हालांकि राज ठाकरे ने अपने ताऊ की अंत्येष्टि में हिस्सा लिया, लेकिन दोनों भाइयों के बीच सहमति होने के लक्षण उस समय नहीं दिख रहे थे। दोनों भाइयों में फर्क साफ देखा जा सकता है। जहां उद्धव ठाकरे अपने पिता की छाया में राजनीति कर रहे हैं, वहीं राज ने अपने बूते ही चुनाव लड़कर विधानसभा में 11 विधायक भेजने में सफलता पाई। उन्होंने बाल ठाकरे से अलग होकर अपनी एक पहचान बना रखी है। राज ठाकरे भले ही बाला साहिब तरह बात करें और उन्हीें की तरह चलें, लेकिन उनके द्वारा पैदा हुए शून्य को भरने की क्षमता शायद उनमें नहीं हैं।
पिछले सप्ताह समझौते की पहल उद्धव ने की। उन्होंने अपनी पार्टी के मुख पत्र को दिए गए एक साक्षात्कार में राज की ओर अपना हाथ बढ़ाया। उसके बाद से राजनैतिक हलकों में इसके बारे में तरह तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। एक कयास यह है कि दोनों चचेरे भाई कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन को पराजित करने के लिए एक साथ आ रहे हैं। पूर्व लोकसभा स्पीकर मनोहर जोशी जैसे सेना के बड़े नेताओं ने उद्धव को सलाह दी है कि वे राज के साथ अपना संबंध मजबूत करें। उन्हें उम्मीद है कि बाल ठाकरे के निधन के बाद दोनों भाई एक साथ हो सकते हैं। राज सेना का चेहरा और उद्धव ठाकरे इसके रणनीतिकार की भूमिका निभा सकते हैं। दोनों भाइयों के बीच में सत्ता का बंटवारा संभव है। दोनों एक साथ आकर अपने अपने क्षेत्र का बंटवारा कर सकते हैं। उन्हें यह भी लगता है कि अपने अपने अहम में यदि दोनों भाइयों ने एक साथ आने से इनकार कर दिया तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान शिवसेना को ही होगा। यह भी डर है कि शिवसेना के कट्टरवादी राज ठाकरे के महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना में शामिल हो सकते हैं। उन्हें यह भी डर लग रहा है कि दोनों भाइयों के बीच के मतभेद का फायदा विरोधी कांग्रेस और एनसीपी को हो सकता है।
राज ने अभी तक एकता की इस अपील पर अपना पत्ता नहीं खोला है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या राज उद्धव को अपना नेता स्वीकार कर पाएंगे, क्योंकि उन्होंने अपने बूते ही एक मजबूत संगठन खड़ा कर दिया है और अपने आपको एक जन नेता के रूप में स्थापित भी कर लिया है। सच तो यह है कि राज ने शिव सेनाको छोड़ा ही इसीलिए था, क्योंकि उनके दावे की उपेक्षा कर उद्धव को पार्टी में प्रमोट कर दिया गया था। बाला साहिब के निधन के बाद उद्धव को उनकी जगह सेना का प्रमुख नहीं, बल्कि सेना का अध्यक्ष बनाया गया है। सवाल उठता है कि शिवसेना में राज के लिए कौन सी जगह बच गई है। राज के पास 12 विधायक हैं। नासिकए पुणे और कुछ अन्य नगर निगमों में उनकी पार्टी की मजबूत उपस्थिति है।
राज के समर्थकों को लग रहा है कि अनेक जिले के कार्यकत्र्ताओं में में हो रहे उथलपुथल के कारण सेना कैंप में चिंता छाई हुई है। शिवसैनिक अपनी सेना छोड़कर राज की सेना में भारी संख्या में पलायन कर सकते हैं। उद्धव को इस बात का डर सता रहा है और इसके कारण ही वे एकता की बात कर रहे हैं, ताकि उनके कैंप से राज के कैंप की ओर सैनिकों का पलायन न हो सके और वे कुछ समय तक दोनों के बीच एकता के प्रयासों के नतीजों का इंतजार करें।
उद्धव की एक और चिंता है। वह यह है कि राज अपनी पार्टी के आधार को और भी मजबूत करने की कोशिश में लग गए हैं। राज पहली बार अपनी सेना को मजबूत करने के लिए प्रदेश के सभी जिलों का दौरा करने वाले हैं। उद्धव इस बात से भी डरे हुए हैं कि नरेन्द्र मोदी राज को तवज्जो दे रहे हैं और उन्होंने अपने शपथग्रहण समारोह में उन्हें हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया था।
शिवसेना को डर एनसीपी से भी है, जो बाला साहिब के वोट बैंक में सेंधमारी करने की कोशिश कर रही है। छगल भुजबल जैसा सेना नेता पहले से ही एनसीपी में हैं। शरद पवार के भतीजे अजित पवार भी शिव सेना के नेताओं पर डोरे डाल रहे हैं और उन्हें एनसीपी में शामिल करने की कोशिश कर रहे हैं। उधर भाजपा भी दोनों भाइयों के बीच समझौता करवाने की कोशिश कर रही है। दोनों सेनाओं का एक साथ होना भाजपा के लिए भी फायदेमंद होगा और वह चाहेगी कि महाराष्ट्र में विपक्षी वोटों का बंटवारा कम से कम हो।
लोकसभा के चुनाव में अभी 15 महीने बाकी हैं। उसमें राज ठाकरे की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होगी। उनका निर्णय महाराष्ट्र की राजनीति का संतुलन बनाने और बिगाड़ने की क्षमता रखता है। (संवाद)
क्या ठाकरे बंधु एक होंगे?
राज ठाकरे की भूमिका हो रही है महत्वपूर्ण
कल्याणी शंकर - 2013-02-08 17:13
शिवसेना सुप्रीमो बाला साहब ठाकरे की मौत के बाद यह अटकलबाजी तेज हो गई है कि क्या उनके बेटे उद्धव और भतीजे राज आपसी मतभेद भूलकर फिर एक साथ हो जाएंगे। कहा जा रहा है कि अपनी मौत के पहले बाल ठाकरे ने अपने बेटे और भतीजे को कहा था कि वे आपसी मतभेद भूलकर फिर से एक साथ आ जाएं। राज और उद्धव के मामा वैद्य ने सार्वजनिक रूप से संकल्प लिया है कि वे बाल ठाकरे के इस सपने को पूरा करवा कर ही दम लेंगे।