यह सच है कि के चन्द्रशेखर राव द्वारा तेलंगाना की मांग को लेकर किए जा रहे अनशन के कारण आंध्र प्रदेश में मामला विस्फोटक हो चला था और छात्र आंदोलन तेजी पकड़ रहा था। यह भी सच है कि अनशन के कारण राव की जान को भी खतरा पैदा हो गया था और केन्द्र सरकार को उनकी जान की परवाह करनी चाहिए थी। लेकिन दबाव में आकर सीधे तेलंगना राज्य के गठन की मांग को स्वीकार कर उसके गठन के लिए कार्यवाही शुरू कर देने की निर्णय उचित नहीं था।
अलग राज्य के गठन के लिए आंध्र प्रदेश में ही सर्वदलीय बैठक बुलाने जैसी घोषणा होनी चाहिए थी। चूंकि किसी राज्य का विभाजन कर किसी नए राजय का गठन करना पूरी तरह केन्द्र सरकार के वश का मामला है भी नहीं और इसके लिए संबंधित विधानसभा द्वारा दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित होना होता है, इसलिए केन्द्र सरकार के वश का यह मामला है भी नहीं। यदि संबंधित विधानसभा प्रस्ताव नहीं पारित करे तों केन्द्र सरकार चाह कर भी राज्य का विभाजन नहीं कर सकती। इसलिए केन्द्र सरकार को इस मामले को राज्य सरकार और विधानसभा के पाले में ही डालना चाहिए था।
जो भी हो, केन्द्र सरकार ने गलती की और उसका परिणाम सामने है। खुद आंध्र प्रदेश में तो तेलंगाना के गठनके खिलाफ तूफान खड़ा ही है, देश भर में राज्यों के गठन के लिए मांगे उठने लगी है। आबादी के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य में तों खुद मुख्यमंत्री ने उत्तर प्रदेश के विभाजन के लिए केन्द्र से इसकी प्रक्रिया शुरू कर देने की मांग कर दी है। आबादी के लिहाज से दूसरे सबसे बड़े राज्य महाराष्ट्र में विदर्भ राज्य की आवाज सुनाई देने लगी है। आंध्र प्रदेश के लगभग बराबर आबादी वाले पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड की मांग फिर से जोर पकड़ रही है। बिहार का एक बार पहले ही विभाजन हो चुका है, लेकिन मिथिलांचल नाम के एक अन्य राज्य की मांग वहां भी होने लगी है। बिहार में ही भोजप्रदेश या भोजपुर राज्य की मांग भी कुछ लोग करते रहे हैं। अब उनके मुखर होने का समय भी आ गया हैं। गुजरात में सौराष्ट्र राज्य की मांग भी पुरानी है।
बडे़ राज्य ही नहीं, पूर्वोत्तर के छोटे छोटे राज्यों में भी और छोटे राज्यो की मांग उठ रही है। यानी केन्द्र ने एक तेलंगाना राजय की मांग पर क्या सहमति दे दी, पूरे देश में दर्जन भर से भी ज्यादा राज्यो के गठन के लिए आंदोलन की आहट सुनी जा सकती है। अब केन्द्र सरकार के नुमाइंदे कह रहे हैं कि अलग राज्य की मांगो को तेलंगाना के गठन से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। सवाल उठता हे कि क्यो नहीं जोड़ा जाना चाहिए? जब केन्द्र सरकार राज्य के गठन की घोषणा आंघ्र प्रदेश में की राजनैतिक प्रक्रिया को दरकिनार कर कर सकती है, तो अन्य जगहो के आंदोलनकारी भी उससे उसी तरह की अपने मामलों में भी उम्मीद रखेंगे। तेलंगाना कर मांग को स्वीकार कर उसके निर्माण की प्रक्रिया शुरू करने की घोषणा करने के पहले केन्द्र सरकार को इस पर विचार करना चाहिए था।
कुछ पार्टियां और उनके कुछ नेता छोटे राज्यो का समर्थन करते हैं। भाजपा एक ऐसी पार्टी है, जो सिद्धांतः छोटे राज्यो के गठन का समर्थन करती है। जब केन्द्र में उसके नेतृत्व वाली राजग सरकार थी, तो उसने तीन हिन्दी राज्यों को बांटकर तीन नए राज्यों का गठन कर भी दिया था। हालांकि उसे किसी गैर हिन्दी राज्यो के विभाजन की हिम्मत नहीं हुई थी। उसने उत्तर प्रदेश को तोड़कर उत्तरांचल का गठन कर दिया। बिहार को तोड़कर झारखंड का गठन कर डाला। मध्य प्रदेश के विभाजन से छत्तीसगढ़ अस्तित्व में आ गया। तीनों राज्यो की राजनैतिक परिस्थितियां भी ऐसी थीं कि तीन राज्यो का गठन संभव हो गया। बिहार में लालू यादव ने कभी कहा था कि झारखंड का गठन उनका लाश पर होगा। लेकिन उस समय बिहार में उनकी पत्नी की अल्पमत सरकार थी, जिसे झारखंड मुक्ति मोर्चा का समर्थन सिर्फ इसलिए ही मिल रहा था क्योंकि उन्होंने झारखंड के गठन की सहमति दे दी थी। झारखंड के इलाके में भाजपा को ज्यादा सीटें आई थीं। इसलिए उसके बिहार से अलग हो जाने की सूरत में लालू की पार्टी की सरकार को बाकी बचे बिहार में स्थिति अच्छी हो रही थी। लालू यादव अपनी राजनीति के लिए पिछड़े वर्गों को छोड़कर सिर्फ अपनी जाति पर निर्भर होते जा रहे थे और झारखंड के इलाके में उनकी अपनी जाति के लोगों की संख्या कम है। इसलिए उन्हें लगा कि उनकी भावी राजनीति के लिए बिहार का विभाजन हो जाना ही ठीक है।
अब एक बार फिर लालू भाजपा के सुर में सुर मिलाकर छोटे राज्यों के गठन की पैरवी कर रहे हैं। नीतीश कुमार भी छोटे राज्यो की पैरवी में उतर आए हैं। नीतीश का तो कहना है कि राज्य छोटे हाने से विकास तेज हो जाता है। लेकिन क्या यह सही है। यदि गठन के बाद हम उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ के विकास के आंकड़े को देखें तो पाते हैं कि इन तीनों राज्यों में विकास की दर राष्ट्रीय औसत से कम रही है। उत्तराखंड की स्थिति तो अन्य राज्यों से बेहतर रही है, लेकिन राष्ट्रीय औसत से वह भी कम है।
विकास ही नहीं छोटे राज्यों के कारण राजतैतिक स्थिरता भी प्रभावित होती है। झारखंड इसका उदाहरण है। राजनैतिक अस्थिरता के कारण राज्य के संसाधनों की किस तरह लूट हुई, हम वह देख रहे है। छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड में यदि झारखंड वाला अस्थिर राजनैतिक परिदृश्य नहीे दिखाई दिया तो इसका एकमात्र कारण यही था कि वहां की राजनीति में दो ही दल मायने रखते हैं। इसलिए दो में किसी एक को सत्ता में आना ही आना है। यदि वहां भी किसी तीसरे दल का वजूद होता तो स्थिति झारखंड वाली ही होती। जिन नउ राज्यों की मांग हो रही है, यदि वहां जरत दौड़ाएं तो पाते हैं कि उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ वाला द्विदलीयता की स्थिति वहां नहीं है। यानी उन राज्यों में झारखंड की राजनैतिक स्थिति पैदा होने के खतरे हैं। जाहिर है, छोटे राज्यों के लिए यह एक बहुत ही बड़ा खतरा है, जो अंततः लोगों के हितों के खिलाफ जाता है। (संवाद)
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छोटे राज्यों के बड़े खतरे
हमें झारखंड से सीख लेनी चाहिए
उपेन्द्र प्रसाद - 2009-12-12 10:05
तेलंगना राज्य के गठन की मांग को केन्द्र सरकार द्वारा मान लिए जाने के बाद पूरे देश भर में राज्यों के विभाजन की उठ रही मांग अप्रत्याशित नहीं है। यह मांग निश्चय ही हमारे देश के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। लेकिन उससे भी ज्यादा चिंता का विषय केन्द्र द्वारा तेलंगाना की मांग को मान लेने में दिखाई गई जल्दबाजी है।