एक उम्मीद यह जगी थी कि शायद शहर के एक इलाके में पिछले 28 सालों से जो जहरीले रसायन के कचड़े पड़े हुए थे, वे अब साफ होंगे और उस जहर के शहर को छुटकारा मिल जाएगा। उम्मीद यह भी जगी थी कि शहर को जिन लोगों ने गैस के धुएं से तबाह कर दिया, उन्हें सजा भी मिल सकेगी। एक उम्मीद यह भी थी कि बीएमएचआरसी के केन्द्र सरकार द्वारा अधिग्रहण के बाद इसके काम काज के तरीके में सुधार होगा। इन सबके साथ यह भी उम्मीद जगी थी कि भोपाल गैस के पीडि़तों को और भी ज्यादा मुआवजा मिल पाएगा।

लोकिन ये सारी उम्म्दें जहां की तहां रह गईं। रासायनिक कचड़ा अभी भी वहीं है, जहां वह पिछले 28 साल से पड़ा हुआ है। भोपाल गैस त्रासदी के दोषी लोगों को भी बहुत मामूली सजा ही मिल पाई और उस सजा को भी क्रियान्वित नहीं किया जा सका। बीएमएचआरएस से डाॅक्टरों का पलायन जारी है और ज्यादा मुआवजा देने संबंधी मुकदमे अभी भी सुप्रीम कोर्ट मंे पड़े हुए हैं और फैसले का इंतजार कर रहे हैं।

ग्रीनपीस व कुछ अन्य देशी व विदेशी संगठनों द्वारा घटनास्थल के आसपास के मुहल्लों की मिट्टी, भूजल, कूपजल और सब्जियों के नमूनों की जांच की गई और पाया गया कि उन सबमें भारी पैमाने पर जहरीली रसायनों की मिलावट है। मिट्टी में पारा अपनी निर्धारित सुरक्षित सीमा से 6 हजार गुणा ज्यादा है। इलाके 100 ट्यूबवेल के पानी को पहले ही पीने से मना कर दिया गया है।

मिट्टी, जमीन, पानी और सब्जियों के जहरीले होने का एक ही स्रोत है। वह स्रोत और कोई अन्य नहीं, बल्कि यूनियन कार्बाइड कंपनी के परिसर में जमा वह कचड़ा है, जिसे अभी तक हटाया नहीं गया है। वह कचड़ा जमीन के अंदर पानी से साथ जा रहा है और आसपास के माहौल को भी जहरीला बना रहा है। 350 मेट्रिक टन जहरीला कचरा वहां अभी भी पड़ा हुआ है। उसे हटाने के अनेक प्रयास पिछले 27 सालों से हुए, लेकिन सभी प्रयास विफल रहे।

इस साल जून में यह घोषणा की गई कि जर्मनी की एक कंपनी 25 करोड़ रुपये लेकर उस कचड़े को वहां से हटाने के लिए तैयार हो गई है। पर अगले तीन महीने में उस उम्मीद पर भी तुषारापात हो गया। जर्मनी की उस कंपनी ने अपने प्रस्ताव को वापस ले लिया और ’’अनिश्चितता’’ का बहाना बना डाला।

उम्मीद उस समय भी नाउम्मीदी में बदल गई, जब त्रासदी के गुनाहगारों को सजा सुनाई गई। 15 साल के मुकदमे के बाद यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन इंडिया लिमिटेड के चेयरमैन केशब महीन्द्रा को उसके लिए दोषी करार दिया गया और इसके लिए उन्हें मात्र दो साल की सजा सुनाई गई। सजा सुनाए जाने के बाद कुछ घंटे में ही उन्हें जमानत भी मिल गई। यह 2010 के जून की घटना है।

लेकिन एक बार फिर उम्मीद जगी, जब सुप्रीम कोर्ट ने 1996 के अपने एक फैसले पर फिर से विचार करने की अर्जी स्वीकार कर ली। 1996 के उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने त्रासदी के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ चल रहे मुकदमों को बहुत ही हल्का कर दिया था। उन पर जिन धाराओं के तहत मुकदमा चल रहा था, उनमें दोषी साबित होने पर सिर्फ 2 साल तक ही सजा का प्रावधान है। लेकिन 11 मई, 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने उस पटीशन को खारिज कर दिया।

दुनिया के सबसे बड़े रासायनिक हादसे के सबसे बड़े दोषी यूनियन कार्बाइड कार्पोेरेशन के चेयरमैन वारेन एंडरसेन ने ता इस मामले में किसी प्रकार के मुकदमे का सामना ही नहीं किया और वह अपने देश अमेरिका में आराम से अपना रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है। (संवाद)