इस विस्तार के बाद कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने अपनी निराशा जाहिर करते हुए कहा कि इसमें उनके राज्य मध्यप्रदेश को कुछ भी नहीं मिला। सबसे ज्यादा फायदे में आंध्र प्रदेश रहा, जहां के 11 सांसद मंत्रिपरिषद में शामिल हैं। इसके बावजूद आंध्र प्रदेश में बगावत हो रही है। महाराष्ट्र में भी असंतोष है, क्योंकि सात बार सांसद रहे विलास मुतेमवार और गुरुदास कामत मंत्रिमंडल में शामिल होनक की उम्मीद संजोए बैठे थे। बिहार से किसी को भी मंत्री नहीं बनाया गया और झारखंड का भी अब मंत्रिमंडल में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। उत्तर प्रदेश में सलमान खुर्शीद को बड़ी जिम्मेदारी दे गई है। इसे लेकर वहां के कांग्रेसियों में भी असंतोष है, क्योंकि उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के ऐसा आरोप लग रहे थे, जिनका उनके पास कोई उत्तर नहीं है। कोयला घोटाले में बदनाम हो रहे कोयला मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल के भी कैबिनेट में बने रहने पर सवाल किए जा रहे हैं, जबकि इसी घोटाले में शामिल झारखंड के सुबोधकांत सहाय को सरकार से हटा दिया गया है। सबसे ज्यादा विवाद जयपाल रेड्डी को तेल मंत्रालय से हटाने पर हुआ। प्रधानमंत्री पर आरोप लग रहा है कि उन्होंने रिलायंस के इशारे पर श्री रेड्डी को तेल मंत्रालय से हटाया है।

मंत्रिपरिषद के विस्तार के बाद और भी कई गड़बडि़यां हुईं। एक गड़बड़ी तो जितीन प्रसाद और जितेन्द्र सिंह के नाम के कारण हुई। कटारिया और जितेन्द्र सिंह दोनों राजस्थान से हैं और दोनों को रक्षा विभाग में राज्य मंत्री का पद दे दिया गया। बाद में सुधार किया गया। कहा गया कि ऐसा क्लर्क की गलती से हो गया था। आरपीएन सिंह और जितिन प्रयाद को लेकर भी भ्रम की स्थिति कुछ समय तक बनी रही।

सरकार में फेरबदल के बाद अब कांग्रेस संगठन में भी बदलाव की चर्चा है। राहुल गांधी का संगठन में दूसरा स्थान देने की बात हो रही है। वैस तो वे पहले से ही पार्टी के अंदर दूसरे सबसे ज्यादा ताकतवर नेता हैं, भले ही वे किसी भी पद पर हों, लेकिन अब औपचारिक रूप से उन्हें यह स्थान प्राप्त हो जाएगा। प्रधानमंत्री राहुल को अपने मंत्रिमंडल में शामिल करना चाहते थे, पर राहुल इसके लिए तैयार नहीं हुए। जाहिर है, वे मंत्रियों के बीच में महज एक मंत्री के रूप में नहीं रहना चाहते। यदि यह सच है कि तो वे महासचिवों के बीच एक महासचिव के रूप में नहीं रहना चाहेंगे।

पिछले 9 सालों से राहुल गांधी का प्रयोग सफल नहीं रहा है। बिहार में उन्होंने अपने पूरी ताकत झोंक दी थी, लेकिन वहां कांग्रेस ऐसी दुर्गति हुई, जैसी कभी वहां हुई ही नहीं थी। पार्टी को मात्र 4 विधानसभा सीटों पर ही जीत हासिल हुई। उत्तर प्रदेश में भी बिहार दुहरा दिया गया। वहां तो राहुल गांधी ने उस चुनाव को अपनी प्रतिष्टा से जोड़ दिया था और तीन साल से उसकी तैयारी हो रही थी। पर कांग्रेस की वहां भी भद्द पिट गई। 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने वहां जो जमीन हासिल की थी, उसे भी गंवा दिया। कांग्रेस फिर वहां चैथे नंबर की पार्टी बन गई है और रायबरेली व अमेठी तक में कांग्रेस की स्थिति काफी खराब हो गई है। राबरेली में में पांचों विधानसभा सीटों पर कांग्रेस की हार हुई और अमेठी में 5 में से 3 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस की हार हो गई।

राहुल गांधी कांग्रेस के युवा और छात्र विंग को मजबूत करने में लगे हुए थे। लाखों लोगों को उन्होंने उसमें शामिल करने में सफलता पाई थी। पर उसका पार्टी को कहीं भी फायदा होता दिखाई नहीं पड़ रहा है। राहुल गांधी ने महाराष्ट्र में अपनी पसंद के अशोक चैहान को मुख्यमंत्री के पद पर बैठाया था। भ्रष्टाचार के आरोप के बाद उन्हें अपने पद से हटना पड़ा। कश्मीर में अमर अब्दुल्ला को भी मुख्यमंत्री बनाने मंे उन्होंने भूमिका निभाई थी। उनको लेकर भी विवाद होते रहे हैं।

औपचारिक रूप से दूसरा सबसे शक्तिशाली पद पाने के बाद राहुल गांधी की जिम्मेदारी कांग्रेस को ऊर्जावान बनाने की होगी। अभी संगठन का हाल बेहाल है। पंजाब में अध्यक्ष का पद खाली है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद अमरींदर सिंह ने इस्तीफा दे रखा है। बिहार में भी प्रदेश अध्यक्ष ने पिछले दो सालों से इस्तीफा दे रखा है, पर उनके पद पर किसी और को अभी तक बैठाया नहीं जा सका है। हरियाणा कांग्रेस भी नये अध्यक्ष के इंतजार में है। जाहिर है, संगठन के मोर्चे पर भी कांग्रेस को बहुत कुछ करना है। (संवाद)