मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान का सीधी के गांव ढरिया जाकर सुधाकर की अंत्येष्टि में भाग लेना, उनकी अर्थी को कंधा देना ऐसा दृश्य था जिसमें उनके विरोधियों को भी स्वाभाविकता व ईमानदारी दिखी। मध्यप्रदेश सरकार ने प्रदेश के सिपाही के मारे जाने की सूचना मिलते ही सहायता की घोषणा भी कर दी। यही उत्तर प्रदेश में नहीं हुआ। हेमराज की अंत्येष्टि में न कोई मंत्री शामिल हुआ और न तत्काल मुख्यमंत्री ने कुछ सहायता या राहत की ही घोषणा की। केन्द्र सरकार का तो दोनों जगह प्रतिनिधित्व नहीं हुआ। अगर सरकार और समूचे राजनीतिक प्रतिष्ठान की ओर से हेमराज की अंत्येष्टि में उचित संवेदनशील प्रतिनिधित्व व सम्मान मिला होता तो फिर कहीं से कोई प्रश्न नहीं उठता। आखिर मध्यप्रदेश सरकार पर तो कोई प्रश्न नहीं उठ पाया। इसलिए जब अचानक खैरार में एक के बाद एक नेताओं का तांता लगा तो फिर प्रश्न भी उठने लगे।
निस्संदेह, नेताओं के जाने का तत्काल अच्छा असर हुआ। यह राहत की बात है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और सेना के बड़े अधिकारियों के आश्ववासन के बाद शहीद की मां और पत्नी ने छह दिनों से जारी अनशन तोड़ दिया। अगर वे वहां नहीं जाते तो उनका अनशन तुड़वाना कठिन होता और इसका केवल उनके अंदर ही नहीं, समूची सेना के बीच गलत संदेश जाता। अखिलेश यादव द्वारा हेमराज के परिवार को 20 लाख तथा किसान बीमा फंड से 5 लाख रुपये देने का भी संदेश अच्छा निकला है। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि हम तुम्हारे थे और तुम्हारे ही रहेंगें। मुख्यमंत्री का जाकर गांव वालों के बीच बैठना भी उनके क्षोभ को शांत करने वाला था। वहां पहुंचे केद्रींय रक्षा राज्य मंत्री कुंवर भवर जितेंद्र सिंह ने केन्द्र द्वारा 41 लाख रुपया, हेमराज को वीरता पुरस्कार, परिवार के दो सदस्यों को नौकरी तथा गैस एजेंसी या पेट्राॅल पंप देने की जो घोषणा की उससे भी माहौल बदला। ध्यान रखने की बात है कि केन्द्र की घोषणा हेमराज के साथ सुधाकर और उनके परिवार के लिए भी है। इसके अलावा जम्मू कश्मीर सरकार ने भी दोनों को 5-5 लाख रुपया देने की घोषणा की है। रक्षा राज्यमंत्री ने कहा कि हेमराज को वापस तो नहीं लाया जा सकता परंतु भारत सरकार शहीद के परिवार के साथ है। इसी प्रकार विपक्षी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी, लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह आदि के पहुंचने से भी माहौल सामान्य हुआ है। गम, उदासी और बेरुखी से खिन्न परिवार व आसपास के गांवों के लोगों के चेहरे पर राहत व संतोष कोई भी महसूस कर सकता था।
देश की सीमा की रक्षा करते हुए कोई मारा जाए तो वर्तमान राज ढांचे में उसको पूरा सम्मान तथा उसके परिजनों को हर संभव सहायता मिलना चाहिए और ऐसा राजनीतिक नेतृत्व ही कर सकता है। यह स्वीकारने में कोई समस्या नहीं है कि हेमराज के घर बड़े राजनेताओं के पहंुचने से सीमा रक्षा पर डटे अन्य सिपाहियों को भी यह संदेश मिला होगा कि अगर उनके साथ कुछ अनहोनी हुई तो भी उनके परिवार को आर्थिक सहायता व पूरा सम्मान मिलेगा। वाकई वहां अधिकतर पार्टी के नेताओें के पहुंचने से यह माहौल तो बना ही है कि पूरा देश उनके साथ है। लेकिन इसका दूसरा पहलू ऐसा नहीं है। उ. प्र. के मुख्यमंत्री का कहना है कि पहले से कुछ कार्यक्रम तय था, इसी कारण आने मंे देरी हुई। मुख्यमंत्री का कार्यक्रम तो पहले से निर्धारित रहता ही है, लेकिन ऐसी परिस्थितियों में उसमें फेरबदल आसानी से किया जा सकता है। वैसे भी यह शांतिकाल में हमारे जवान के शहीद होने के साथ उसके मानमर्दन का अत्यंत संवेदनशील मामला है। हेमराज का सिर काट लिए जाने से केवल उनके परिवार ही नहीं पूरे देश में जो गुस्से का माहौल बना हुआ है उसमें मुख्यमंत्री के लिए कम से कम अंत्येष्टि तो प्राथमिकता होनी ही चाहिए। यही बात केन्द्र सरकार पर भी लागू होती है। आखिर दोनों सरकारों को वहां पहुंचने में पांच दिन लग गए। इसके लिए दिया गया कोई तर्क गले नहीं उतर सकता। इसीलिए अगर यह कहा जा रहा है कि मुख्यमंत्री या केन्द्रीय मंत्री वास्तव में दबाव में विवश होकर गए तो इसे सहसा खारिज नहीं किया जा सकता।
यहीं पर हमारे राजनीतिक नेतृतव की सोच, मंशा और एप्रोच तीनों प्रश्नों के घेरे में आ जाते हैं। ऐसा परिदृश्य दिखा है मानो सारे नेता बने हुए माहौल का राजनीतिक लाभ उठाने के लिए वहां गए या जा रहे हैं। सुषमा स्वराज से जब अंत्येष्टि में न आने संबंधी प्रश्न पूछा गया तो उन्होंने कहा कि केन्द्र ने सूचना नहीं दी अन्यथा वे अवश्य आतीं। हो सकता है कि केन्द्र सरकार के सूचना देने पर भाजपा के दूसरे केन्द्रीय नेता भी वहां जाते, क्योंकि ऐसे मुद्दे ही उनके लिए सबसे ज्यादा अनुकूल होते है। पर जरा सोचिए, अंत्येष्टि की सूचना पूरे देश को थी, टी. वी. पर उसकी लाइव कवरेज भी हुई और भाजपा के नेताओं को केन्द्र सरकार के माध्यम से सूचना चाहिए थी! इस पर क्या टिप्पणी की जा सकती है। अगर भाजपा नेतृत्व यह मानता है कि उसे अंत्येष्टि में और अपने जवान के मानमर्दन से गम और क्षोभजदा परिवार व गांवों के साथ खड़ा होना चाहिए था, जो वह नहीं कर पाई तो शालीनता ही नहीं, ईमानदारी और नैतिकता का तकाजा यही था कि वहां तुरत स्वराज कहती कि उस समय न आना हमारी भूल थी जिसे हम सुधारना चाहते है। इसी तरह केन्द्रीय मंत्री से जब पूछा गया कि अंत्येष्टि में कोई क्यों नहीं आया तो उनका जवाब था कि जो लोग आए वे केन्द्र सरकार के ही प्रतिनिधि थे। वाह, क्या बात है। सीमा पर शहीद हुए सैनिक का शव लाने तथा उसकी अंत्येष्टि तक का बाजाव्ता प्रावधान है और उसमें सेना या सरकारी अधिकारी का होना अपरिहार्य है। इसे केन्द्र सरकार का प्रतिनिधित्व कहना गैर ईमानदारी और अशालीनता ही है।
चाहे केन्द्र व प्रदेश सरकार हो या विपक्ष, इस मामले में इनका व्यवहार चिंता ही पैदा नहीं करता, संवेदनशील व्यक्ति को चोट भी पहुुचंाने वाला है। उनकी जगह किसी बड़े नेता की दुर्घटना या हादसे में मृत्यु हो जाए तो इन्हीं नेताओं को वहां पहुंचने में कितना समय लगेगा? उसमें तो किसी के सूचना देने की आवश्यकता कोई महसूस नहीं करता। वैसा ही हमारे इन दो जवानों के मामले में नहीं दिखने का क्या अर्थ है? हम नहीं कहते कि देश के नागरिक होने, या फिर हमारे नेता होने के नाते सेना के शहीद होने या सिर काट लिए जाने के खिलाफ उनके अंतर्मन में दुःख व क्षोभ नहीं होगा, यह भी कहना उचित नहीं होगा इनमें से कोई उन्हें सम्मान देने का विरोधी होगा या उनके परिवार को उचित सहायता देने का पक्षधर नहीं होगा, पर त्वरित आचरण में जितनी स्वाभाविक स्पंदनशीलता और ईमानदारी दिखनी चाहिए थी, वह केन्द्र सरकार, केन्द्रीय विपक्ष एवं उत्तर प्रदेश सरकार में नहीं रही है। यह हर दृष्टि से दुर्भाग्यपूर्ण है। इसके बाद सुषमा स्वराज का यह बयान शायद वहां के माहौल के लिए और अपनी राजनीति के लिए उपयुक्त हो सकता है कि अगर अपने जवान का सिर नहीं ला सकते तो कम से कम दस पाकिस्तानी जवान का सिर तो लाओ, लेकिन विपक्ष की नेत्री के नाते ऐसे बयान का असर उन्हें समझना चाहिए था। ऐसे समय पूरे देश में आक्रोशित राष्ट्रवाद का भाव गहरा रहा हो, नेताओं का पहला दायित्व किसी तरह इसे युद्धोन्माद में परिणत होने से रोकना है। आखिर हमें यदि प्रनिेताअतकार भी करना है तो उसके लिए भी शांत और संतुलित माहौल में ही निर्णय करना होगा। हर देशवासी चाहेगा कि यह स्थिति बदले। हर घटना और मुद्दा राजनीतिक लाभ-हानि की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए। यह नहीं होना चाहिए कि आपने पहले तो अनदेखी की और जब लगा कि आगे की उपेक्षा राजनीतिक रुप से जोखिम भरी होगी या फिर विपक्ष इसे मुद्दा बना देगा तब आप सारा कार्यक्रम छोड़कर वहां पहुंचे। इसी प्रकार ऐसे समय जब देश में युद्धजनित भावना घनीभूत हो रही हो, बड़े नेताओं द्वारा बयानों पर संयम भी अपरिहार्य है। (संवाद)
शहीद के गांव नेताओं के कारवां
नेताओं का पहला दायित्व गुस्से को युद्धोन्माद बनने से रोकना है
अवधेश कुमार - 2013-01-19 18:25
हमारे राजनेता किसी शहीद सैनिक के घर जाएं, उनके परिवार की पीठ पर हाथ रखें इससे किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। इसलिए शहीद लांसनायक हेमराज या लांसनायक सुधाकर के परिवार को नेताओं द्वारा सम्मान देना सामान्यतः उचित मानना चाहिए। देश का नेतृत्व करने के नाते यह उनका दायित्व भी है। किंतु इसमें स्वाभाविक संवेदनशीलता तथा ईमानदारी दिखनी चाहिए।