इसमें कोई शक नहीं कि अधिकांश पार्टियां और लगभग सभी राजनेता मजबूत और प्रभावी लोकपाल के निर्माण के खिलाफ हैं, लेकिन वे भ्रष्टाचार के खिलाफ छिड़े राष्ट्रीय आंदोलन के कारण सार्वजनिक रूप से इसके खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं कर सकते। यही कारण है कि वे खुद तो बाहर बाहर मजबूत लोकपाल की वकालत करते हैं, पर अंदर अंदर मजबूत लोकपाल के बनाने की मुहिम की हवा निकालने की साजिश भी कर रहे हैं। अब चूंकि केन्द्र मंे सरकार का नेतृत्व कांग्रेस कर रही है, इसलिए भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून बनाने की पहल उसे लेनी है। यही कारण है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आंदोलन के लिए दूसरी पार्टियों का रवैया उतना मायने नहीं रखता, जितना कांग्रेस का रवैया मायने रखता है। इसलिए भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आंदोलन को कांग्रेस की ओर मुखातिब करना ही होगा, भले इसमें किसी पार्टी विशेष के प्रति कोई पूर्वाग्रह अथवा दुराग्रह नहीं शामिल हो।
देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल भी कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के कारण ही बना है। अभी जो भ्रष्टाचार के मामले आ रहे हैं, उनमें से अधिकांश वे हैं, जो यूपीए ने अपने पहले कार्यकाल में किए। 2 जी घोटाला यूपीए के पहले कार्यकाल में ही हुआ था। राष्ट्रमंडल खेलों का घोटाला भी ज्यादातर इसके पहले की कार्यकाल में हुआ था। दूसरें कार्यकाल में जो भ्रष्टाचार हुए उसका आधार भी पहले कार्यकाल में तैयार हो गया था। कृष्णा गोदावरी बेसिन घोटाला भी यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल से ही चला आ रहा है। वह घोटाला संभवतः 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले से भी बड़ा हो। तेल उत्पादों और रसोई गैस की कीमतों को बढ़ाने में तेल की अंतरराष्ट्रीय बाजार में बढ़ी कीमत के अलावा केजी बेसिन घोटाला भी शामिल है। यानी देश में जो महंगाई बढ़ रही है, उसके लिए केजी बेसिन घोटार्ला इंधन का काम कर रहा है। वह घोटाला अब तक का शायद सबसे बढ़ा घोटाला साबित हो। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में ही सेज के नाम पर देश भर में बड़े बड़े भूमि घोटाले हुए। आज किसी को पता नहीं है कि सेज बनाने के नाम पर किसानों की ली गई जमीन पर कितने सेज बने।
यानी देश के सामने भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है, तो उसके लिए केन्द की यूपीए सरकार ही मुख्य रूप से जिम्मेदार है, और उस सरकार का नेतृत्व करने के कारण कांग्रेस की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा है, हालांकि भ्रष्ट लोग लगभग सभी पार्टियों में हैं। इसलिए जब भ्रष्टाचार के लिए मुख्य रूप से कांग्रेस जिम्मेदार है और वही केन्द्र सरकार का नेतृत्व कर रही है, तो कानून बनाने की जिम्मेदारी भी उसी की है। इसके कारण यदि कानून नहीं बन पाता है, तो इसके लिए कांग्रेस को ही दोष देना होगा। फिर कानून न बन पाने की स्थिति में जनता से कांग्रेस को मत न देने की अपील करना इस आंदोलन को सही दिशा देना ही होगा।
हिसार में कांग्रेस का विरोध करके अन्ना ने बिल्कुल सही कदम उठाया। कांग्रेस वहां पहले से ही कमजोर थी, लेकिन अन्ना द्वारा विरोध किए जाने के कांग्रेस की रही सही उम्मीद भी समाप्त हो गई। इसका सबसे बड़ा असर यह हुआ कि कांग्रेस उम्मीदवार की वहां जमानत जब्त हो गई। आंदोलन द्वारा कांग्रेस को यह अहसास कराना जरूरी था कि यदि उसने मजबूत कानून नहीं बनाया तो उसका क्या हश्र हो सकता है। यह अहसास कराने में टीम अन्ना वहां सफल रही। अन्ना ने यह घोषणा करके बिलकुल ठीक किया था कि मजबूत कानून नहीं बनने की हालत में अगले साल 5 राज्यों में हो रहे चुनावों में भी कांग्रेस का विरोध किया जाएगा। उनकी इस घोषणा से कांग्रेस के हौसले पस्त और आंदोलन के हौसले बुलंद हुए, पर पता नहीं किन परिस्थितियों मंे अन्ना ने ब्लाॅग लिख मारा कि जनलोकपाल कानून नहीं बनने के बावजूद भी वे किसी पार्टी विशेष ( कांग्रेस) का विरोध नहीं करेंगे। इससे कांग्रेस को राहत मिली होगी, लेकिन जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन से जुड़े हुए हैं, इससे निराश हुए होंगे, क्योंकि इस तरह की घोषणा से कांग्रेस मंे जनलोकपाल विरोधी खेमा और मजबूत होता है। संभवतः अन्ना के ब्लाॅग लेखक ने बिना अन्ना की सहमति लिए ही कांग्रेस विरोध न करने की बात लिख डाली।
कारण जो भी रहा हो, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन मूल रूप से एक राजनैतिक आंदोलन है, भले ही इसके नेतृत्व में राजनैतिक लोगों को शामिल नहंी किया गया हो। इसका कारण यह है कि भ्रष्टाचार एक प्रशासनिक व राजनैतिक समस्या है। इस आंदोलन को राजनीति से अलग करके नहीें देखा जा सकता। चुनाव राजनीति का वह अखाड़ा है, जिससे जनता सीघे रूप से जुड़ती है। उस अखाड़े में भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आंदोलन को न लाना विवेकसम्मत नहीं होगा। चुनाव लड़ने वाली सभी पार्टियों का उद्देश्य चुनाव जीतना होता है। चुनाव के समय ही वे जनता के सामने सिर झुकाती हैं। चुनाव में हार का खतरा उनके लिए सबसे बड़ा खतरा होता है। वे किसी भी जन आंदोलन के सामने तभी झुकती हैं, जब उन्हें लगता है कि नहीं झुकने से उन्हें चुनावी नुकसान होगा। एक समय था, जब राजनेता अपना नैतिक दायित्व का भी ख्याल रखते थे और अपने मंत्रालय की विफलता के कारण ख्ुाद अपने पद से इस्तीफा दे देते थे। लालबहादुर शास्त्री ने कभी एक रेल दुर्धटना होने पर रेल मंत्री के अपने पद से इस्तीफा दे दिया था, लेकिन आज तो मंत्री अपनी खुद की गलती के लिए अपने मातहत काम कर रहे लोगों को जिम्मेदार बताकर अपने पद पर बने रहते हैं। यदि किसी को वे दोष नहीं दे पाते, तो व्यवस्था पर दोष देकर उसी व्यवस्था में अपने पद पर बने रहते हैं और कहते हैं कि उन्हें जनता ने चुना है।
यही कारण है कि उन्हें जनता का डर दिखाना जरूरी है। अब यदि हिसार में अन्ना ने कांग्रेस उम्मीदवार का विरोध नहीं किया होता और वहां कांग्रेस उम्मीदवार जीत जाता, तो फिर यही कांग्रेस कहती कि अन्ना के आंदोलन अथवा भ्रष्टाचार विराधी माहौल को हिसार की जनता ने नकार दिया है। यही कांग्रेस कहती कि देश भर की जनता उनके साथ है और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन की बातें वैसे सिरफिरे लोग कर रहे हैं, जो जनता से कटे हुए हैं। इसलिए भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आंदोलन को चुनाव के दौरान भी प्रभावी हस्तक्षेप करना ही होगा। (संवाद)
अन्ना के कांग्रेस विरोध का निर्णय
आंदोलन को मिलेगी नई धार
उपेन्द्र प्रसाद - 2011-11-05 11:49
मौनव्रत तोड़ने के बाद अन्ना हजारे नो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात की वह थी जनलोकपाल कानून नहीं बन पाने की स्थिति में चुनावों में कांग्रेस के विरोध करने की घोषणा। इसके पहले उन्होंने अपने मौनव्रत के दौरान अपने ब्लॉग में लिखा था कि चुनावों के दौरान वे किसी पार्टी विशेष का विरोध नहीं करेंगे और लोगों से अच्छे उम्मीदवारों के समर्थन की अपील करेंगे। उनके उस ब्लॉग से उन लोगों को झटका लगा था, जो यह मान रहे हैं कि कांग्रेस मजबूत लोकपाल कानून के खिलाफ हर संभव काशिश कर रही है, जिनमें दिग्विजय सिंह के बेतुके बयान और टीम अन्ना के सदस्यों के खिलाफ चरित्र हनन का अभियान शामिल है। राहुल गांधी द्वारा अन्ना के गांव के सरपंच से न मिलने का फैसला लोकपाल कानून पर कांग्रेस नेतृत्व के रवयै को दिखाता है।