जैसी की उम्मीद थी, वे चापलूस जिसकी आदत सत्ता के साथ चिपके रहने की हैए राहुल को घेरने लगे हैं, ताकि वे पार्टी का प्रबंधन अपने हाथों में ले सकें। उन्हें उनके जाल में नहीं फंसना चाहिए और उन्हें अपनी नई टीम काफी सूझबूझ के साथ चुननी चाहिए। इस टीम मे अनुभवी और नये दोनों तरह के लोग होने चाहिए।

सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी कांग्रेस को बचा पाएंगे और लोकसभा चुनाव के बाद यूपीए की तीसरी सरकार का नेतृत्व कर सकेंगे? इस पर संदेह इसलिए पैदा होता है कि राहुल के राजनीति में आए 9 साल हो गए हैं और इतने लंबे समय में उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता का अभी तक कोई परिचय नहीं दिया है। कुछ लोग कह रहे हैं कि देश की भर की यात्राएं करने के बाद राहुल ने राजनीति के बारे में कोई अपनी राय बनाई होगी।

इसमें कोई शक नहीं कि आज कांग्रेस पार्टी को देश के अनेक इलाके में अपने आपको बेहतर बनाना है और वह काम आसान नहीं है। उदाहरण के लिए देश के दो बड़े राज्यों बिहार और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति सुधारना आसान नहीं है। दोनों राज्यों के विधानसभा चुनावों में पार्टी की बहुत ही शर्मनाक हार हुई थी, जबकि चुनाव जीतने के लिए सारी ताकत झोंक दी गई थी। बिहार और उत्तर प्रदेश ही नहीं, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में भी कांग्रेस की हालत पतली है। ये प्रदेश भी कांग्रेस के हाथ से निकल चुके हैं। दिल्ली, राजस्थान, केरल, आंध्र प्रदेश और हरियाणा में सरकार विरोधी भावनाएं लोगों में देखी जा सकती हैं और यहां सरकारें कांग्रेस की ही है। महाराष्ट्र और जम्मू- कश्मीर में कांग्रेस गठबंधन सरकार में शामिल हैं और वहां सभी सीटों पर यह चुनाव भी नहीं लड़ती है।

ऐसी स्थिति में कांग्रेस को एक बड़े आपरेशन की जरूरत है, ताकि वह तीसरी बार सरकार में आ सके। गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों के बाद आगामी लोकसभा चुनाव के पहले 11 प्रदेशों में विधानसभाओं के चुनाव हैं। उन सभी राज्यों में राहुल गांधी की असली परीक्षा होगी। क्या राहुल गांधी पार्टी का सही तरीके से आपरेशन करने में कामयाब हो सकेंगे? क्या वे अपने नेतृत्व में पुराने अनुभवी लोगो ंको साथ रखते हुए नये लोगों को पार्टी में मुख्य भूमिका दे सकेंगे? क्या आगामी 18 महीने में वे सेवा दल, महिला कांग्रेस और एनएसयूआई जैसे कांग्रेस के फ्रंट संगठनों मे नई जान डाल पाएंगे? युवा कांग्रेस और एनएसयूआई में जान डालने की कोशिश वे वर्षों से कर रहे हैं। उनके अनुभव को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि राहुल गांधी से कोई ज्यादा उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।

पार्टी का नेतृत्व करने के लिए कांग्रेस को काम करने के अपने तरीके को बदलना पड़ेगा। सबसे पहले तो उन्होंने कांग्रेस के अंदर विपक्ष के नेता की अपनी जो भूमिका बना रखी है, उस भूमिका को उन्हें त्यागना होगा। उन्होंने कांग्रेस की अंदरूनी व्यवस्था की आलोचना करके बहुत प्रशंसा पा ली है, लेकिन जब वे खुद कांग्रेस के नेतृत्व में आ गए हैं, तो उन्हें उस व्यवस्था में बदलाव करके दिखाना होगा, न कि उसकी आलोचना करके। यदि वे बदल नहीं सकते हैं, तो उन्हें यह बताना होगा कि यह खराब व्यवस्था वे क्यों नहीं बदल पा रहे हैं। वे पार्टी के अंदर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को फिर से बहाल करना चाहते हैं, लेकिन पार्टी के पुराने लोग इसे पसंद नहीं करते हैं। इस प्रक्रिया की बहाली का काम उन्हें धीरे धीरे ही अपनाना होगा।

पार्टी और संगठन के बीच रिश्तों की भी समस्या है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लोकसभा की इसी कार्यावधि तक सरकार में होंगे। इसके आगे यदि सरकार मिलती है, तो यह जिम्मा शायद राहुल को ही निभाना होगा। फिलहाल सरकार की उपलब्धियों से जनता को अवगत कराना पार्टी का ही काम है और सरकार की नाकामियों पर भी सरकार की रक्षा करना पार्टी का ही काम होगा। भ्रष्टाचार, महंगाई और अलोकप्रिय नीतियों पर सरकार को बचाना भी पार्टी का ही काम है, क्योंकि चुनाव तो पार्टी को ही लड़ना है। (सवाद)