आयोग में सरदार पण्णिकर की राय को माना गया, लेकिन आयोग ने राज्य के विभाजन की अनुशंसा नहीं की, क्योंकि उसके ऊर राजनैतिक दबाव था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अपने प्रदेश का विभाजन नहीं चाहते थे। नेहरू और पंत दोनों अपनी राजनैतिक शक्ति उत्तर प्रदेश से ही प्राप्त करते थे। उस समय लोकसभा की 499 सीटों में 86 उत्तर प्रदेश से ही आती थी और राज्य सभा की 216 सीटों मंे से 31 उत्तर प्रदेश से थी। बताने की जरूरत नहीं कि संसद में जवाहर नेहरू की कांग्रेस के अंदर उत्तर प्रदेश के सदस्य भारी संख्या में हुआ करते थे।
अपनी खास पृष्ठ भूमि के कारण गोविंद बल्लभ पंत को जवाहरलाल नेहरू का दाहिना हाथ माना जाता था। जिस समय राज्यों का पुनर्गठन हुआ, उस समय वे केन्द्र सरकार में गृहमंत्री थे। दिलचस्प बात यह है कि वे खुद उस कुमाऊं से थे, जो अलग उत्तराखंड राज्य के लिए चल रहे आंदोलन का केन्द्र बना हुआ था। बाद में यह राज्य बन भी गया, लेकिन 1950 के दशक में गोविंद बल्लभ पंत के कारण ऐसा नहीं हो सका था। यहां गौरतलब बात यह भी है कि 1953 में जिस समय राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ था, उस समय श्री पंत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे।
जवाहरलाल नेहरू और गोविंद बल्लभ पंत द्वारा उत्तर प्रदेश को असंभव बना दिए जाने के 55 साल के बाद मायावती अब चाहती है कि राज्य 4 भागों में बांट दिया जाय। उनका यह प्रस्ताव भी राजनैतिक से प्रेरित है। उनका यह प्रस्ताव विधानसभा से भी पारित हो चुका है। मायावती का यह कदम हताशापूर्ण है और उन्हें यह कदम इसलिए उठाया है क्योंकि वह 2007 के विधानसभा चुनाव के नतीजों को फिर से इस बार नहीं दुहरा सकती। भारी भ्रष्टाचार और सरकारी रुपये के भारी दुरुपयोग के कारण उनकी छवि बहुत खराब हो चुकी है। उन्हें देश की भ्रष्टतम नेताओं में से एक माना जा रहा है और उनकी सरकार की छवि भी भ्रष्टमत सरकारों में एक की बनी हुई है। यही कारण है कि उनकी पार्टी के चुनावी नतीजों पर इस खराब छवि का प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता।
यह सवाल बार बार पूछा जा रहा है कि उन्होंने छोटे राज्यों का मुद्दा अपनी सरकार के पूर्ववत्र्ती कार्यकालांे और इस कार्यकाल के शुरुआती वर्षों मे क्यों नहीं उठाया? अब जब चुनाव सिर पर आ गया है तो उन्होंने अपनी चुनावी रणनीति के तहत इस मसले को उठाया है। लेकिन उन्हें विपक्षी पार्टी का समर्थन नहीं मिल रहा। मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी कह रही है कि वह विभाजन के किसी भी प्रयास का पूरी ताकत से विरोध करेगी। अस पर भाजपा अनिश्चय में है और कांग्रेस की स्थिति भी बहुत साफ नहीं है।
किसी भी राज्य का पुनर्गठन संसद में बने कानून से ही होता है और संसद ऐसा निकट भविष्य में करेगी, इसकी संभावना नही के बराबर है। मायावती को इस बात का पता है, पर उनका उद्देश्य छोटे राज्य का गठन नहीं है, बल्कि इसकी राजनीति कर चुनावी सफलता पाना है। वह इसमें सफल होगी, इस पर बहुत लोग सवाल खड़े कर रहे हैं। आज लोगों के लिए प्रदेश के 4 भागों में विभाजन उतना बड़ा मुद्दा नहीं है, जितना बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार है, जिसका सामना वे अपने दैनिक जीवन में करते हैं। जब मतदाता वोट करने जाएंगे तो कुशासन उनके सामने एक बडत्रा मुद्दा होगा। राज्य में लोगों की जिंदगी मंे सुधार नहीं हुआ है। मायावती दलितों की चैंपियन होने का दावा करती हैं, लेकिन उनकी दशा में भी कोई सुधार नहीं हुआ है।
मायावती की इस राजनीति का असर सिर्फ उनके राज्य तक सीमित नहीं रहने वाला है। इसका असर उत्तर प्रदेश के बाहर भी पड़ने वाला है। यदि मायावती के दबाव में केन्द्र सरकार आई तो देश के कई इलाकों में अलग राज्य की मांग के लिए आंदोलन तेज हो जाएंगे। तेलंगाना का आंदोलन और भी भयानक रूप ले सकता है। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी जैसी राष्ट्रीय पार्टियां देश के अलग अलग क्षेत्रों के लिए अलग अलग किस्म का निर्णय नहीं ले सकतीं। वे एक राज्य के विभाजन का समर्थन और दूसरे राज्य के विभाजन का विरोध नहीं कर सकतीं।
क्या हमारा देश एक दूसरा राज्य पुनर्गठन आयोग की जरूरत महसूस कर रहा है? क्या राज्यों का पुनर्गठन एक एक करके किया जाय? क्या एक क्षेत्र में राज्य की मांग को स्वीकार किया जाय और दूसरे राज्य की मांग को नजरअंदाज कर दिया जाय? सवाल उठता है कि यदि ऐसा किया गया, तो अन्य राज्यों पर इसका क्या असर पड़ेगा?
राज्यों के पुनर्गठन के लिए एक मिनी आयोग का गठन किया जा सकता है, जो उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और विदर्भ के मामलों को देखे। विदर्भ राज्य की सिफारिश तो 1956 में पहले आयोग ने भी की थी। यह मिनी आयोग अन्य राज्यों के विभाजन के मामलों की भी जांच कर सकती है।
कभी जयप्रकाश नारायण और कांशीराम जैसे नेता छोटे राज्यों की पैरवी किया करते थे, लेकिन तब से समय काफी बदल गया है। अब इन्फोर्मेशन टेक्नालाॅजी का युग है और संवाद प्रणाली बहुत ही तेज हो गई है। इसके कारण अब छोटे राज्यों का मामला कमजोर हो गया है, क्योंकि अब दूरी पहले की तरह मायने नहीं रखती। छोटे राज्यों का हमारा अनुभव भी ठीक नहीं है। इसके कारण राजनैतिक अस्थिरता को बढ़ावा मिलता है। झारखंड में हम यह देख रहे हैं। बड़े राज्यो में ज्यादा राजनैतिक स्थिरता होती है और प्रशासन भी चुस्त देखा जा सकता है और उसके विकास की संभावना भी तेज होती है। (संवाद)
उत्तर प्रदेश विशेष
हताशापूर्ण कदम है मायावती का निर्णय
केन्द्र को एक पुनर्गठन आयोग गठित करना चाहिए
हरिहर स्वरूप - 2011-11-21 12:52
पचपन साल पहले बने राज्य पुनर्गठन आयोग के ज्यादा सदस्य उत्तर प्रदेश को विभाजित करने के पक्ष में थे। तब उस समय केन्द्रीय गृहमंत्री गाविंद बल्लभ पंत ने कहा था कि उत्तर प्रदेश का विभाजन उनकी लाश पर होगा। उन्होंने यह भी कहा था कि कोई भी इस राम और रहीम की भूमि का विभाजन नहीं कर सकता। लेकिन पुनर्गठन आयोग के एक महत्वपूर्ण सदस्य के एम पण्णिकर साफ साफ शब्दों मंे अपनी राय लिखी थी कि विभाजन के लिए उत्तर प्रदेश का मामला सबसे ज्यादा उचित है। उसके बावजूद देश के सबसे अधिक आबादी वाले प्रदेश की सीमा को नहीं छुआ गया तो उसका कारण सिर्फ राजनैतिक ही था।