दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार की शिकार लड़की की मौत के बाद हमें आत्ममंथन करना चाहिए। हमें पहले अपने आप से शुरू करना चाहिए। उसके बाद परिवार और फिर समाज के बारे में सोचना चाहिए। फिर उसके बाद सरकार और कानून व्यवस्था की चर्चा करनी चाहिए। व्यवस्था की विफलता इन सभी स्तरों पर देखी जा सकती है। 23 साल की उस लड़की की पहचान को अभी भी गुप्त रखा जा रहा है। सोचने की बात यह है कि उस जघन्य हत्या पर हो रहे हंगामे के बाद भी बलात्कार की खबरें लगातार आ रही हैं। एक समाज के रूप में हम कितने असंवेदनशील हो गए हैं।
हमें इस घटना से अनेक प्रकार की सीख लेनी चाहिए। सबसे पहले, सरकार आखिर क्यों रक्षात्मक रुख अपना रही थी और इस समस्या के बारे में आगे आकर यह नहीं कर रही थी, जिससे लगता कि यह वास्तव में इस मामले को लेकर संवेदनशील है। अमेरिका में भी बलात्कार व अन्य अपराध होते हैं, लेकिन लोगों को पता है कि उन्हें प्रशासन देख रहा है और अपराधी जल्द गिरफ्तार होंगे। क्या भारत में ऐसी स्थिति है? आंदोलनकारी अभी भी आंदोलन चला रहे हैं, लेकिन बलात्कार और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की खबरें चारों तरफ से लगातार आ रही हैं। जाहिर है अपराधियों को प्रशासन का तनिक भी डर नहीं है। लोगों ने प्रशासन में अपना भरोसा खो दिया है। सड़कों पर हो रहे विरोध प्रदर्शनों से यह स्पष्ट है। सरकार को यह दिखाना होगा कि वह इस तरह के अपराधों के प्रति बहुत संवेदनशील है और वह इसे तनिक भी बर्दाश्त करने वाली नहीं है। इस समय सरकार की प्राथमिकता प्रशासन में लोगों के विश्वास को फिर से बहाल करने की होनी चाहिए। उसे प्रशासन को बेहतर बनाना होगा। यह उसकी आज सबसे बड़ी चुनौती है।
सरकार की दूसरी चुनौती दुनिया में भारत की छवि को बेहतर बनाने की है। अनेक देशों ने अपने नागरिकों को सुझाव दे डाले हैं कि वे भारत की यात्रा से परहेज रखें। लोगों के असंतोष को मीडिया लगातार दुनिया के सामने ला रहा है। इसके कारण स्थिति और भी बदतर हो गई है। दुनिया में यह खबर फैल गई है कि भारत में कानून और व्यवस्था की स्थिति बेहतर करने के लिए अभी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। ऐसा करने में सरकार को अभी समय लगेगा।
तीसरी चुनौती न्यायिक सुधार की है। सुप्रीम कोर्ट बार बार कह रहा है, लेकिन सरकार इस दिशा में आगे बढ़ नहीं रही है। अदालत में मुकदमों का ढेर लगा हुआ है और एक मुकदमे पर फैसला आने में बहुत ज्यादा समय लग रहा है। जजों के हजारों पद खाली पड़े हुए हैं। सीबीआई तक जांच के बाद कमजोर मुकदमे बनाती है, जिसके कारण दोषियों को सजा ही नहीं मिलती और यदि मिलती भी है, तो वह बहुत ही कम समय के लिए मिलती है।
चौथी चुनौती शैक्षिक सुधार की है। इसमें कोई शक नहीं कि शिक्षा व्यवस्था में व्यापक बदलाव की जरूरत है। बच्चों को बचपन से ही नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए। देश का नैतिक तानाबाना लगातार बिखरता जा रहा है। इसे बचाने की जरूरत है। बच्चों को महिलाओं का सम्मान सिखाया जाना चाहिए। हमारे देश में शक्ति का कल्ट अभी जिंदा है।
पांचवी चुनौती सामाजिक दृष्टिकोण से संबंधित है। समाज का अपने वर्तमान रवैये को बदलना पड़ेगा। सबसे पहले तो बलात्कार पीडि़त पर लगाए जाने वाले लांक्षण को समाप्त किया जाना चाहिए। परिवार की ओर से पीडि़ता को ज्यादा से ज्यादा सहारा मिलना चाहिए। परिवार के सदस्यों और अन्य रिश्तेदारों को किसी बलात्कारी के बचाव में नहीं आना चाहिए, भले ही वह बलात्कारी परिवार का सदस्य अथवा कोई रिश्तेदार हो। आंकड़े बताते हैं कि छोटे बच्चियों के बलात्कार के मामले में ज्यादा उनके जान पहचान वाले ही जिम्मेदार पाए गए हैं। परिवार का ध्यान रखते हुए इस तरह के मामले को रफा दफा कर दिया जाता है। यदि बलात्कारी को एक बार छोड़ दिया गया, तो आने वाले समय में वह और भी बलात्कार करेगा।
छठी चुनौती घिसे पिटे पुराने कानूनों को बदलने की है। यह बहुत विचित्र किंतु सत्य है कि यदि दो या तीन साल की किसी बच्ची के साथ बलात्कार होता है, तो उसकी मां की सेकंडरी गवाह माना जाता है। सवाल उठता है कि दो साल की बच्ची बलात्कार का गवाह कैसे दे सकती है? इस तरह के बेतुके प्रावधानों को बदले जाने की जरूरत है। इसके अलावा वर्तमान कानूनों को लागू किए जाने की भी जरूरत है। (संवाद)
समाज बदले बिना बलात्कार नहीं रुकेंगे
शर्मींदगी का बोझ पीडि़ता पर नहीं, बल्कि बलात्कारियों पर हो
कल्याणी शंकर - 2013-01-04 13:26
विलियम सेक्सपीयर के नाटक जुलियस सीजर में ब्रुटस अपने दोस्त कैसियस से कहता है कि जनहित में जुलियस सीजर को रोम का राजा बनने से रोका जाना चाहिए। कैसियस उसे समझाता है कि दोष हमारे सितारे में नहीं, बल्कि हममें है कि वैसा होने से रोक नहीं सकते। आज के संदर्भ में यह कथ्य कितना सार्थक है! समस्या का समाधान हमारे अंदर है, कहीं और नहीं।