यदि उन्हें लगता है कि विदेशी किराना देश के किसानों, खुदरा दुकानदारों और लघु उद्यमियों के हितों के खिलाफ है, तो फिर इसके खिलाफ मतदान देने में भाजपा कहां बाधा बनती है? यदि उन्होंने अपने भाषण के अनुरूप मतदान किया होता, तो केन्द्र की सरकार नहीं गिरती। इसका प्रभाव सिर्फ यही होता कि केन्द्र सरकार पर विदेशी किराना को देश में इजाजत देने के अपने निर्णय को वापस लेने का एक बहुत बड़ा नैतिक दबाव पड़ता, क्योंकि केन्द्र सरकार जिस संसद के प्रति अपने कामकाज के लिए जवाबदेह है, वह संसद लोकसभा की इच्छा के खिलाफ कोई निर्णय लेने से खुद ही परहेज रखती। और यदि इसके बावजूद वह अपने निर्णय पर कायम रहती तो माना जाता कि उसे संसद में आस्था ही नहीं है।

जाहिर है भाजपा का नाम लेकर मायावती और मुलायम सिंह ने ऐसे काम किए हैं, जिन्हें वे उचित ठहरा ही नहीं सकते। मुलायम की पार्टी की उत्तर प्रदेश में सरकार है और वह सरकार कह रही है कि वह अपने प्रदेश में खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को इजाजत नहीं देगी। यदि वह अपने प्रदेश में इजाजत नहीं दे सकती, तो फिर देश के अन्य हिस्सों में इस तरह के निवेश को रोकने का क्या उसका कोई कर्तव्य नहीं बनता है? मायावती और मुलायम सिंह ही नहीं, बल्कि लालू यादव का भी इस मसले पर पर्दाफाश हो गया है। वे विदेशी निवेश का समर्थन करते हैं और कहते हैं कि यदि उन कंपनियों से देश को नुकसान हुआ, तो उनके स्टोर में आग लगा दी जाएगी। लोकसभा में इस तरह का भाषण देने अपने आपमें गलत है। आग लगाकर किसी कंपनी को बंद करने का इरादा रखने से तो बेहतर यही है कि उसे खुलने नहीं नहीं दिया जाय।

लालू, मुलायम और मायावती से भी ज्यादा हास्यास्पद निर्णय राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) का है। उसके नेताओं ने विदेशी किराना के समर्थन में लोकसभा में भाषण भी दिए और मतदान भी किया। पर वे कहते हैं कि महाराष्ट्र में हम विदेशी किराना की दुकानें नहीं खोलने देंगे। वहां कांग्रेस के साथ उनकी सरकार है और उनकी पार्टी ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर अवगत करा दिया है कि प्रदेश में विदेशी किराना को इजाजत नहीं दी जाय। यदि विदेशी किराना महाराष्ट्र के किसानों, खुदरा व्यापारियों और लघु उद्यमियों के लिए खतरनाक है, तो देश के अन्य हिस्सों के लिए वह कैसे फायदे मंद है? इस सवाल का कोई जवाब एनसीपी के नेताओं के पास नहीं है।

करुणानिधि की पार्टी ने तो विदेशी किराना के खिलाफ हुए भारत बंद में हिस्सा भी लिया था, लेकिन जब लोकसभा में मतदान की बारी आई, तो उन्होंने इसके पक्ष में वोट डाल दिया। उनका कहना था कि वे इस मसले पर सरकार को गिराना नहीं चाहते। पर यदि इस मसले पर सरकार हार भी जाती तो वह नहीं गिरती, क्योंकि प्रस्ताव सरकार के गिराने का नहीं था, बल्कि सरकार द्वारा विदेशी किराना में निवेश के निर्णय को वापस लेने का था।

लोकसभा में विदेशी किराना के मसले पर हुए मतदान के जो नतीजे आए हैं, वे अप्रत्याशित भी नहीं हैं। ऐसा पहले से ही माना जा रहा था कि सीबीआई का इस्तेमाल करके केन्द्र सरकार अपने पक्ष में मतदान के नतीजों को मोड़ लेगी, भले ही लोकसभा का बहुमत इसके खिलाफ है। मतदान के नतीजों से भी यही पता चलता है कि सदन का अल्पमत ही इसके साथ है। लोकसभा में कुल 545 सांसद हैं और बहुमत का आंकड़ा 272 होता है। इसके पक्ष में मात्र 253 सांसदों ने ही मत डाले। जाहिर है इसके ज्यादातर सांसद इसके खिलाफ हैं, भले ही उनमें से कुछ ने मतदान में ही हिस्सा नहीं लिया हो। जिनती पार्टियों ने इसके खिलाफ अपने विचार व्यक्त किए उनके सदस्यों की संख्या लोकसभा में 284 है। अनुपस्थित रहकर सरकार के पक्ष में नतीजों का होना सरकार की सिर्फ तकनीकी जीत ही मानी जाएगी। इससे यह तो पता चल जाता है कि केन्द्र की सरकार खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को बुलाने का जो निर्णय कर रही है, उसे लोकसभा के बहुमत का समर्थन वास्तव में हासिल नहीं है।

इस सच्चाई के बावजूद अब केन्द्र सरकार की इस नीति को एक ताकत मिल चुकी है। सरकार की इस जीत के लिए देश के वे जातिवादी नेता जिम्मेदार हैं, जो अपनी जातिवादी राजनीति को यह कहकर उचित ठहराते हैं कि इससे सदियों से दबे कुचले लोगों को आवाज मिलती है। मायावती, मुलायम, और लालू ही नहीं, बल्कि करुणानिधि और शरद पवार भी जातिवादी राजनीति के द्वारा ही सत्ता में आते हैं। इस राजनीति के पैरोकार कहते हैं कि यह देश में सामाजिक समता लाने के लिए जरूरी है, लेकिन उनकी सामाजिक समता की यह राजनीति देश में ऐसी नीतियों को बढ़ावा देने का उपकरण बन रही है, जिससे विषमता और भी बढ़ रही है। किसानों की आत्महत्याओं की दर लगातार बढ़ती जा रही है। विदेशी कंपनियों को यदि किराना सेक्टर में लाया गया और उनका दबदबा बढ़ा तो किसानों की आत्महत्याओं की घटनाएं और भी बढ़ेंगी। आज देश के गन्ना किसान कंपनियों को सीधे अपना गन्ना बेचते हैं। उनकी क्या हालत है, हम जानते हैं। चीनी कंपनियों से अपना वाजिब बकाया मांगने पर उन पर कितनी बार गोलियां चली हैं, इसे भी हम जानते हैं। उसी तरह की दुर्गति किसानों की विदेशी खुदरा कंपनियों के हाथों नहीं होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं देता। आज लालू यादव कहते हैं कि ऐसी कंपनियों के स्टोरों का जला दिया जाएगा, लेकिन यदि उनके हाथ में सत्ता रही, तो रीटेल विदेशी कंपनियों से अपने बकाया की मांग कर रहे किसानों पर पुलिस फायरिंग की इजाजत वे नहीं देंगे, इसकी आज कोई गारंटी नहीं।

सच तो यह है कि जातिवादी राजनीति ने भ्रष्ट नेताओं को पैदा किया है और वे भ्रष्ट नेता न तो देश का और न उस जाति अथवा समुदाय का भला कर सकते हैं, जिनके मत लेकर वे सत्ता में आते हैं। जाति की राजनीति से सामाजिक समरसता अथवा सामाजिक न्याय की स्थापना की जा सकती है, अब यह पूरी तरह गलत साबित हो चुका है। यदि यह जारी रहा तो आने वाले दिनों में इसके और भी खतरनाक नतीजे देखने को मिल सकते हैं। (संवाद)