भाजपा की पृष्ठभूमि से नब्बे के दशक में गांधी मैदान तथा रामलीला मैदान दोनों जगह हिन्दू सम्मेलन के आयोजन ने भी भारतीय राजनीति में एक बड़े परिवर्तन को बल दिया। 1998 के चुनाव में भी दोनों मैदानों की भाजपा की रैलियों ने जादू दिखाया। उस वर्ष कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा रामलीला मैदान के अपने भाषण में ‘वाजपेयी जी आप झूठ बोलते हैं’ कहने से जो बावेला मचा उसने भाजपा की दिल्ली विजय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। तो क्या एक ही दिन समय के थोड़े अंतराल पर गांधी मैदान में सत्तारूढ़ जनता दल (यू) और रामलीला मैदान में कांग्रेस की रैलियां भी इतिहास की पुनरावृत्ति का कारण बन सकतीं हैं?
रामलीला मैदान व गांधी मैदान दोनों का संबंध परिवर्तनों से रहा है, लेकिन ज्यादातर समय विरोध की बागडोर विपक्ष के हाथों में रही। इन दोनों मैदानों के इतिहास में ऐसे अवसर कम आए हैं जब सत्तारुढ़ दलों ने यह आरोप लगाकर कि उनके साथ अन्याय हो रहा है और इसके प्रतिकार के नाम पर इनमें रैलियां आयोजित कीं। इस दृष्टि से 4 नवंबर की रैलियां आम परंपरा से परे थी। दिल्ली में कांग्रेस यह चीत्कार कर रही थी कि वे तो देश का विकास करना चाहते हैं, उनके आर्थिक सुधार के कदम देशहित में हैं लेकिन विपक्षी दल एवं गैर दलीय विपक्ष केवल विरोध के द्वारा उन्हें काम नहीं करने दे रहा और अंततः देश के विकास में बाधा डाल रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया से लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, राहुल गांधी सहित उसके सारे मुख्यमंत्री यह कह रहे थे कि सरकार तो भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए प्रतिबद्ध है, लोकपाल कानून बनाना चाहती है, किंतु विपक्ष ऐसा नहीं होने दे रहा, हम तो संसद में बहस चाहते हैं, पर विपक्ष संसद चलने नहीं दे रहा......। यानी विपक्ष ने सरकार को नाकों में दम कर दिया है जिससे हमारे लिए काम करना मुश्किल है। हालांकि तीनों प्रमुख नेता यह कहते रहे कि वे विपक्ष के सामने घुटने टेकने की बजाय काम करते रहकर विपक्ष को करारा जवाब देेंगे, किंतु मूल स्वर यही था कि विपक्ष के कारण सरकार के लिए काम करना कठिन हो गया है और वे जनता के दरबार में न्याय के लिए आए हैं। कांग्रेस के नेता, कार्यकर्ता, समर्थक व आम जनता विपक्ष को सबक सिखाए। यकीनन ऐसा दृश्य ऐतिहासिक रामलीला मैदान में इसके पहले कभी नहीं देखा गया। एक सरकार की ऐसी गिड़गिड़ाहट का यह मैदान पहली बार गवाह बना।
अब जरा पटना के गांधी मैदान का परिदृश्य देखिए। वहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सहित जनता दल (यू) के सारे नेता यही राग अलापते रहे कि वे बिहार का भला करना चाहते हैं और जितनी कुव्वत उनकी है कर भी रहे हैं। एक समय जंगल राज का पर्याय बने बिहार मंें उन्होंने यहां के लोगों की मदद से कानून व्यवस्था का राज स्थापित किया तथा जितना कुछ उनके पास है उन सारे संसाधनों को झांेककर विकास की गाड़ी को पटरी पर ला दिया है, किंतु लंबे समय से पिछड़ गए बिहार के लिए यह नाकाफी है। क्यों और किया क्या जाए? इसके उत्तर में नीतीश कुमार कहते हैं कि केन्द्र में कांग्रेस सरकारों ने बिहार के साथ लगातार नाइंसाफी की है, हमे कभी हमारा वाजिब हक नहीं दिया गया। हम आज भी जितनी सहायता चाहते हैं केन्द्र नहीं देता है। इससे हम जितना और जिस तरह चाहते हैं विकास नहीं कर पाते। इसका उनकी और समूचे जनता दल की नजर में एक ही उपाय है, केन्द्र बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दे ताकि संवैधानिक रुप से वह राज्य को विशेष पैकेज देते रहने के लिए मजबूर हो जाए और फिर हम बिहार का समुचित विकास कर सकें। दल के अध्यक्ष शरद यादव ने गांधी मैदान में कहा कि तीन राज्यों का बंटवारा एक साथ हुआ उनमें उत्तराखंड अलग होने के बावजूद उत्तर प्रदेश का कुछ नहीं बिगड़ा, मध्यप्रदेश का भी छत्तीसगढ़ के अलग हो जाने से कुछ नहीं बिगड़ा लेकिन बिहार का झारखंड अलग हो जाने से काफी कुछ बिगड़ गया। खनिज दोहन और औद्योगिक विकास की सारी योजनाएं जो सम्पूर्ण एकीकृत बिहार को ध्यान में रखकर बनाईं गईं थीं वे झारखंड में चलीं गईं। मुख्यमंत्री के अनुसार उन्होंने हर अवसर पर प्रधानमंत्री के सामने अपनी मांग रखी, पर उन पर ध्यान नहीं दिया गया, इसलिए मजबूर होकर उन्होंने दबाव की नीति अपनाई है और गांधी मैदान का जन सैलाब हम दिल्ली के रामलीला मैदान में भी एकत्रित करेंगे।
तो बिहार के मुख्यमंत्री के नेतृत्व में विरोध और दबाव का अगला पड़ाव भी रामलीला मैदान होगा। यानी बिहार सरकार केन्द्र सरकार के विरुद्ध राजनीतिक विरोध आंदोलन की राह पर है। हम यहां इन दोनों सरकारों के तर्कों में ज्यादा न जाएं, विशेष राज्य दिए जाने का संवैधानिक आधार और स्थापित परंपराएं क्या हैं इनमें भी यहां चर्चा करना आवश्यक नहींे, लेकिन कम से कम बिहार की सरकार अपने से ऊपर की केन्द्र सरकार के खिलाफ अगर गांधी मैदान में उतरी है और रामलीला मैदान तक कूच करने जा रही है तो इसे एकदम अस्वाभाविक या असहज नहीं कहा जा सकता है। हालांकि इस परंपरा से भारत के राजनीतिक ढांचे को लेकर भय भी पैदा होता है। किंतु केन्द्र सरकार! एक राजनीतिक दल के नाते कांग्रेस को पार्टी के तौर पर एवं सरकार के नेतृत्वकर्ता के रूप में समर्थकों, कार्यकर्ताओं को एकत्रित कर शक्ति प्रदर्शित करने तथा उनके सहित आम नागरिकों के बीच अपना पक्ष रखने के लिए रैलियां करने का पूरा अधिकार है। लेकिन उस पूरे आयोजन में पार्टी एवं सरकार बिना नाम लिए विपक्ष यानी भाजपा तथा गैरदलीय विपक्ष यानी अरविन्द केजरीवाल, अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव सहित अन्य विरोधियों से न्याय दिलाने की गुहार कर रही थी। यह कांग्रेस की नजर में चाहे जितनी उपयुक्त रणनीति हो, पर रामलीला मैदान इसके पूर्व कभी सरकार की विपक्ष के विरुद्ध ऐसी करुण स्थिति का गवाह नहीं बना था। मजे की बात देखिए कि एक ओर विपक्ष के दबाव की चर्चा और दूसरी ओर उसका करारा जवाब देने का ऐलान व आह्वान भी सोनिया गांधी के भाषण मंें था। हम यहां इसके औचित्य-अनौचित्य में न जाएं, किंतु इतना तो स्वीकार करना होगा कि रामलीला मैदान से विपक्ष के विरुद्ध संघर्ष कर उसके दबाव से मुक्त होने का आह्वान भी किसी सरकार द्वारा नहीं किया गया था।
बहरहाल, पृष्ठभूमि एवं प्रसंग अलग-अलग होते हुए भी रामलीला मैदान एवं गांधी मैदान में विरोध रैलियां करने के संदर्भ में केन्द्र सरकार तथा बिहार सरकार दोनों एक धरातल पर हैं। यह भारतीय राजनीति का नया चेहरा है जिसका परंपरागत विरोध और पक्ष के दायरे में अर्थ और भविष्य की दिशा का अनुमान लगाने में धुरंधर राजनीतिक विश्लेषकों और समाजशास्त्रियों को भी कठिनाई होगी। सरकारें रैलियां करें, स्वयं को अन्याय का शिकार बताए, विपक्ष को अन्यायी बताकर उसके विरोध में रैलियां करें कुछ वर्ष पूर्व तक इसकी कल्पना कौन कर सकता था! जब कल्पना ही नही ंतो फिर राजनीति की मान्य पुस्तकों मेें इसकी चर्चा कैसे संभव थी! लेकिन यह हमारी मौजूदा राजनीति का ऐसा अजीबोगरीब सच है जिसके पैदा करने में शासन और शासन से बाहर रहने वाले सभी प्रमुख दलों और नेताओं की भूमिका है। शायद समय का चक्र ऐसी जगह पहुंच रहा है जहां अभी बहुत कुछ गड्डमड्ड होने वाला है और उसमें से हमें अनेक ऐसी जीवित तस्वीरें सहज भाव से देखने और उसे राजनीतिक की स्वाभाविक परिणतियां मानने को विवश होना पड़े जो कुछ वर्ष पूर्व हमें अचंभित करते। (संवाद)
राजनीति की अकल्पनीय भावी तस्वीरें
गांधी मैदान और रामलीला मैदान की रैलियों की गूंज
अवधेश कुमार - 2012-11-11 09:54
बिहार की राजधानी पटना का गांधी मैदान और देश की राजधानी दिल्ली का रामलीला मैदान स्वातंत्र्योत्तर भारत की अनेक महत्वपूर्ण राजनैतिक रैलियों और उनके प्रभावों का गवाह रहा है। जयप्रकाश नारायण ने 1974 के आंदोलन की बागडोर यदि गांधी मैदान की सभा से संभाली तो इसे राष्ट्रव्यापी स्वरूप रामलीला मैदान की रैली से दिया। जनता पार्टी की विजय के बाद भी दोनों मैदानों में रैलियां हुईं। राजीव गांधी सरकार से इस्तीफा देकर विद्रोह का बिगुल फूंकने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह की गांधी मैदान की रैली तथा उसके बाद रामलीला मैदान की सभा का संबंध भी सत्ता परिवर्तन से जुड़ा।