एक लड़की के साथ वीभत्स हिंसाजनक सामूहिक बलात्कार ने मानो देश को झंकृत कर दिया है और चारों ओर से लोग बिना किसी आह्वान एवं नेतृत्व के सड़कों पर उतरे। जो सरकार कुछ दिनों पूर्व तक इससे निरपेक्ष थी उसे होश आया और उसने कई स्तरों पर इसका इतना सक्रिय संज्ञान लिया है, जिसकी पूर्व में अपेक्षा तक कठिन थी। दोनों वर्ष के संक्रमण वेला का यह मूलभूत अंतर सामान्य नहीं है।
आखिर यह देश में पहली बार हुआ जब जघन्य कांड के उद्वेलन ने पूरे देश में लोगांे को सड़कों पर ला दिया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि चरम आक्रोश और क्षोभ के बावजूद प्रदर्शनकारी अहिसंक और संतुलित रहे। अप्रैल और अगस्त 2011 में अन्ना हजारे के अनशन के दौरान उमड़े जन समूह को उनके नेतृत्व का चमत्कार माना गया था, पर आज किसके आभामंडल से ये सड़कों पर उतरे? जाहिर है, तब का विश्लेषण त्रुटिपूर्ण था। साफ है कि समाज के अंदर भिन्न कारणों से असंतोष और गुस्सा घनीभूत हो रहा है और जहां भी उसके प्रस्फुटन की नसों पर दबाव पड़ता है वह बाहर आ जाता है। इसके पीछे शत प्रतिशत सुचिंतित तार्किकता नहीं हो सकती। 17 दिसंबर 2012 से लगातार प्रदर्शनकारियों में से अनेक के वक्तव्य हमें अव्यावहारिक, या भावुकतापूर्ण लग सकते हैं, पर ये अस्वाभाविक कतई नहीं हैं। उनके अंदर व्यवस्था, व्यवस्था संचालक के रुप में चिन्हित संस्थाओं और व्यक्तियों के प्रति गुस्सा है, क्षोभ है, और इनमें बदलाव की चाहत है...। लेकिन बात यदि यहीं तक सीमित होती तो शायद उम्मीद का कारण बलशाली नहीं होता। इस चाहत को सड़कों पर आकर सामूहिक रुप से अभिव्यक्त करने और उस पर अड़ने का जो पहली नजर में अविश्वसनीय चरित्र दिखा है वह उम्मीद को मजबूत आधार प्रदान करता है। 2011-12 में इसकी झलक मिली थी जिसे पहचानने में सत्ता प्रतिष्ठान से लेकर राजनीतिक समुदाय एवं विश्लेषक एक हद तक चूके। इसी चूक के कारण जो सोच बनी वह निर्भया के साथ सामूहिक दूराचार के बाद उभरे विद्रोह के दौरान प्रकट हुई। गृहमंत्री का यह बयान कि हर आंदोलन पर सरकार बात करने तो नहीं जा सकती, उसी मनोस्थिति का द्योतक था। किंतु, यह कोई भी देख सकता है कि इस नए ज्वार ने पूरे सत्ता प्रतिष्ठान और विश्लेषकों को नए सिरे से अपनी सोच में संशोधन करने को बाध्य कर दिया।
आखिर ना नुकूर करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश को संबोधित किया। निर्भया की मृत्यु की खबर आते ही राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, प्रधानमंत्री एवं कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने भी देश के नाम संदेश दिया। बलात्कार पीडि़ता का शव भारत की धरती पर उतरा और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एवं कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी वहां श्रद्धांजलि तथा संतप्त परिवार को सांत्वना देने के लिए मौजूद थे। इस बीच सरकार ने जो निर्णय लिए उन सबकी चर्चा आवश्यक नहीं। कहने का तात्पर्य यह कि चाहे सड़कों पर उतरे जन समुदाय में बदलाव क्या हो, कैसे हो... इन गंभीर प्रश्नों में गहन मंथन करने वाले भले अत्यल्प हैं, पर उनके तेवर ने सत्ता और राजनीतिक प्रतिष्ठान का मनोविज्ञान बदला। सत्ता के अब तक के रवैये को देखते हुए क्या यह कल्पना की जा सकती थी कि सुबह सवा तीन बजे प्रधानमंत्री एवं कांगे्रस अध्यक्षा हवाई अड्डे पर उपस्थित रहेंगे? यह केवल प्रदर्शनकारियों के दबाव का परिणाम है। निश्चय ही लोगों की दृढ़ता ने हर स्तर के जड़ मनोविज्ञान को धक्का दिया है। आखिर कौन कल्पना कर सकता था कि ऐसे लोग जिन्हें क्षणिक भावावेश में सड़कांें पर उतरा मान लिया गया था वे रात-दिन वहां डटे रह जाएंगे? समाशास्त्री उनके वर्ग चरित्र का अपने दृष्टिकोण से विश्लेषण कर सकते हैं, पर जिस मध्यमवर्गीय और एलिट वर्ग को हम बिल्कुल सुविधाभोगी मान बैठे थे उन परिवारों के लड़के-लड़कियों के इस संकल्प से जो संदेश निकल रहा है उसकी परिभाषा भी नए सिरे से गढ़नी होगी।
तो जिस 2013 का आगाज ऐसा हो उसका क्रमिक प्रयाण और अंत इस मायने में तो निराशानक नहीं हो सकता। अचानक लोगों की भावनाएं खत्म हो जाएंगी, उनका जज्बा मर जाएगा, उनका संकल्प क्रमिक क्षरण का शिकार हो जाएगा और फिर वे जैसे को तैसे सब कुछ छोड़कर अपनी मौज मस्ती या फिर जो कुछ जैसा है उसे नियति का चक्र मानकर और यह सोचते हुए कि अनुकूल बदलाव संभव नहीं अपनी परिधि में सिमट जाएंगे, कम से कम आज तो ऐसी कल्पना नहीं ही की जा सकती है। हां, यह क्या रूप लेगा, ंआगे अन्य मुद्दों, घटनाआंे पर इसका स्वरुप क्या होगा... आदि पर कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। पर 2012 के अंत और 2013 के आरंभ का यह जन उद्वेलन इस समय आगे और प्रचंड होने का ही संकेत दे रहा है। अगर सत्ता प्रतिष्ठान यानी सरकारों का राजनीतिक नेतृत्व एवं सरकारी अधिकारी/कर्मचारी इस संकेत को पढ़ें तो उनके सामने जन भावनाओं को समझने और सत्ता के अंदर व्यापक सुधार के साथ निजी एवं सार्वजनिक आचरण में परिवर्तन की आवश्यकता झलकने लगेगी। न वे इसे नजरअंदाज करने की स्थिति में हैं और न संाकेतिक कदमों या वक्तव्यों से इन्हें शांत कराने की संभावना ही दृष्टिगोचर हो रही है। अखिर लोगों के अंदर अनेक कारणों से असंतोष घना हुआ है और उनमें उबाल भी है इसका इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है। सत्ता प्रतिष्ठान और राजनीतिक समुदाय यदि इसे अपने नजरिए की तार्किकता से परखने लगेगा, उनके वक्तव्यों को अपने तर्को की कसौटी पर कसने लगेगा तो भयावह सच सामने होते हुए भी नहीं दिखेगा। उम्मीद करनी चाहिए कि सत्ता प्रतिष्ठान एवं पूरा राजनीतिक समुदाय अब इस उद्वेलन को सकारात्मक नजरिए से लेकर जो भी बदलाव संभव हो करने की पहल आरंभ करेगा। असंतोष और आक्रोश को समझना तथा उसके निराकरण का उपाय करना इनका दायित्व है। ये ऐसा करें तो 2013 नए दौर के शुरुआत का आधार भी बन सकता है। इस प्रकार 2013 के जन उबाल का यह दस्तक उनके चेतने का अवसर है।
लेकिन दूसरी ओर इसमें चिंता के पहलू भी निहित हैं। बहुआयामी भिन्न- भिन्न उम्मीदों, अपेक्षाओं के कारण असंतोष और गुस्से की अराजकता को एकाकार करना हमेशा कठिन होता है और उनके निराकरण के उपायों पर गंभीर मंथन के अभाव में हमेशा उद्वेलन के भी अराजक होकर भटकने का खतरा सन्निहित होता है। सत्ता भावनाओं के अनुसार देखने की जगह इसका लाभ उठाने की रणनीति बनाता है और फिर वैसा घटित होेने लगता है जो नहीं होना चाहिए। इसलिए राजनीतिक एवं गैर राजनीतिक दोनों स्तरों पर इसका संज्ञान लेकर ऐसी तत्परता बरती जानी चाहिए ताकि अराजक भटकाव की स्थिति बने। अरब देशों के उद्वेलन का परिणाम आज तक उम्मीदों के अनुरुप नहीं रहा। यहीं पर कुशल, ईमानदार, दूरदर्शी और संकल्पबद्ध नेतृत्व की आवश्यकता उत्पन्न होती है। 2013 की शुरुआत और 2012 का अंत ऐसे नेतृत्व के अभाव को शिद्दत से महसूस करा रहा है। बिना नेतृत्व के इनका सड़कों पर उतरना, एक दूसरे से अपरिचित होते हुए भी अहिंसक और संकल्पबद्ध रहना, सबका एक दूसरे से सहयोग करना... आदि अनेक पहलू उम्मीदें पैदा करते हैं, पर भय यही है कि एकल या सामूहिक नेतृत्व की अनुपस्थिति से कहीं यह उम्मीद वर्ष के अंत तक टूटने न लगे। कामना तो यही होगी कि काश ऐसा न हो और जैसा आगाज है अंत में उम्मीदों के रस्से ज्यादा मजबूत होते दिखें। इस कामना को साकार करने का दायित्व हम सबका है। (संवाद)
वर्ष के आगाज की यह उम्मीद
अंत निराशानक नहीं हो सकता
अवधेश कुमार - 2013-01-07 13:15
वर्ष 2012 का अंत अगर हमारे देश की बेटी की भयानक त्रासदी के साथ हुई तो दूसरी ओर इसके विरुद्ध देश भर में उभरा आक्रोश का परिदृश्य नए वर्ष के लिए बेहतर उम्मीद भी जगा रहा है। अगर 2011 के अंत एवं 2012 की शुरुआत को याद करें तो उस समय मुंबई में अन्ना हजारे और उनके साथियों के अनशन में जन समर्थन के अभाव से निराशा का माहौल पैदा हो गया था। उनके साथियों ने यह वक्तव्य दिया था कि हमारा आंदोलन इस समय निराशाजनक स्थिति में है और लोग सुझाव दें कि हम आगे क्या करें। सरकार और सरकारी पार्टी उस अभियान का उपहास उड़ा रही थी। यानी 2011 का अंत तथा 2012 की शुरुआत जनांदोलन एवं परिवर्तन के लिए बाध्यकारी दबाव की दृष्टि से निराशाजनक था। 2012 के अंत एवं 2013 की शुरुआत में स्थिति उलट है।