ममता बनजीं के साथ जिस किसी का भी राजनैतिक गठजोड़ हुआ है, उसका अनुभव अच्छा नहीं रहा है। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता भी इसका स्वाद चख चुके हैं। जो भी उनके साथ होता है, वह हमेशा तनाव में होता है। हमेशा खराब खबर आने की आशंका बनी रहती है।

ममता बनर्जी अपनी राजनीति अपनी २शर्तो पर करती हैं। वह गठबंधन करती है और उससे हटती है। उसके लिए समय भी वह खुद तय करती हैं और अबतक गठबंधन करने और उसे छोड़ने- दोनों हालातों में वही फायदे में रही है। इस नियम का सिर्फ एक अपवाद है और वह है 2001 का विधानसभा चुनाव। साफ है कि वे राजनीति की एक या दो ऐसी बातें जानती हैं, जिसके बारे में किसी अन्य को पता नहीं होता। उनके बेतुकेपन में भी कोई तुक होता है।

कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस पार्टी का गठबंधन हमेशा ही असहज स्थितियों से गुजरता रहा है। दोनों पार्टियों की नेता महिला हैं। दोनों तेज तर्रार हैं और दोना की अपनी पार्टी पर पूरी पकड़ है। दोनों नेता ही अपनी पार्टी के अंदर और बाहर के विराधियों से भली भांति निबटना जानती हैं।

यही कारण है कि सीपीएम के पास पश्चिम बंगाल में मात खाने के अलावा कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। परमाणु करार के मसले पर उन्होंने जैसे ही यूपीए का साथ छोड़ा, ममता और सोनिया एक साथ हो गईं। दोनों ने एकजुट होकर सीपीएम का कद बहुत छोटा कर दिया।

सीपीएम फिलहाल बंगाल की राजनीति में कोई भूमिका निभाती नहीं दिख रही है, इसलिए यह सब देखने की कोशिश कर रहे हैं कि आगे क्या होता है। ममता बनर्जी को पता है कि वह पश्चिम बंगाल की विधानसभा में अपनी पार्टी के बूते ही मुख्यमंत्री बने रहने में सक्षम हैं और केन्द्र की सरकार उनके समर्थन पर आश्रित है। वह यह भी देख रही है कि भयानक महगाई और भ्रष्टाचार के कारण लोग केन्द की यूपीए सरकार के खिलाफ हो रहे हैं।

लोकसभा की आगामी चुनाव 2014 के पहले भी हो सकते हैं। इस संभावना के मद्दे नजर तृणमूल कांग्रेस क्षेत्र में अपना विस्तार करना चाहती है और वह इस पर भी विचार करेगी कि वह अगला लोकसभा चुनाव कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ें या अकेले लड़े। पंचायत निकायों के चुनाव 2013 में होने वाले हैं, लेकिन उन्हें पहले भी कराए जा सकते हैं। तृणमूल कांग्रेस उस चुनाव को अपने बूते लड़कर लोकसभा चुनाव में अकेले लड़ने की गंुजायश तलाश सकती है।

और इसके लिए जरूरी है कि तृणमूल कांग्रेस सीपीएम और कांग्रेस दोनों के जनाधार मंे संेधमारी करे। सीपीएम के नेता अभी से कह रहे हैं कि राज्य के कुछ हिस्सों मे पंचायत चुनावों में उम्मीदवार खड़े करना उनके लिए मुश्किल हो सकता है। कांग्रेस का आधार उत्तर और केन्द्रीय इलाकों में अच्छा है, लेकिन दक्षिण के इलाकों में सीटों की संख्या सबसे ज्यादा है और उन इलाकों में कांग्रेस की स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं।

यदि कांग्रेस को पंचायत चुनाव में अकेले जाना पड़ा, तो वे अपने अस्तित्व के लिए लड़ती दिखाई देंगी। यह विचित्र लग सकता है, पर सच है कि कांग्रेस के पास ममता बनर्जी का सामना करने के लिए प्रदेश में कोई नेता ही नहीं है। उसके पास अब एक ही विकल्प है और वह यह है कि किसी तरह अपने समर्थन आधार को बनाए रखे और अपने जन संगठनों को बचाए रखे। और वैसा करने के लिए उसे आंदोलनों का सहारा लेना पड़ेगा। यही कारण है कि उसने अब आंदोलन का सहारा लेना शुरू कर दिया है। तृणमूल के समर्थकों के खिलाफ कांग्रेस कार्यकत्र्ताओं के सड़क पर उतरने का राज यही है।

कांगे्रस के आंदोलनों के खिलाफ ममता बनर्जी ने अपनी आदत के अनुसार आग उगले, लेकिन इस बार कांग्रेस की प्रतिक्रिया कुछ अलग किस्म की रही। पहले ममता के इस तरह आग उगलने पर कांग्रेस नेतृत्व की ओर से प्रदेश के कांग्रेस कार्यकत्र्ताओं और नेताओं को संयम बरतने के लिए कहा जाता था, पर इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। कांग्रेस कार्यकत्र्ताओं का विरोध प्रदर्शन जारी रहा।

प्रणब मुखर्जी से कड़े लहजे में ममता द्वारा की गई बात के बाद भी कांग्रेस पर कोई असर नहीं पड़ा। उल्टे केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने यह कह कर कांग्रेस के विरोध प्रदर्शनों को उचित ठहराया कि बंगाल में उनकी पार्टी ने वीआरएस नहीं ले लिया है। केन्द्र की सरकार पर ममता के दबाव में नहीं आ रही है और केन्द्र सरकार के पैकेज की उनकी मांग को भी बहुत तवज्जो देने के मूड में वह नहीं है।

ममता बनर्जी को सबसे करारा जवाब दिया कांग्रेस सांसद दीपा दास मुंशी ने। उन्होंने कहा कि वाम मोर्चा के पास 61 लोकसभा सांसद थे। उनके समर्थन वापस होने के बाद भी 2008 में जब मनमोहन सिंह की सरकार नहीं गिरी थी, तो फिर 19 लोकसभा सांसदों वाली तृणमूल कांग्रेस के समर्थन वापस लेने से भला वह सरकार कैसे गिर सकती है। (संवाद)