शुक्रवार, 26 जनवरी, 2007
संविधान की धज्जियां उड़ाती सरकारें और मंत्रालय
मकड़जाल में फंसी है स्व-सरकार की परिकल्पना
ज्ञान पाठक
भारत की जनता को अपनी बात सीधे तौर पर रखने, अपने लिए योजनाएं बनाने और उन्हें लागू करने का अधिकार भारत की आजादी के समय भी नहीं मिला था, और दिसम्बर 1992 में उन्हें यह अधिकार दो संविधान संशोधनों के बाद मिला भी तो अब तक इनकी मूल भावनाओं को तो छोड़ दें, शब्दों में लिखे प्रावधानों की भी धज्जियां उड़ायी जाती रही हैं। बदनीयती इतनी कि जो कानून हैं ही नहीं, उन्हें संघ सरकार के मंत्रालय और राज्यों की सरकारें लागू कर रही हैं, और जो कानून हैं उन्हें नजरअंदाज किया जा रहा है। जनता के साथ यह छल होता आ रहा है, उन्हें कभी अपने पैरों पर खड़ा होने नहीं दिया गया। जनता की ओर से मुट्ठी भर लोग योजनाएं बनाते हैं और पूरे भारतवर्ष की जनता पर उन्हें थोप देते हैं। जनता कराहती है और उन्हें सांत्वना दिया जाता है कि बस चंद दिनों में वे उनके दुख दूर कर देंगे। लेकिन जनता को अपना दुःख खुद दूर करने की कोशिश करने का अवसर अब तक नहीं दिया जा रहा।
अभी हाल में पंचायती राज मंत्रालय द्वारा संसद में पेश समीक्षा दस्तावेज पर सरसरी नजर डालने से ही इन सभी बातों का खुलासा हो जाता है। लेकिन सुखद आश्चर्य यह कि हर तरह से निःसहाय जनता, अपने खिलाफ तमाम मोर्चों के बावजूद अब उठ खड़ी हुई है, हालांकि पंगु कर दिये जाने के कारण अभी वे काफी मुश्किल से चल पा रही हैं। जनता के हाथों अपना भविष्य संवारने का अधिकार देने वाली ताकतें भी सक्रिय हैं, और ऐसी जनसमर्थक ताकतों के दुश्मन भी।
भारत के संविधान को पढ़ा तो सभी शासकों ने है पर उसे आत्मसात स्वयं नहीं किया और अपनी अधकचरी समझ को जनता पर थोपा। उदाहरण के लिए, भारत एक गणराज्य है, जिसकी मूल भावना की भी धज्जियां उड़ायी जाती रही हैं। जब संविधान बना तो जनता को स्वसरकार बनाने और चलाने का अधिकार ही नहीं दिया गया, और इस बात को नीति निर्देशक सिद्धांतों में रख दिया गया। संघ सरकार द्वारा राज्यों की सरकारों के साथ किये जाते रहे बुरे व्यवहारों का एक अपना ही इतिहास है। अब जब से स्थानीय स्वसरकारों की स्थापना के लिए संविधान संशोधन कर दिये गये तब से राज्य सरकारें भी स्थानीय स्वसरकारों के साथ बड़ा बुरा बर्ताव करती रही हैं। गणराज्य की बात सत्ता के उच्च स्तरों पर ही आत्मसात नहीं की गयी है।
अब सीधे आइये 1993 में जब भारत में ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों के लोगों को उनकी स्वसरकार देने के लिए संविधान का 73वां और 74वां संशोधन लागू कर दिया गया, जो भारत के संविधान का क्रमशः भाग 9 और भाग 9 ए है। इनके शीर्षक हैं, पंचायत, और नगरपालिकाएं। प्रावधान किया गया कि इनके लागू होने के दिन से एक वर्ष बीतने के साथ ही वे सारे कानून समाप्त हो जायेंगे जो संविधान के इस भाग के अनुरुप नहीं हैं। आदिवासी क्षेत्रों को भी 1996 में पेसा लागू कर इन्हीं प्रावधानों के तहत लाया गया।
लेकिन अब तक क्या किया गया ? गिनाने के लिए 32 लाख निर्वाचित जन प्रतिनिधि हो गये हैं, जिनमें 12 लाख औरतें हैं, अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ी जाति के प्रतिनिधि हैं। पंचायत और वार्ड स्तरों पर औसतन 70 परिवारों या 340 लोगों में एक प्रतिनिधि। बड़ी मुश्किल से यहां तक पहुंची है हमारी जनता, लेकिन उनको काम करने लायक ही नहीं बनने दिया गया है, जिसके लिए केन्द्र के मंत्रालय और राज्य की सरकारें ही दोषी हैं, जो उनके कामों में हस्तक्षेप भी करते हैं और जिस धन, जन, और कार्य सौंपे जाने के वे हकदार हैं वे उन्हें आज तक नहीं मिल पाये हैं।
तृणमूल स्तर पर योजनाएं बनाने और उन्हें कार्यान्वित करने के मामले में जिला योजना समितियां स्वसरकार के सर्वोच्च संस्थान हैं, जिन्हें ग्राम और वार्ड स्तर से बनकर आने वाली ग्रामीण और शहरी योजनाओं को दुरुस्त कर एक जिला योजना को अंतिम रुप देने का संवैधानिक दायित्व सौंपा गया है। लेकिन ये समतियां देश के सिर्फ 13 राज्यों और चार संघ शासित राज्यों में ही गठित हो पायी हैं। मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, जम्मू और कश्मीर, मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्र, दार्जिलिंग गोरखा हिल काऊंसिल इलाकों, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, और छठी अनुसूची क्षेत्रों को वैसे भी जिला योजना समितियों के गठन नहीं करने की छूट दी गयी है, और इस समीक्षा दस्तावेज बनने तक आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, बिहार, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र, पंजाब, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश, और उत्तरांचल राज्यों में, तथा संघ शासित क्षेत्रों – चंडीगढ़ और पुडुचेरी में समितियों का गठन नहीं हो सका था।
जहां समितियां नहीं बनी हैं वहां तो सीधे राज्य या संघ शासित क्षेत्रों की सरकारों या केन्द्र में सत्तारुढ़ सरकार अपनी राजनीति करती हैं। जनता की ओर से वे ही उनके भाग्य विधाता हैं। लेकिन जहां ये समितियां गठित भी की गयी हैं वहां योजनाओं को बनाने और कार्यान्वित करने में राज्यों और संघ सरकार लगातार हस्तक्षेप कर रही हैं, और अपनी राजनीति कर रही है।
उदाहरण के लिए, केन्द्र से किसी भी मद में स्थानीय सरकारों को भेजी जाने वाली राशि उन्हें महीनों बाद मिलती है। सिर्फ कर्नाटक ही एक ऐसा राज्य है जहां बैंकों के खातों में राज्य सरकार सीधे धन जमा करा देती है और इस तरह वहां दो महीनों की अवधि घटकर 12 दिन हो पायी है। देश में 2,40,000 पंचायत हैं, जिसे इतनी बड़ी संख्या मान लिया गया था कि अब तक उनके खातों में धन समय पर पहुंचाना मुश्किल समझा गया। पंचायती राज मंत्रालय, जो मई 2004 में आकर गठित हुआ, ने अब जाकर इसपर ध्यान देने का वायदा किया है।
स्वयं पंचायती राज मंत्रालय के इस दस्तावेज का कहना है कि केन्द्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं को संविधान के अनुरुप बनाये जाने की आवश्यकता है। यह इसलिए कि इन्हीं कार्यक्रमों के माध्यम से सबसे ज्यादा धन राज्यों को दिया जाता है, और ज्यादातर जिन मदों के लिए दिया जाता है, जैसे प्राथमिक शिक्षा, जन स्वास्थ्य, पेय जल, स्वच्छता आदि, वे संविधान के अनुसार स्थानीय स्वसरकारों के क्षेत्राधिकार में आते हैं। केन्द्र सरकार के मंत्रालय और विभाग इस पंचायती राज व्यवस्था के संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियां उड़ाते हुए पंचायती राज संस्थानों के समानांतर संविधानेतर संगठनों, यूजर एसोसिएशनों, एजंसियों और एन जी ओ आदि के माध्यम से काम करवा रहे हैं।
केन्द्रीय प्रायोजित योजनाओं के अलावा, केन्द्र की अनेक अन्य योजनाओं के मामले में भी यही हाल है। सिर्फ कुछ योजनाओं में ही कुछ प्रगति है, जिसे मामूली ही कहा जा सकता है। संविधान की मूल भावना का अनादर तो उनमें भी हो रहा है।
स्थानीय स्वसरकारों को संविधान में जो 29 विभाग या कार्यक्षेत्र सौंप दिये गये हैं, वे वास्तविकता में अब तक पूरी तरह नहीं सौंपे गये हैं। कायदे से पंचायती राज लागू होने के एक साल के भीतर यह काम पूरा हो जाना चाहिए था और सभी अन्य कानून जो संविधान के इन प्रावधानों के अनुकूल नहीं हैं वे संविधान के अनुसार समाप्त हो गये हैं, लेकिन वास्तविकता में इन्हीं संविधानेतर कानूनों को लागू किया जा रहा है। पंचायती राज के इस दस्तावेज में यह बात साफ लिखी गयी है। उसने पांच ऐसे कानूनों को उदाहरण स्वरुप भी पेश किया है और उनपर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता बतायी है। ये कानून हैं, भूमि अधिग्रहण, खान और खनिज (विकास और नियमन), वन, वन संरक्षण, और निबंधन के अधिनियम।
स्थानीय स्वसरकारों को समुचित ढंग से काम करने देने के लिए कर्मचारियों और अधिकारियों की भी उन्हें आवश्यकता है, परंतु पर्याप्त संख्या में और पर्याप्त कुशलता के अधिकारी और कर्मचारी उन्हें हस्तांतरित नहीं किये जा सके हैं।
कुल मिलाकर स्थानीय स्वसराकार की परिकल्पना सत्ता और सरकार के मकड़जाल में फंसी हुई है। #
ज्ञान पाठक के अभिलेखागार से
संविधान की धज्जियां ...
System Administrator - 2007-10-20 05:35
भारत की जनता को अपनी बात सीधे तौर पर रखने, अपने लिए योजनाएं बनाने और उन्हें लागू करने का अधिकार भारत की आजादी के समय भी नहीं मिला था, और दिसम्बर 1992 में उन्हें यह अधिकार दो संविधान संशोधनों के बाद मिला भी तो अब तक इनकी मूल भावनाओं को तो छोड़ दें, शब्दों में लिखे प्रावधानों की भी धज्जियां उड़ायी जाती रही हैं।