलेहर्टी और जॉर्ज मिशेल के साथ एलीफेंटा, द केव ऑफ शिवा, 1987 में द केव्स एट औरंगाबाद, अर्ली बुद्धिस्ट तांत्रिक आर्ट, 1982 में एलौरा, कंसेप्ट एंड स्टाइल, 1995, 1997, 2011 में द डिवाइन एंड डेमोनियाक महिशाज हिरोइक स्ट्रगल विथ दुर्गा, 2000 में द लाईफ ऑफ फॉर्म इन इंडियन स्कल्प्चर और वर्ष 2009 में इंडिया स्कल्प्चर, टूवार्ड्स द रीबर्थ ऑफ एस्थेटिक्स जैसी कई किताबें लिखीं।
भारत सरकार ने कला और कला साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करने के लिए उनको वर्ष 2010 में पद्मश्री से सम्मानित किया। एनजीएमए को कार्मेल बर्कसन द्वारा दी गई कृतियों को सात अक्तूबर 2011 को मुंबई में एक समारोह में संस्कृति मंत्री कुमारी सैलजा ने एनजीएमए और भारत सरकार की तरफ से व्यक्तिगत रूप से स्वीकार किया। ये कृतियां 6 नवंबर 2011 तक मुंबई में आम प्रदर्शनी के लिए उपलब्ध हैं और इसके बाद इनकी प्रदर्शनी एनजीएमए दिल्ली और एनजीएमए बैंगलूरू में लगाई जाएगी।
प्राचीन भारतीय वास्तुकला के क्षेत्र में कार्मेल बर्कसन का योगदान
आलोक देशवाल - 2011-10-31 12:17
विख्यात विदुषी और कलाकार कार्मेल बर्कसन ने एक स्थायी संग्रह के रूप में नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट (एनजीएमए) को हाल में अपनी 38 मूर्तियां दान की हैं। न्यूयॉर्क में 1924 में जन्मीं बर्कसन ने ड्यूक और कोलंबिया विश्वविद्यालय में इतिहास का अध्ययन किया लेकिन शीघ्र ही उन्होंने अपना ध्यान मिट्टी, लकड़ी, प्लास्टर और धातु की वेल्डेड शीट से मूर्तियों के निर्माण पर केंद्रित कर लिया। 1970 में उनका साबका भारत की गुफा और मंदिर प्रतिमाओं की पूर्ण रूप से विभिन्न सुन्दरता से उनके स्वदेशी संदर्भ में पड़ा। इस देश की मूर्तिकला परंपराओं से आकर्षित होने के बाद पद्मश्री कार्मेल बर्कसन ने पिछले 40 वर्षों के दौरान अपने अध्ययन के मुख्य विषय के रूप में भारतीय कला के सौन्दर्य और जीवन स्वरूप को बनाये रखा।