श्री वैद्य आरएसएस की कोई छोटी मोटी सख्सियत नहीं हैं, बल्कि वह इसके प्रवक्ता का पद संभाल चुके हैं। संघ की पत्रिका तरुण भारत के वे संपादक भी रह चुके हैं। जो व्यक्ति आरएसएस में उतने महत्वपूर्ण पद पर रह चुका हो और जिसे संघ के 5 बड़े नेताओं में से एक माना जाता हो, वह सीधे ऐसा बयान दे दे, जिससे भाजपा का चुनावी में नुकसान हो सकता है, तो मानना पड़ेगा कि कुछ आरएसएस नेताओं की हताशा किस हद तक बढ़ गई है। इससे यह भी पता चलता है कि नरेन्द्र मोदी को आरएसएस के अंदर से कितने विरोध का सामना करना पड़ रहा है।

संघ और भाजपा द्वारा वैद्य के बयान का उनका निजी बयान मानना और उनके द्वारा नरेन्द्र मोदी पर लगाए गए आरोप को गलत बता दिए जाने के बाद फिलहाल शांति छाई हुई है, पर इसे तूफान के पहले की शांति माननी चाहिए, क्योंकि अभी गुजरात में चुनाव हो रहे हैं और उसके नतीजों का इंतजार किया गा जा रहा है। यदि इस चुनाव में भाजपा की जीत होती है और यह जीत पिछले चुनाव से भी बड़ी होती है, तो फिर नरेन्द्र मोदी के पार्टी में हो रहे उभार को रोकना आरएसएस के लिए भी आसान नहीं होगा। यही कारण है कि एमजी वैद्य ने जानबूझकर ऐसा ब्लाॅग लिखा है, ताकि गडकरी से सहानुभूति रखने वाले कार्यकत्र्ता भाजपा को वहां हराने का काम करें, भले ही वहां सत्ता पार्टी के हाथ से निकल जाए।

वैसे पिछले चुनाव में भी संघ ने पूरी तरह से वहां भाजपा का समर्थन नहीं किया था। विश्व हिंदू परिषद के महासचिव प्रवीण तोगडि़या ने पार्टी को हराने की कोशिश की थी। गौरतलब है कि वे गुजरात से ही हैं। संघ के एक तबके और तोगडि़या के विरोध के बाद भी नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में वहां पार्टी को जीत हासिल हुई थी। सच कहा जाय, तो उसी चुनाव में नरेन्द्र मोदी पार्टी के सअसे बड़े नेता के रूप में उभर रहे थे और लगने लगा था कि चुनाव के बाद मोदी 2009 लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री का दावा ठोंक देंगे, क्योंकि उस समय तक अटल बिहारी वाजपेयी स्वास्थ्या कारणों से राजनीति परिद्श्य से बाहर हो चुके थे और जिन्ना की प्रशंसा में पाकिस्तान में बयानबाजी करने के कारण लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी में दरकिनार कर दिया गया था। पर गुजरात चुनाव के नतीजे के पहले ही आरएसएस ने राजनैतिक अकेलेपन का सामना कर रहे लालकृष्ण आडवाणी को केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया और उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा के उम्मीदवार के रूप में घोषित करवा दिया।

पांच साल बाद फिर गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद मोदी के प्रधानमंत्री पद के प्रबल उम्मीदवार के रूप में उभरने की संभावाना प्रबल हो गई है। पिछली बार तो उन्हें भाजपा के आधा दर्जन नेताओं में से एक बता दिया गया था, लेकिन अ बवह स्थिति नहीं रही। राजनाथ सिंह जैसे अपने आधा दर्जन प्रतिद्वंद्वियों को नरेन्द्र मोदी काफी पीछे छोड़ चुके हैं और अब आडवाणी उनकी बराबरी की कोशिश कर रहे हैं। आरएसएस चाहे तो एक बा फिर लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित कर पिछला इतिहास दुहराने की कोशिश कर सकता है, लेकिन श्री आडवाणी भी उनकी पसंद के नेता नहीं हैं। अटल सरकार में उपप्रधानमंत्री के रूप में श्री आडवाणी ने आरएसएस को बहुत तवज्जो नहीं दिया था। इसका मलाल संघ के नेताओं को है और चे चाहते हैं कि भाजपा के सरकार बनने की स्थिति में सत्ता उनके हाथ में उसी तरह आ जाए, जिस तरह आज सत्ता सोनिया गांधी के हाथ में प्रधानमंत्री नहीं होने के बाद भी है। यदि लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री हुए तो वे किसी के इशारे पर नाचने वाले नेता हो ही नहीं सकते। नरेन्द्र मोदी को संघ द्वारा नापसंद किए जाने के पीछे का एक कारण भी यही है कि सरकार चलाने में वे संघ का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करते।

यही कारण है कि संघ नितिन गडकरी को अध्यक्ष का दूसरा कार्यकाल देना चाहता था। इसके लिए भाजपा तैयार भी हो गई थी। पार्टी में संशोधन भी कर लिया गया था, पर पूर्ति घोटाले ने नितिन गडकरी की मिटटी पलीद कर दी है। यदि राजनैतिक स्तर पर पार्टी के फायदे के बारे में सोचा जाता तो अबतक गडकरी का इस्तीफा हो जाना चाहिए था, पर संघ ने अपना पूरा समर्थन उन्हें दे रखा है और भाजपा के राजनैतिक नुकसान की कीमत पर भी उन्हें इस पद से हटने नहीं दिया जा रहा है। इतना ही नहीं, यह भी नहीं बताया जा रहा है कि उन्हें अध्यक्ष के रूप में दूसरा कार्यकाल मिलेगा या नहीं।

यानी हठी रवैया अपनाकर संघ ने भारी टकराव की स्थिति तैयार कर दी है। जैसे ही गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए मतदान का अंतिम बटन दबेगा, यह टकराव सामने आ जाएगा। इसका कारण यह है कि नरेन्द्र मोदी भी अब शायद आत्मसमर्पण करने के मूड में नहीं दिखाई देते। इस साल की शुरुआत में जब संजय जोशी को पार्टी में लेकर उत्तर प्रदेश का प्रभारी बना दिया गया था, तो नरेन्द्र मोदी ने अपना विरोध दर्ज कराने के लिए 4 विधानसभाओं के चुनावों में प्रचार करने से ही मना कर दिया था। उन्हें राष्ट्रीय कार्यकारिणी की एक बैठक का भी बहिष्कार किया था। जब दूसरी बैठक हो रही थी, तो उन्होंनंे कार्यकारिणी से इस्तीफे की धमकी ही दे डाली थी। अंत में संघ को झुकना पड़ा था और संजय जोशी की विदाई कर दी गई।

गुजरात में जीत के बाद मोदी भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति में सीधा हस्तक्षेप कर सकते हैं। अभी तो उनके पक्ष में बोलने वाले नेताओं की जमात भी खड़ी होने लगी है। श्री वैद्य के आरोप के बाद जब भाजपा के आधिकारिक प्रवक्ता उस पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया था तो बिहार भाजपा के अध्यक्ष सीपी ठाकुर मोदी के बचाव में आ खड़े हुए थे। उनकी जीत के साथ ही उनके पक्ष में बोलने वाले लोगो की संख्या भी बढ़ सकती है और फिर उनके दावे को खारिज करना अथवा अपनी मर्जी से भाजपा का अध्यक्ष चुनना संघ के लिए कठिन भी हो सकता है। खुद संघ में भी मोदी के समर्थक हैं। वेंकैया नायडू ने वैद्य के ब्लाॅग के बाद जो प्रतिक्रिया दी, वह भी यही संकेत देते हैं कि आने वाले दिनों में टकराव और भी तेज होंगे। (संवाद)