उसके हिंदुत्व एजेंडे में अयोध्या की बाबरी मस्जिद के स्थल पर राम मंदिर के निर्माण का एजेंडा सबसे ऊपर रहा है, हालांकि राजग के शासनकाल में उसने गठबंधन सहयोगियों के साथ एक समझौते के तहत अपने हिंदुत्ववादी एजेंडे को सरकार का एजेंडा बनने नहीं दिया था। इसके बावजूद जब जब चुनाव हुए हैं, पार्टी ने राम मंदिर के मसले को भुनाने की कोशिश की है। हालांकि सच यह भी है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद राम मंदिर का मसला इसके लिए बहुत सहायक नहीं रहा है।
मंदिर आंदोलन पर भाजपा को सबसे बड़ी सफलता उत्तर प्रदेश में 1991 के विधानसभा चुनाव में मिली थी। उस समय उसे प्रदेश में पूर्ण बहुमत हासिल हुआ था और तब कल्याण सिंह की सरकार बनी थी। इस मसले का सबसे ज्यादा फायदा पार्टी को उत्तर प्रदेश में ही होना है। इसलिए यह जानना दिलचस्प होगा कि मस्जिद ढहाने के बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पार्टी का ग्राफ लगातार नीचे गिरता गया। बाद के कुछ विधानसभा चुनावों तक भाजपा बहुमत में नहीं आने के बावजूद सबसे ज्यादा सीटें लेकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरती रही, लेकिन बाद में उसने अपना यह रुतबा भी खो दिया। यह सच है कि 1999 तक हुए लोकसभा चुनावों में पार्टी को उत्तर प्रदेश में शानदार सफलता मिला करती थी। उसे प्रदेश की 85 में से 55 से 60 सीटें तक मिली थीं। लेकिन लोकसभा में मिली उसकी वह सफलता अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रियता का परिणाम थी, न कि राम मंदिर आंदोलन का कोई नतीजा। यही कारण है कि लोकसभा में तो पार्टी को बेहतर परिणाम मिलता था, पर विधानसभा चुनाव में वह बेहतर नहीं कर पाती थी। सत्ता मंे आने के लिए उसे बसपा की मायावती से बार बार हाथ मिलाना पड़ता था। उसने इसके लिए मायावती को तीन बार प्रदेश का मुख्यमंत्री भी बनाया। मायावती से उसका अनुभव कभी भी अच्छा नहीं रहा। कभी मायावती उसे धोखा देती थी, तो कभी वह मायावती को धोखा देती थी।
मायावती के साथ उसका खेल उस पर भारी पड़ा और एक समय आया, जब पार्टी प्रदेश की तीसरे नंबर की पार्टी बन गई। यह 2002 के विधानसभा चुनाव में हुआ, जब पार्टी राजनाथ सिंह के नेतृत्व मंे वह विधानसभा चुनाव लड़ रही थी। उस समय श्री सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उस चुनाव के बाद भाजपा ने बसपा की मायावती को एक बार फिर मुख्यमंत्री बनवाया, लेकिन तबतक उसके हाथ से प्रदेश की राजनीति खिसक चुकी थी। 2004 के लोकसभा चुनाव में भी पार्टी की भद पिट गई और पार्टी को 10 के आसपास सीटंे ही मिल पाई थीं। इस बीच चुनावों के दौरान पार्टी किसी न किसी रूप में राम मंदिर के मुद्दे को उठाती रही। कभी किसी विवादित सीडी को जारी करके, तो कभी कल्याण सिंह के हाथ में पार्टी के चुनाव की बागडोर थमाकर। इस बीच विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर के निर्माण के लिए आंदोलन चलाने की भी कोशिश की, लेकिन उस आंदोलन को उत्तर प्रदेश में भी जनसमर्थन नहीं मिल पाया।
सच कहा जाय तो राजग के सत्ता में आने के बाद राम मंदिर के मुद्दे पर न तो विश्व हिंदू परिषद कोई आंदोलन चला पाई और न ही भाजपा वोट पा सकी। 2002 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले भी अयोध्या आंदोलन को गर्म करने की कोशिश की गई थी। उस साल गुजरात के गोधरा में जिस साबरमती एक्सप्रेस को जलाया गया था, वह अयोध्या से ही रामभक्तों को लेकर वापस लौट रही थी। वे राम मंदिर निर्माण आंदोलन के लिए अयोध्या गये थे और वहां से वापस लौट रहे थे। वह गाड़ी जली। गुजरात में उसकी प्रतिक्रिया हुई। वहां हुए विधानसभा चुनाव में उसका असर भी पड़ा होगा, लेकिन उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में वह भाजपा की लुटिया डुबने से नहीं रोक सकी। जाहिर है, राम मंदिर के निर्माण का आंदोलन न तो लोगों के बीच में जोर पकड़ रहा था और न ही उससे भाजपा को कोई राजनैतिक फायदा हो रहा था।
अब एकाएक पार्टी हिंदुत्व के मुद्दे पर जोरशोर से वापस लौट रही है, तो इसके पीछे क्या कारण हो सकता है? एक कारण तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भाजपा पर नियंत्रण करने का संकल्प हो सकता है। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के काल में भी भाजपा पर संघ का प्रभाव था, लेकिन इन दोनों के ऊपर आरएसएस के कोई नेता हुक्म नहीं चला सकते थे। इसका कारण यह था कि ये दोनों नेता संघ परिवार मंे आरएसएस के लगभग सभी नेताओं से वरिष्ठ थे और अपनी समझ के अनुसार अपना फैसला लेते थे। संघ को दोनो नेताओं का स्वतंत्र आचरण नागवार गुजरता था। इसलिए संघ नहीं चाहता कि भाजपा के नेतृत्व में और यदि भाजपा सरकार में आई तो सरकार के नेतृत्व में उस तरह के नेता हों, जो उनके आदेशों की अवहेलना कर डालें।
इधर कांग्रेस के लगातार कमजोर होते जाने और भ्रष्टाचार, महंगाई और आतंकवाद जैसे मुद्दे पर कांग्रेस नेतृत्व के ढुलमुल रवैये के कारण भाजपा और संघ को लग रहा है कि एक बार फिर उसकी सरकार सत्ता मंे आ सकती है। यदि इन मुद्दों को लेकर आपसी मतभेद को भुलाकर भाजपा चुनाव लड़े तो वह सत्ता में आ सकती है, लेकिन अभी वह नेतृत्व की समस्या से जूझ रही है और संघ ऐसा नेतृत्व चाहता है, जो उसकी हां में हां मिलाए। पर भाजपा के अंदर नरेन्द्र मोदी का उभार हो चुका है। सभी सर्वे यही बता रहे हैं कि वे देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं। नरेन्द्र मोदी को संघ का नेतृत्व पसंद नहीं करता, पर समस्या यह है कि यदि उन्हें प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में नहीं प्रोजेक्ट किया गया, तो भाजपा के कार्यकत्र्ताओं के उत्साह ठंढे पड़ सकते हैं। इसलिए कार्यकत्र्ताओं में उत्साह पैदा करने के लिए संघ और भाजपा को कुछ और करना होगा।
हिंदुत्व एजेंडे पर फिर वापसी करके शायद भाजपा शायद नेतृत्व के स्पष्टीकरण के संकट से ही बचना चाहती है। चुनाव के पहले यदि उसे किसी को प्रधानमंत्री के रूप में घोषित करना हो, तो वह इस समय नरेन्द्र मोदी ही हो सकते हैं, क्योकि कार्यकत्र्ताओं में जोश उन्हीं के नाम से भरा जा सकता है। लेकिन लगता है कि संघ उनका नाम नहीं आगे लाना चाह रहा है और इसके लिए ही हिंदुत्व के एजेंडे को वह हवा दे रहा है, ताकि प्रधानमंत्री के उम्मीदवार का मामला लोकसभा चुनाव के बात तय किया जाय। (संवाद)
हिंदुत्व एजेंडे की शरण में भाजपा
क्या कार्यकत्र्ताओं में जोश भर पाएगी यह रणनीति
उपेन्द्र प्रसाद - 2013-02-06 17:56
नरेन्द्र मोदी को पार्टी का प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाने की बढ़ती मांग के बीच में भारतीय जनता पार्टी ने अपने हिंदुत्व एजेंडे की ओर फिर से वापसी के संकेत देने शुरू कर दिए हैं। इलाहाबाद में महाकुंभ के मौके का इस्तेमाल करके पार्टी साधु संतो के बीच अपनी उपस्थिति दर्शाने की कोशिश कर रही है।