सरकार ने बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की सजा निर्धारित करने के लिए उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया जो एक महीने के अंदर अपनी अनुशंसा सरकार को देगी। दामिनी के मामले पर नजर रखने के लिए भी सरकार ने समिति की बात कही है। प्रदर्शनकारियों पर पुलिस लाठीचालन और हिंसक व्यवहार की जांच की घोषणा हो गई तथा कुछ पुलिसकर्मी निलंबित भी किए गए।
पहले दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने और बाद में केन्द्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से मिलकर फास्ट ट्रैक न्यायालय बनाने का अनुरोध किया और यह तय हो गया कि उसमें तीनों न्यायाधीश महिलाएं होंगी। आगामी 4 जनवरी को सभी राज्यों के मुख्य सचिवों एवं पुलिस महानिदेशकों का सम्मेलन राजधानी में आहूत किया गया है जिसमें यह विचार होगा कि देश के अन्य हिस्सों में कैसे स्त्रियों के विरुद्ध होने वाले अपराधों का निषेध हो तथा हो जाने पर पीडि़ता को त्वरित न्याय मिले। दो दिनों में शीला दीक्षित की केन्द्रीय गृहमंत्री से दो बार मुलाकात हो गई। शिंदे ने दीक्षित से अनुरोध किया महिलाओं के लिए पूर्व सैनिकों, गृहरक्षा वाहिनी आदि को मिलाकर गठित प्रकोष्ठ को फिर से सक्रिय किया जाए और जो सूचना है इस दिशा में काम आरंभ हो गया है।
भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान के अतीत को देखते हुए शांत और संतुलित मन से कोई भी विचार करेगा तो इतने कम समय में इन सारी क्रियाशीलताओं और निर्णयों को असाधारण मानेगा। यह स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं है कि जिस तरह राजधानी दिल्ली में इंडिया गेट से लेकर, राजपथ, राष्ट्रपति भवन, जंतर-मंतर... पर आक्रोश प्रदर्शन हुआ है, पुलिस के पानी की बौछारों, आंसू गैस के गोलों का सामना करते हुए युवक-युवतियां, स्त्री-पुरुष... कंपकंपाती ठंढ में भी अड़े रहे उससे सत्ता प्रतिष्ठान पर दबाव बढ़ा है। इन विरोध प्रदर्शनों से अन्य दल भी दबाव में आए और उन्होंने सरकार से कदम उठाने की मांग की। इसमें सत्तारुढ़ दल पीछे रहकर युवाओं और समूचे मध्यमवर्ग का कोपभाजन बनने का जोखिम नहीं उठा सकती थी। भारत में प्रधानमंत्री द्वारा देश के नाम संदेश कभी सामान्य घटना नहीं रही। विरलों में विरलतम अवसरों पर ही प्रधानमंत्री ने देश को संबोधित किया है। भले राजनीतिक दल इसकी मांग कर रहे थे कि प्रधानमंत्री को आगे आना चाहिए, पर मांगें तो पहले भी हुईं और सरकारें उन्हें अनसुनी भी करतीं रहीं हैं। यही नहीं गृहमंत्री की इतनी सक्रियता भी सामान्य बात नहीं। तो पहले निष्कर्ष में इसे बदलते हुए भारत के मनोविज्ञान के सामने एक सीमा तक ही सही विवश सत्ता प्रतिष्ठान के बदलते चरित्र का संकेतक माना जाएगा। अगर वाकई सत्ता प्रतिष्ठान को यह अहसास हो गया है कि भारत में अब ऐसी किसी जघन्यता पर चुप्पी या उसकी अनदेखी छोटे-बड़े जन उबाल का कारण बन सकती है तो आगे हम अन्य घटनाओं पर सत्ता प्रतिष्ठान के स्वतःस्फूर्त संज्ञान का कतिपय राहतकारी आचरण देख सकते हैं।
वास्तव में शासन प्रणाली कोई भी हो, सरकार को स्पंदनशील होना ही चाहिए। आखिर जिस अमेरिका की हम आलोचना करते नहीं थकते, वहां एक विद्यालय में एक जुनूनी नवजवान द्वारा गोलीचालन में दो दर्जन बच्चों के मारे जाने के बाद राष्ट्रपति बराक ओबामा ने स्वयं पहले राष्ट्र को संबोधित किया, फिर वहां श्रद्धांजलि सभा में गए तथा ऐसा आगे न हो इसके लिए क्या-क्या किया जा सकता है ऐसे उपाय किए जा रहे हैंें। इस तरह त्चरित स्पंदनशीलता हमारे सत्ता प्रतिष्ठान में क्यों नहीं दिखती है? गृहमंत्री शिंदे ने जिस तरह संतुलन बनाए रखकर लगातार अपीलंे की, बयान दिए या निर्णयों की जानकारियां दीं उसी तरह उन्होेनंे यह भी कह दिया कि कहां कहां जाएगी सरकार। सरकार हर जगह नहीं जा सकती। क्यों नहीं जा सकती? हम उनकी या अन्य नेताओं की इस बात से सहमत हैं कि सुदूर गांवों, कस्बों या आदिवासियों की बस्तियों में बलात्कार या स्त्रियों के विरुद्ध अत्याचार की अनेक जघन्य वारदातें होतीं हैं, जिन पर जन उबाल इतना नहीं दिखता, पर यह भी सत्ता की ही विफलता है। आखिर वारदातें हो रहीं हैं तो शासन के संदर्भ में यह कानून का पालन कराने वाली एजेंसियों की विफलताएं हैं जो कि अपराधकर्ताओं के अंतर्मन में कानून का भय पैदा करने में सक्षम नहीं हुए। यह प्रश्न सभ्य समाज के नाते हमारे सामने गहरे मंथन की मांग अवश्य करता है कि आखिर अन्य घटनाएं राजधानी के लोगों को इस तरह उद्वेलित क्यों नहीं करती, और इसका निष्कर्ष किसी तरह संतोष देने वाला नहीं है। कहा जा रहा है कि मौत से जूझती दामिनी तथा उसके युवा मित्र नंगे सड़क के किनारे फंेके पड़े थे, वहां से कुछ लोग गुजरे, पुलिस के पहुचंने पर कुछ खड़े भी थे, पर किसी ने अपना कपड़ा उतारकर या किसी तरह उनका तन ढंकने की जहमत नहीं उठाई। रात्रि में वाईकों से गश्त करने वाली टोली के तीन युवाओं ने कराहने की आवाज सुनी और पुलिस को फोन किया और फिर पुलिस के आने पर कहीं से एक चादर लाकर उसका तन ढंका गया। यह किसी स्पंदनशील सभ्य समाज का आचरण नहीं हो सकता। इसी तरह इंडिया गेट पर घायल पुलिसकर्मी की अंततः अस्पाताल में मौत हो गई। पर इससे सत्ता प्रतिष्ठान का आचरण न्यायसंगत सिद्ध नहीं हो सकता। राजधानी दिल्ली में एक बस का सामान्य चालक अपने साथियों के साथ ऐसी दरिंदगी को अंजाम दिए जाने पर भी यदि शासन को अपनी विफलता समझ नहीं आ रही तो कब आएगी?
वास्तव में प्रधानमंत्री का देश के नाम संदेश सर्वथा उचित कदम था। हालांकि वह पहले होना चाहिए था। एक सप्ताह बाद ऐसा करना केवल दबाव के कारण संभव हुआ। इसका मतलब प्रधानमंत्री एक सप्ताह तक देश के सामने आने कि लिए तैयार नहीं है। गृहमंत्री का प्रदर्शनकारियों के साथ देश को उचित कार्रवाई, सख्त कानून बनाने, ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए हर संभव उपाय आदि का आश्वासन और इस दिशा में कदम उठाना भी सही है, कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के दरवाजे पर प्रदर्शन करने आए नवजवानों से स्वयं बाहर निकलकर बातचीत करना भी सही था, पर इनमें से केवल उचित कार्रवाई, कानून बनाने और निषेध उपाय के स्वर ही निकले हैं। अब तय है कि दामिनी के मामले में न्यायिक फैसला शीध्र होगा, बलात्कार और उसके साथ अन्य जघन्य अपराधों के लिए कानून और सख्त होगा, महिलाओं की सुरक्षा के लिए कुछ धरातली व्यवस्थाएं भी होंगी...। ये सारी बातें ठीक हैं। हालांकि कानून का पुलिस किस तरह दुरुपयोग कर रही है इसका एक उदाहरण बिहार के मुजफ्फरपुर से आई है जहां एक नवजसान को पुलिस ने छेड़छाड़ का आरोपी बनाकर उसके गले मेें मैं बलात्कारी का तख्ता लगाकर शहर में घूमाया और वहां पुलिस के इस कारनामे के विरोध में लोग सड़कों पर उतरे हैं। इसलिए यह भी विचारणीय पहलू है। पर क्या जो कुछ निर्णय किए गए या होेंगे वे ही पर्याप्त हैं। कतई नहीं। वास्तव में इसका सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि ऐसा क्यों हुआ, इसकी जिम्मेवारी किनकी-किनकी है,... आदि मूल सवाल पर कोई चर्चा तक नहीं।
सरकार के लिए यह कहना बहुत आसान था कि हमने उनकी सारी मांगे मान लीं और वे प्रदर्शन न करें। कौन सी मांग? मांग की बात ही मामले का अत्यंत सरलीकरण कर देना है। यह मांग का अभियान नहीं संश्लिष्ट आक्रोश का त्वरित प्रकटीकरण था। अपराधी पकड़े गए, पीडि़ता का उचित इलाज चल रहा है, फास्ट ट्रैक न्यायालय के कारण शीघ्र न्याय की संभावना भी प्रबल हो गई है और भविष्य में सख्त कानून तथा सुरक्षोपाय की गारंटी भी दी जा रही है। अगर इनके आलोक में विचार करें तो फिर विरोध प्रदर्शन का कोई औचित्य ही नहीं नजर आएगा। वस्तुतः सड़कों पर आक्रोश का प्रस्फुटन हुआ जिसे रोकने के लिए कुछ ़क्षेत्रों में धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा, कुछ मेट्रो स्टेशनों को बंद करने और आम रास्तों पर वाहनों के आवागमन के निषेध जैसा कदम उठाना पड़ा और व्यवहार में ऐसा लगता रहा मानो इन क्षेत्रों में कफ्र्यू हो। प्रदर्शन में ऐसा कोई नहीं था जो मांग की कोई सुसंगत सूची प्रस्तुत कर दे। अर्थव्यवस्था में आए परिवर्तनों के साथ समाज और जीवन शैली में आए परिवर्तनों को परे रख दे ंतो दामिनी पं्रकरण या राजधानी की ऐसी कई घटनाओं का मुख्य कारण रात्रि 10 बजे के बाद सार्वजनिक सवारी का अभाव तथा पुलिस की चैकसी का न होना रहा है। इस पर न शीला दीक्षित बात कर रहीं हैं, न गृहमंत्री न प्रधानमंत्री...न अन्य कोई। अगर राजधानी में चोबीस घंटे उपयुक्त सुरक्षित सवारी की व्यवस्था हो जाए तो फिर ऐसी वारदातों के अवसर अपने-आप घट जाएंगे। इसी तरह पुलिस रात्रि में वसूली की बजाय सुनसान या कम यातायात वाले क्षेत्रों में चैकसी रखे तो चाहकर भी अपराधियों को अपराध अंजाम देना कठिन हो जाएगा। ऐसा न कर सरकार और पुलिस दोनों अपराध करते रहे हैं इसलिए वे इन पहलुओं की चर्चा से बच रहे हैं। वास्तव मंे प्रधानमंत्री का संबोधन, गृहमंत्री की सक्रियता तभी फलदायी और सार्थक होंगी जब कम से कम इन दोनों कारणों का अंत हो जाए। (संवाद)
सरकार की सक्रियता ठीक, पर ये पर्याप्त नहीं
घटनाओं के कारणों पर विचार किए बिना समाधान नहीं निकल सकता
अवधेश कुमार - 2012-12-29 12:27
इससे पूर्व किसी जघन्य अपराध पर सरकार को इतनी तेजी से क्रियाशील होकर निर्णय लेते हुए नहीं देखा गया। जरा 24 घंटे में सरकार की चहलकदमी एवं निर्णयों पर नजर डालिए। प्रधानमंत्री ने देश को संबोधित किया। यह अपने-आपमें अभूतपूर्व कदम है।