वास्तव में नेताओं के भाषणों और मतदान पर उनके रवैये का निहितार्थ केवल बहुब्राण्डीय खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की संसद में मतदान से मिली स्वीकृति तक सीमित नहीं है। संसद का अंकगणित राजनीतिक समीकरणों से बनता है और ये समीकरण केवल वर्तमान राजनीति के ही संकेत नहीं होते, भावी राजनीति की दृष्टि से भी इनका महत्व होता है। तो लोकसभा एवं राज्य सभा में सरकार तथा मुख्य विपक्ष एवं उनके अलावा अन्य दलों के आचरणों और रणनीति के भावी राजनीति की दृष्टि से क्या निहितार्थ हो सकते हैं?
सबसे पहले सरकार एवं कांग्रेस। 21 सितंबर 2012 को जब प्रधानमंत्री ने देश के नाम अपने संबोधन में आर्थिक सुधारों को हर हाल में लागू करने का इरादा व्यक्त किया एवं आम नागरिकों से समर्थन मांगा तो यह दरअसल, उस रणनीति की शुरुआत का पहला कदम था जिसके तहत कांग्रेस ने तय कर लिया था कि येन-केन-प्रकारेण दबाव में सहमी एवं काम न करने वाली सरकार की छवि को तोड़कर अगले चुनाव में राहुल गांधी के नेतृत्व में सफलता पाने की कोशिश करनी है। उस रणनीति में संसद के अंदर राजनीतिक अंकगणित को किसी तरह अपने पक्ष में करने तथा उसके लिए हर संभव तरीके अपनाने के विचारों का अनुमोदन भी शामिल था। ध्यान रखिए संसद में बहुब्रांण्डीय खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश पर विभिन्न दलों द्वारा दिए गए भाषणों एवं मतदान के दौरान की भूमिका परस्पर विरोधी थी। मोटे आंकड़ों के अनुसार लोकसभा की बहस में भाग लेने वाले 18 दलोें में से 14 ने सरकार के कदम का विरोध किया, जबकि राज्य सभा में प्रस्ताव पेश करने वाले अन्नाद्रमुक के वी. मैत्रेयन के अनुसार कुल 34 दलों में से 21 ने। लेकिन अंकगणित सरकार के पक्ष में आया। यदि नेता भाषणों के अनुसार मतदान करते तो दोनों सदनों में सरकार की पराजय निश्चित थी।
वस्तुतः संसद में मतदान का परिणाम यह वैसा ही है जैसा नाभिकीय समझौते पर वामदलों द्वारा समर्थन वापसी से यद्यपि सरकार अल्पमत में थी, पर 17-18 जुलाई 2008 को विश्वासमत पर बहस के बाद उसके पक्ष में बहुमत का आंकड़ा आया। तो आने वाले समय का राजनीतिक संकेत यही है कि अन्य मामलों पर भी वह ऐसी रणनीति अपनाएगी जिससे सदनों के अंदर संकट को वह पार कर जाए। स्वाभाविक ही इसके लिए कांग्रेस एवं सरकार ने कीमत चुकाने का भी निर्णय किया होगा और यह कीमत कुछ भी हो सकती है। चाहे नेताओं के विरुद्ध मुकदमे में सीबीआई का प्रयोग हो, या वैसे राजनीतिक मांग को स्वीकार करने का जिसे सरकार नीतिगत रुप से अस्वीकार करती रही हो या फिर कुछ व्यक्तिगत लाभ पहुंचाने का। तेलुगू देशम के तीन सांसदों ने क्यों मतदान नहीं किया? मिजो नेशनल फ्रंट के एक सांसद ने किधर मतदान किया? ....ऐसे प्रश्नों का उत्तर ढूंढना चाहिए। इन उत्तरों से सरकार के राजनीतिक प्रबंधन और भविष्य की राजनीतिक रणनीति और ज्यादा स्पष्ट हो जाएगी। जनता दल यू के उपेन्द्र कुशवाहा ने सरकार के पक्ष में क्यों मतदान किया? वे अपनी पार्टी से व्यावहारिक रुप से अलग हैं और बिहार में सरकार के खिलाफ अभियान भी चला रहे हैं। तो क्या यह आने वाले समय में बिहार के अंदर कांग्रेस और उपेन्द्र कुशवाहा आदि की नई पार्टी के साथ बनने वाले समीकरण का संकेत है? संसदीय कार्यराज्य मंत्री राजीव शुक्ला ने राज्य सभा में पहले आए परिणाम के समय ही कह दिया कि विपक्ष के पक्ष में 109 मत नहीं आ सकता। वे ऐसा इसलिए कह सके, क्योंकि मतों के राजनीतिक प्रबंधन के अनुसार उन्हें परिणाम के आंकड़ों का पहले से पता था।
हालांकि दोनों सदनों में बहस से एक बात तो बिल्कुल साफ है कि सरकार इस पर या ऐसे अन्य कई आर्थिक परिवर्तन के कदमों पर राजनीतिक प्रतिष्ठान में अल्पमत में है। इसलिए अल्पमत को बहुमत में बदलने के लिए वह आगे भी ऐसा करेगी। इसलिए हम आप यदि यह सोचते हैं कि सरकार किसी क्षण जा सकती है तो कुछ समय के लिए इस सोच के दरवाजे को बंद कर दीजिए। अगर राजनीतिक दल जैसी उन्हें भूमिका निभानी चाहिएं वेैसी निभाएं तभी न ऐसा होगा! सरकार सपा और बसपा के समर्थन से टिकी है। सपा इस नीति का विरोध करती रही, पर यदि वह अपने विरोध को मतदान में परिणत ही नहीं करेगी, बहिर्गमन कर जाएगी तो फिर कोई परिवर्तन हो ही नहीं पाएगा। सपा का रवैया इस एक मामले तक ऐसा होना यह मानने का अभी कोई कारण नहीं है, इसलिए आगे भी हमें उसकी ऐसी भूमिका देखने को मिल सकती है। हां, कब तक मिलेगी इसका अनुमान लगाना जरा कठिन है। बसपा का लोकसभा मेें सेक्यूलर लबादे से विपक्ष के साथ मतदान करने तथा राज्य सभा में भाजपा इसे मुद्दा न बनाए इसके आधार पर नीतियों का विरोध करते हुए भी सरकार के पक्ष में मतदान करने के बाद यह कल्पना बेमानी होगी कि आने वाले दिनों में मायावती सरकार को ठंेगा दिखा सकतीं हैं। यह केवल आरक्षण में प्रोन्नति विधयेक लाकर मंजूर कराने की शर्त तक सीमित नहीं होगा। जाहिर है, आने वाले समय में संभवतः कई बार में हमें इन दोनों पार्टियांे को सरकार का संकटमोचक बनते देखना होगा और इससे राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक यथास्थितिवाद कायम रहेगी।
स्ंाप्रग के अन्य साथियों का राजनीतिक आचरण भी इसी विडम्बना के साथ सुसंगति बनाने वाला है। द्रमुक ने इस नीति पर आक्रामक विरोध का रुख अपनाया। 20 सितंबर के बंद में भी भाग लिया। संसद मंे भी उसका यही रुख रहा, पर मतदान ने इस अनुमान की फिर से पुष्टि कर दी कि वह किसी कीमत पर सरकार को गिराना नहीं चाहेगी। कारण, तमिलनाडु में लोकसभा चुनाव का पलड़ा अन्नाद्रमुक के पक्ष में भारी है। संप्रग सरकार का भाग होने का प्रभाव एवं सुरक्षा दोनों स्तरो पर उसे जो लाभ है उसे मूल्यों की राजनीति पर कुर्बान करने की जहमत वह क्यों उठाए! इसी तरह राकांपा की महाराष्ट्र प्रदेश ईकाई ने विदेशी बहुब्राण्डीय स्टोर खोलने का विरोध कर दिया है। यानी वह नीति के स्तर पर कांग्रेस के साथ नहीं है, पर राजनीतिक अंकगणित में उसे धक्का नहीं लगने देगी। इस प्रकार यदि संप्रग के साथी उसे बचाए रखने की नीति पर कायम हैं और सपा तथा बसपा की भूमिका ऐसी ही है तो फिर निकट भविष्य में केन्द्रीय राजनीति के बदलने की संभावना कैसे व्यक्त की जा सकती है!
किंतु इन विडम्बनाओं और अंतर्विरोधों से भरी जटिल राजनीति की बिल्कुल तारतम्य भरे प्रयाण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए राजनीतिक हिचकोलों का साक्षात्कार होता रहेगा। आखिर हिचकोले खाती सरकार कब तक अपनी जीवन लीला बनाए रखेगी? विपक्ष ने जिस तरह का आक्रामक एवं दृढ़ तेवर दिखाया है उसका संकेत बिल्कुल स्पष्ट है। आर्थिक सुधारों के मुद्दे पर तो संसद एवं बाहर वह आक्रामक विरोध करेगी। आखिर भाजपा एवं माकपा दोनों ने सदन की विजय को अनैतिक कहा है। तृणमूल का बयान भी ऐसा है। इस तरह प. बंगाल में केन्द्र सरकार की नीतियों के विरोध में वाम मोर्चा एवं तृणमूल एक पायदान पर होंगे। भाजपा ने तो राज्य सभा के मतदान परिणाम को काला दिन की संज्ञा दी है। यानी वह जनता के बीच इसे सरकार की अनैतिक यानी अपने प्रभाव का उपयोग करके मत खरीदने का भ्रष्टाचार कहकर प्रचारित करेगी। सुषमा स्वराज ने लोकसभा में एफडीआई बनाम सीबीआई का नारा दे ही दिया है। वाम दलों ने संभवतः सपा से भविष्य के राजनीतिक समीकरण का ध्यान रखते हुए सीबीआई पहलू को इस तरह नहीं उठाए, पर उनका तेवर काफी आक्रामक रहेगा। लंबे समय बाद हमने वामदलों एवं भाजपा को सरकार के विरुद्ध एक पायदान पर देखा है। यदि लोकसभा में 200 से ज्यादा और राज्य सभा में 100 से ज्यादा सांसदों के बीच नीतियों के विरुद्ध आक्रामक एकता हो तो संसद के अंदर राजनीतिक तस्वीर क्या होंगी इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। यह न भूलिए कि सपा केवल मतदान या सरकार को बचाने के समय उसके साथ है, अन्यथा भारत बंद में वह इन्हीं दलों के साथ थी, इसलिए संसद के अंदर एवं बाहर विरोध के मोर्चे पर वह भी साथ रहेगी और संभव है द्रमुक जैसे दल भी कई बार इनके पाले में रहें। इस तरह कांग्रेस की रणनीति चाहे जितनी पुख्ता बनाई गई हो, विरोध के तेवर एवं उसकी शक्ति के थपेड़ों से उसका पूरी तरह स्थिर, शांत, संतुलित और सुरक्षित रहना आश्चर्य ही होगा। (संवाद)
राजनीतिक हिचकोलों का साक्षात्कार
अवधेश कुमार - 2012-12-15 11:29
बहुब्राण्डीय खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश पर दोनों सदनों में हुई बहस एवं मतदान का प्रसंग अब व्यापक चर्चा में नहीं है, लेकिन उसकी राजनीतिक प्रतिध्वनि आने वाले लंबे समय तक गूंजती रहेगी। इसलिए इसके राजनीतिक निहिताथों पर गहराई से विचार करना आवश्यक है।