पुलिस की पीसीआर वैन पहले यह विचार करती रही कि इस मामले को कौन थाना देखेगा और अस्पताल की तो मानो कोई सरोकार ही नहीं। किंतु महानगरों में किसी दुर्घटना, या ऐसी आकस्मिक विपत्ति के समय आम नागरिकों, पुलिस और अस्पताल के व्यवहार के कटु अनुभवों से वाकिफ लोगों के लिए इसमें आश्चर्य जैसा कुछ है ही नहीं। आज का क्रूर और डरावना सच यही है कि हमारा पूरा समाज ही सन्निपात से ग्रस्त है और उसका दुष्परिणाम न जाने दामिनी की तरह कितने लोग भुगतने को अभिशप्त हैं।

नागरिक समाज की चर्चा बाद में पहले पुलिस। दामिनी के साथी का साक्षात्कार सामने आने के बाद देश में एक साथ करुणा और क्षोभ का जो माहौल है उसमें उम्मीद थी कि पुलिस सार्वजनिक रूप से अफसोस व्यक्त करते हुए जिम्मेवारी का पालन न करने वाले पुलिसकर्मियों के और अस्पताल प्रशासन के खिलाफ भी उपयुक्त कानून की धारा में मुकदमा दर्ज करेगी। लेकिन देखिए, पुलिस के अंदर ताकत का कैसा मद और कितनी हठधर्मिता है। साक्षात्कार लेने वाले चैनल पर ही मुकदमा जड़ दिया। ऐसे माहौल में जब पूरे देश में पुलिस के खिलाफ माहौल है, वह ऐसा दुस्साहस कर सकती है, तो सामान्य स्थिति में उसका व्यवहार कैसा हो सकता है! आखिर उस नवजवान ने जिस निर्दोष, निद्र्वंद्व हाव-भाव में अपनी बात कही उसमें किसी के प्रति दुर्भावना या विरोध की सोच का रंच मात्र हो ही नहीं सकता। उसका साक्षात्कार पूरे समाज की आंख खोलने वाला है और इस नाते यह परमावश्यक था। मृतका तो चली गई। हमारे सामने तो उन क्रूरतम क्षणों का साक्ष्य वही है। जिस मामले ने भारत ही नहीं दुनिया को झकझाऱा, अनेक देशों में नागरिक सड़कों पर आए, संयुक्त राष्ट्रसंघ तक को प्रतिक्रिया व्यक्त करनी पड़ी, उसका सच तो चाहे जिस माध्यम से हो सामने आना ही चाहिए। पुलिस द्वारा चैनल के खिलाफ पीडि़त की पहचान सार्वजनिक करने सहित कुछ अन्य धाराओं के तहत मामला दर्ज किया जाना केवल आपत्तिजनक नहीं अक्षम्य आपराधिक व्यवहार है। वास्तव में उस युवक के साक्षात्कार से मुकदमे पर किसी तरह का बुरा प्रभाव नहीं पड़ना है, इसलिए पुलिस के इस रवैये का कोई वाजिब कारण है ही नहीं। इससे यह आभास मिलता है कि पुलिस प्रणाली को मानवीय और संवेदनशील बनाने के लिए अभी कितना कुछ किए जाने की आवश्यकता है।

जब दिल्ली पुलिस अपराध विभाग के संयुक्त आयुक्त विवेक गोगिया बयान देने आए तो उनके चेहरे पर अफसोस का भाव तो दूर आपबीती सुनाने वाले युवक के इरादे को कठघरे में खड़ा करने की मंशा झलक रही थी। वे केवल उसके वक्तय को अपने बनाए तथ्य से खंडन करने आए थे। मसलन, इतने बजे काॅल हुई, इतने बजे पहली और फिर दूसरी पीसीआर वैन पहुंची और इतने मिनट के अंदर सफदरजंग अस्पताल पहुंच गई। यानी कुछ भी गड़बड, गैर जिम्मेवार, अमानवीय़ नहीं हुआ। वाह रे दिल्ली पुलिस! उस लड़के का यही न कहना है कि बस से फंेके जाने और अस्पताल आने में करीब ढाई घंटे लग गए। क्या इसमें कुछ मिनट आगे पीछे का हिंसाब किया जाएगा? दिल्ली पुलिस के लिए यह मामला कांड संख्या 413/12 है और उसमें पुलिस ने सब कुछ सही किया और यही नहीं अन्य मामलों में भी पुलिस हमेशा सही करती है। वह तो लोग झूठे हैं जो पुलिस को आरोपी बनाते है। पीसीआर वैन थाने की सीमा के आधार पर मामले को हस्तांरित करती है। वास्तव में पुलिस महकमा कुछ अपवादों को छोड़कर ऐसे ही जीवनहीन यांत्रिक तरीके से काम करता है। कोई कंपकपाती ठंढ में नंगे सड़क पर फेंका गया या दुर्घटनाग्रस्त हो तो पुलिस का पहला दायित्व यही है कि तत्क्षण उसे उपुयक्त निकट अस्पताल पहुंचाए, फिर घटना का पता करे। ऐसा प्रायः नहीं होता। उस लड़के को भी मार पड़ी थी, उसकी हड्डियां टूटी हुई थी, पर उसने खून से लथपथ लड़की को पीसीआर वैन में रखा....। और पुलिस ने सफदरजंग अस्पताल में ले जाकर उसे इमर्जेंसी वार्ड में छोड़ दिया। पीसीआर की भूमिका यहीं खत्म और थाने की शुरू।

कम से कम दिल्ली पुलिस यही घोषणा कर देती कि मामले की जांच कराकर दोषियों को सजा दी जाएगी तो थोड़ा संतोष होता, पर अपना इतना बड़ा अपराध और दूसरे पर मुकदमा! यह प्रश्न पहले दिन से उठ रहा है कि उतने गंभीर मरीज को सीधे ट्राॅमा केन्द्र ले जाने की बजाय सफदरजंग अस्पताल पुलिस क्यों ले गई? खैर, यहां से अस्पताल की भूमिका आरंभ होती है। कौन नहीं जानता कि दुर्घटना या ऐसी किसी आकस्मिक अवस्था में जाने पर अस्पतालों का आम रवैया कैसा होता है। सफदरजंग तो लापरवाही और मरीजों को वापस करने के मामले में कुख्यात है। वहां इंटर्न रहे लोग जो आज कहीं डाॅक्टर हैं आफ द रिकाॅर्ड बताते हैं कि रेफर मरीज तक को वापस करना पड़ता था, क्योंकि यही आदेश था। आपने भर्ती कर लिया तो पूछा जाता कि तुमने ऐसा क्यों किया? उस युवक का इलाज अभी तक चल रहा है, शारीरिक भी और मानसिक भी, लेकिन अस्पताल ने उसे कुछ घंटे में ही बाहर कर दिया। क्यों? क्या दिल्ली की मुख्यमंत्री को सफदरजंग या ऐसे अपने कुछ दूसरे अस्पतालों की मुजरिमाना लापरवाही का इल्म नहीं? मरीज के बदन से खून बह रहा हो, जाड़ा का समय और उसमेें उनके शरीर को आधे घंटे तक ढंकने की जहमत जो अस्पताल नहीं उठाता उसे अस्पताल कहलाने का अधिकार ही नहीं होना चाहिए। उस समय ड्युटी पर उपस्थित डाॅक्टर, नर्स और अस्पताल अधीक्षक पर मामल दर्ज कर गिरफ्तार किया जाना चाहिए। ऐसा ही अमेरिका, यूरोप या हमारे पड़ोसी चीन के अस्पताल में हुआ होता तो न जाने कब की कार्रवाई हो गई होती और पुलिस वाले भी सुनवाई का सामना कर रहे होते।

लेकिन जब हमारा नागरिक समाज ही सन्निपात का शिकार हो जाए तो पुलिस, प्रशासन और अस्पतालों को कर्तव्यपरायण और संवेदनशील बनाए कौन! जरा युवक की सुनिए। वह कह रहा है कि उसने गुजर रहे लोगों को रोकने की कोशिश की, लेकिन लोग उन्हें देखकर भी गुजरते रहे। वह कपड़े के लिए ऐंबुलेंस बुलवाने और पुलिस को फोन करने का अनुरोध करता रहा, पर कोई आगे नहीं आया। गुजरती गाडि़यां रुकवाने की कोशिश में धीमी होतीं और आगे बढ़ जाती। 25 मिनट की कोशिशों के बाद एक शख्स वहां रुका। फिर पीसीआर को फोन किया और पीसीआर आई।’ युवक कह रहा है कि मेरी दोस्त को बहुत ज्यादा खून बह रहा था, पर कोई वैन में रखने के लिए मदद करने नहीं आया। आखिरकार उसने ही किसी तरह उठाकर उसे पीसीआर वैन की सीट पर लिटाया। स्वयं घायल व्यक्ति को दूसरे ज्यादा घायल को वैन में रखना पड़ रहा है, वहां लोग खड़े हैं, पुलिस खड़ी है, पर खून न लग जाए इसलिए सब तमाशबीन! इस रोंगटे खड़ा कर देने वाले विवरण के बाद क्या भारतीय समाज के विखंडन, और मानसिक अधोपतन को स्वीकारने को लेकर कोई संकोच रह जाता है! यही तो सन्निपात है। महानगरों या हाईवे पर यह आम व्यवहार है।

तो ऐसे हैं हम और हमारा समाज! हम क्रांतिवीर बनकर बर्बर दुष्कर्म करने वालांे को फांसी देने की मांग कर रहे हैं और ऐसा कानून बन भी जाएगा। लेकिन क्या इससे सम्पूर्ण अपराध का न्याय हो जाएगा? क्या आगे ऐसा न होने का सुनिश्चित आश्वासन भी मिल जाएगा? यहां अपराधी तो पुलिस, अस्पताल और वे सारे लोग भी हैं जो इन्हें छटपटाता और मदद की गुहार लगाता देख गुजरते चले गए या जो रुककर भी तमाशबीन बने रहे। इन सबके लिए हम क्या सजा निर्धारित करेंगे? जो देश ही सन्निपातग्रस्त हो गया हो, जिस देश में ऐसा भीरू, अपने दड़बों में सिमटने और ऐसी आपराधिक त्रासदी में भी आम नागरिक दायित्व से बचने का चरित्र वाला समाज होगा वहां हम बेहतर की उम्मीद ही नहीं कर सकते। इसीलिए विरोध प्रदर्शनों में जितनी भी स्वाभाविकता हो, सरकार एवं प्रशासन मान बैठा है कि लंबा संगठित विरोध आंदोलन हो ही नहीं सकता। फलतः वह निरपेक्ष या विरोधी रवैया अख्तियार कर लेती है। पुलिस इतना दुस्साहस कैसे कर रही है? क्या वह युवक यह गलत कह रहा है कि मीडिया नहीं उछालता तो यह भी एक आम केस की तरह दब जाता? पुलिस एवं अस्पताल का आरंभिक व्यवहार वैसा ही है। केवल दामिनी नहीं, ऐसी दुर्घटना या बर्बर अपराध का शिकार होने वालों के साथ प्रायः ऐसा होता है। समय पर उचित इलाज न होने पर अत्यधिक खून का रिसाव, संक्रमण का विस्तार और चोट के फैलने से ही उनकी मृत्यु होती है, पर इसमें सुधार की केवल बात होती है, व्यवहार वैसा ही है। सन्निपातग्रस्त देश ही तो ऐसा व्यवहार कर सकता है। (संवाद)