सरकार के इस रवैये ने राजनैतिक पार्टियों को नाराज कर दिया है। वे पहले से ही इस मसले पर अपना धैर्य खो रहे थे। आखिर लोग कबतक इंजतार करते रहेंगे? तेलंगाना के लोग पिछले 50 सालों से अलग राज्य के लिए संघर्ष करते आ रहे हैं। आखिर कब तक वे अन्याय सहते रहेंगे? समाधान दो रुपों मंे हो सकता है। या तो तेलंगाना को पूर्ण राज्य का दर्जा मिले या विकास के लिए उस इलाके में ज्यादा से ज्यादा धन खर्च हो, रोजगार के ज्यादा से ज्यादा अवसर पैदा किए जाएं, सिंचाई की सुविधा बढ़ाई जाए और पीने का पानी ज्यादा उपलब्ध हो।

दरअसल अलग तेलंगाना राज्य के रास्ते में दो बहुत बड़ी बाधाएं है। पहली बाधा हैदराबाद को लेकर है, तो दूसरी जल बंटवारे को लेकर। हैदराबाद किधर जाएगा? यह एक बहुत ही अहम सवाल है, जिसका जवाब मिलना आसान नहीं। हैदराबाद भौगोलिक रूप से तेलंगाना का हिस्सा रहा है, जाहिर हैए वह इस पर दावा कर रहा है। पर रायलसीमा और आंध्रा के लोगों ने इस महानगर पर में भारी निवेश कर रखा है, इसलिए वे भी इस पर अपना दावा नही छोड़ सकते।

दूसरा बड़ा सवाल पानी के बंटवारे का है। कृष्णा और गोदावरी नदियों के पानी का बंटवारा किस फार्मूले के तहत होगा? तेलंगाना को उसमें कितना हिस्सा मिलेगा? इससे संबंधित जो भी समाधान सामने आकर पेश किए जाएं, उनपर दोनों पक्षों की सहमति होनी चाहिए।

2009 में तेलंगाना राज्य के लिए आंदोलन चलाने वाले टीआरएस का लगभग पुरी तरह सफाया हो गया था। 2004 में उसने यूपीए के अंग के रूप में चुनाव लड़ा था और तब उसे 5 लोकसभा सीटों पर विजय हासिल हुई थी। जब 2009 में राजशेखर रेड्डी दुबारा मुख्यमंत्री बनकर आए थे, तो उन्होंने प्रदेश की तमाम विपक्षी पार्टियों को कमजोर करना शुरू कर दिया था। यदि वे अकाल मौत के शिकार नहीं होते तो तेलंगाना आंदोलन और अलग राज्य की समस्या ही सामने नहीं आती। यह तो केन्द्र का कांग्रेसी नेतृत्व का कमाल है कि उसने तेलंगाना को बहुत बड़ी समस्या फिर से बना दिया। उन्होंने 9 दिसंबर 2009 को अलग तेलंगाना राज्य के गठन करने का एलान कर दिया। उस एलान के बाद फिर शुरू हुई उसकी टालमटोल। इसके लिए उसने एक श्रीकृष्ण आयोग का गठन कर डाला। आयोग ने अपनी तरफ से 6 विकल्प सुझा डाले। पर केन्द्र सरकार के पास फिलहाल एक ही विकल्प है और वह है टाल मटोल का विकल्प।

ऐतिहासिक रूप से आंध्र प्रदेश के उत्तरी इलाके के 10 जिले, जो तेलंगाना में जाएंगे, तेलुगू राज्य के हिस्से रहे हैं। बहमन शासकों के समाप्त होने के बाद 1565 में यह निजाम के कब्जे में आया। आंध्र प्रदेश का शेष हिस्सा ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा था। बाद में आंध्र प्रदेश की सरकारों ने इस क्षेत्र के विकास के लिए कुछ भी नहीं किया। प्रदेश में दो बड़े आंदोलन हुए। पहला था तेलंगाना आंदोलन तो दूसरा था आंध्र आंदोलन। आंध्रा आंदोलन के बाद 1972 में 6 सूत्री फार्मूला सामने आया, जिसके तहत पूरे प्रदेश को 7 जोन में विभाजित कर दिया गया। राजधानी हैदराबाद को इनसे अलग रखा गया।

इस फार्मूले के बाद चेन्ना रेड्डी ने अलग तेलंगाना राज्य के आंदोलन का त्याग कर दिया और अपनी तेलंगाना प्रजा समिति का कांग्रेस में विलय कर दिया। वे 1978 में कांग्रेस के मुख्यमंत्री भी बन गए। 1990 के दशक के मध्य तक अलग तेलंगाना राज्य का आंदोलन दबा रहा। उस दौरान चंद्रशेखर राव ने टीआरएस का गठन किया और तेलंगाना राज्य की मांग करते हुए फिर से आंदोलन होने लगे।

तेलंगाना राज्य की मांग केन्द्र के लिए एक विकट समस्या है। यदि केन्द्र सरकार अलग तेलंगाना का समर्थन कर देती है, तो देश के अनेक हिस्से में अलग राज्य की मांग करते हुए आंदोलन होने लगेंगे। गोरखालैंड, सौराष्ट्र, विदर्भ, पूर्वांचल, बुंदेलखंड और बोडोलैंड जैसे राज्यों की मांग के लिए देश भर में लोग आंदोलित हो जाएंगे। इसके साथ साथ देश के विघटनकारी तत्वों के भी फिर से खड़ा हो जाने का खतरा है। (संवाद)