पर 2012 का साल इसका अपवाद साबित हुआ है। साल की शुरूआत ही सरकारी सेवा में रत दलितों कर्मचारियों के लिए शुभ नहीं था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार द्वारा दलितों और आदिवासी कर्मचारियों के किए गए प्रोमोशन पर इस बिना पर रोक लगा रखी थी कि वैसा करने के पहले सुप्रीम कोर्ट के 2006 के एक आदेश का पालन नहीं किया गया था, जिसके अनुसार आरक्षण देते समय यह सुनिश्चित किया जाना था कि जिन्हें वह आरक्षण मिल रहा है, वह पिछड़े हैं और उनके वर्ग अथवा जाति को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है। इसके साथ यह भी सुनिश्चित किया जाना था कि प्रमोशन के उस फैसले से प्रशासकीय क्षमता नहीं प्रभावित होती है।

2012 के शुरुआती महीनों में ही दो झटके दलितों को लगे। पहला झटका तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा उत्तर प्रदेश की माया सरकार के उस फैसले को रद्द किया जाना था और दूसरा झटका खुद मायावती का उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर हो जाना था। मायावती देश की एक मात्र दलित इस साल के फरवरी महीने तक थीं। चुनाव में उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा। जिस तरह से बिहार में लालू प्रसाद यादव मुस्लिम का समीकरण बनाकर अपने आपको अजेय बनाने की कोशिश करते थे, उसी तरह मायावती ने उत्तर प्रदेश के 2012 विधानसभा चुनाव के पहले दलित मुस्लिम का समीकरण बनाने का पत्ता खेला था। वह एक के बाद एक पत्र प्रधानमंत्री को लिख रही थीं कि मुसलमानों को सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण मिले। केन्द्र सरकार ने उनके पत्रों के जवाब में ओबीसी के 27 फीसदी कोटे से ही अल्पसंख्यक पिछड़ों को साढ़े 4 फीसदी कोटा दे डाला। इसके कारण उत्तर प्रदेश के जो पिछड़े वर्ग मायावती के बहुजन नारे के प्रभाव मंे उनसे जुड़े थे, उनका मोह भंग हो गया। उन्हें लगा कि मायावती की पिछड़े वर्गो के 27 फीसदी कोटे मे कटौती की जिम्मेदार हैं। 2007 में मायावती की जीत का सबसे बड़ा कारण मुलायम और भाजपा के मोह से मुक्त हुए पिछड़े वर्गो के लोगों का मायावती के समर्थन में आना था। पर मायावती ने दलित मुस्लिम समीकरण बनाने के चक्कर में अपना पिछड़ा जनाधार खो दिया और मुसलमान भी उनके साथ नहीं जुड़े। उसका परिणाम हुआ बसपा की करारी हार।

उत्तर प्रदेश में दलित और पिछड़ा गठजोड़ के टूटने का असर देश की राजनीति पर भी हुआ है। दलितों के प्रमोशन में कोटे पर यदि संविधान संशोधन में सहमति नहीं बन पा रही है, तो इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि अब पहले की तरह दलितों और पिछड़ों में सामाजिक स्तर पर कोटे को लेकर जो सहमति थी वह समाप्त हो गई है।

सच कहा जाय तो देश में दलित आक्रामकता पिछड़े वर्गों को 27 फीसदी कोटा देने के वीपी सिंह के निर्णय के कारण ही देश में देखने को मिली थी। 1990 के पहले जब भी दलितों के लिए लोकसभा और विधानसभा में आरक्षण की अवधि 10 साल के लिए बढ़ाई जाती थी, उनके खिलाफ बहुत उत्पात होता था, क्योंकि देश की अधिकांश जनता आरक्षण विरोधी थी। 1990 के बाद पिछड़े वर्गो को भी आरक्षण में दायरे में आने के कारण अधिसंख्यक जनता आरक्षण समर्थक हो गई और इस तरह से दलित आक्रामकता को सहारा मिलने का एक बेहतर माहौल प्राप्त हो गया।

22 साल के बाद 2012 में अब वह माहौल बदला बदला सा लग रहा है और उत्तर प्रदेश के जो 20 लाख कर्मचारी एससी/एसटी के प्रमोशन में कोटे का विरोध कर रहे हैं, उनमें पिछड़े वर्ग के कर्मचारी भी शामिल हैं।

2012 का साल दलितों के लिए एक और मायने में महत्वपूर्ण रहा। वह है सुशील कुमार शिंदे का केन्द्र सरकार में गृहमंत्री बनना। करीब दो दशक के बाद किसी दलित को गृह मंत्रालय का नेतृत्व करने का मौका मिला है। लेकिन इसके साथ ही दलितों पर हो रहे अत्याचारों की घटनाएं भी खूब चर्चा में आती रही हैं। देश की राजधानी दिल्ली से सटे हरियाणा में इस तरह की घटनाएं सबसे ज्यादा देखने को मिल रही हैं। वैसे बलात्कार की घटनाएं तो सभी वर्गो और समुदायों की महिलाओं के साथ हो रही है, लेकिन दलित महिलाएं इस मामले मे सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं। हरियाणा में तो इस तरह की घटनाओं की श्रृंखला देखने को मिली और इसके कारण दलितों और प्रभुत्वशाली जाटों के बीच सामाजिक तनाव भी देखने को मिले। कई मामलों में तो दलितों को अपना गांव छोड़कर भी भागना पड़ा। दलितों पर अत्याचार की घटनाएं मध्यप्रदेश में भी घटित हुईं।

मुंबई में इंदु मिल की खाली पड़ी जमीन को लेकर दलितों और राज ठाकरे के समर्थकों के बीच विवाद खड़ा होना शुरू हुआ था। यह जमीन बाबा साहब अंबेडकर के लिए चिन्हित की गई थी, लेकिन महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने मांग कर दी कि वहां बाल ठाकरे का स्मारक बना दिया जाय। गनीमत है कि शिवसैनिक अभी तक शिवाजी पार्क में ही बाल ठाकरे का स्मारक बनाने की जिद कर रहे हैं। इस बीच केन्द्र सरकार ने संसद में घोषणा कर दी कि इंदु मिल की जमीन पर बाबा साहब का स्मारक बनाया जाएगा। इस घोषणा के साथ मुंबई में दलितों और राज ठाकरे के समर्थकों के बीच टकराव तो टल ही गया, बाबा साहब के मंुबई मंे एक भव्य स्मारक बनाए जाने की मांग भी पूरी हो गई।

साल खत्म होते होते बिहार से एक एक विचित्र खबर आ रही है। वह है जहरीले शराब पीने से लोगों की मौत के लंबे सिलसिले का। इसमें आश्चर्य इस बात की है कि मरने वाले ज्यादातर लोग दलित समुदाय के हैं। दलित मुहल्ले ही जहरीली शराब के व्यापारियों का निशाना क्यों बन रहे हैं, इसका पता जांच के बाद ही लगेगा।

साल 2012 प्रमोशन मंे दलितों के कोटे के सवाल से अभी भी जूझ रहा है। देखना होगा कि नया साल इस सवाल को समाधान की ओर ले जाता है या नहीं। (संवाद)