पहली बात तो यह है कि मकबूल बट्ट की फांसी से कश्मीर के अलगवावादी आंदोलन को जोड़ने का उनका तर्क ही गलत है। मकबूल को फांसी 1984 में दी गई थी। उसके तुरंत बाद यह आंदोलन नहीं शुरू हुआ था। सच कहा जाय तो कश्मीर का वर्तमान अलगाववादी आंदोलन 1987 में हुए विधानसभा चुनाव में हुई भारी धांधली का परिणाम है। उस चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्ववाली कांग्रेस और फारूक अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कान्फ्रेंस के बीच चुनावी गठबंधन हुआ था। उस गठबंधन के खिलाफ एक और गठबंधन चुनाव लड़ रहा था, जिसका नाम आॅल कश्मीर हुर्रियत कान्फ्रेंस था। चुनाव प्रचार के दौरान हुर्रियत कान्फ्रेंस को बढ़त साफ दिखाई पड़ रही थी।
पर चुनाव के दौरा कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस गठबंधन ने भारी धांधली की। मतदान में बूथों पर कब्जे किए गए। विरोधियों को खदेड़ दिया गया और इस गठबंधन के उम्मीदवारों के पक्ष में ठप्पेबाजी कर दी गई। उस समय यह लेखक वैष्णो देवी के कटरा मंे था और मैंने अपनी आंखों से देखा था कि किस तरह कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस के लोगोे ने विरोधी मतदाताओं को बूथ से बाहर खदेड़ा था और अपने उम्मीदवार के पक्ष मे ंसारे वोट डाल दिए थे। इस तरह की घटना पूरे जम्मू और कश्मीर में बड़े पैमाने पर हुई थी। कहते हैं कि धांधली सिर्फ मतदान के दिन ही नहीं, बल्कि मतगणना के दिन भी हुई थी। नतीजन जिसे चुनाव जीतकर सरकार बनाना था, वह हार गया और जिन लोगों ने मतदान और मतगणना मंे धांधली की वे सरकार में जा बैठे।
मकबूल बट्ट को फांसी 1984 में दी गई थी, लेकिन 1987 के विधानसभा चुनाव तक घाटी में शांति का साम्राज्य था। किसी प्रकार की हिंसक घटना नहीं घट रही थी। सबकुछ सामान्य था। तो फिर कैसे कोई कह सकता है कि 1987 के बाद की हुई घटनाएं उस फांसी का परिणाम थी। सच तो यह है कि चुनाव के दौरान लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों की जिस तरह से हत्या की गई, वह आने वाले समय के लिए बहुत ही भयानक साबित हुआ। कांग्रेस और नेशनल कान्फे्रंस का गठजोड़ भी उस चुनाव में एक अवसरवादी गठजोड़ थे। उस गठजोड़ के कुछ समय पहले ही फारूक अब्दुल्ला की सरकार को हटाकर उनके बहनोई को कांग्रेस ने मुख्यमंत्री बनवा दिया था। उस समय शाह की बनी सरकार में कांग्रेस की भागीदारी थी। फारूक अब्दुल्ला को लग गया कि केन्द्र की सरकार से टकराव लेकर राज्य में सरकार नहीं बनाई और बचाई जा सकती, तो उन्होंने कांग्रेस से चुनावी समझौता कर डाला। कांग्रेस को भी किसी न किसी रूप में जम्मू और कश्मीर की सत्ता चाहिए थी, इसलिए उसने भी फारूक अब्दुल्ला से समझौता कर डाला। समझौते तक ही बात सीमित रहती तो कोई बात नहीं थी, पर सरकार बनाने के लिए वहां लोकतंत्र का ही गला घोंट दिया गया।
जाहिर है 1980 के दशक में अलगाववाद को ताकत 1987 में लोकतंत्र के गला घोटे जाने का परिणाम था, जिसकी जिम्मेदारी वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के पिता फारूक अब्दुला और कुछ हद तक तब के प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर थी। उस समय घटित एक अंतरराष्ट्रीय घटना ने भी कश्मीर को अशांत करने में अपना योग दिया। वह घटना थी अफगानिस्तान से सोवियत सेना की वापसी। जब तब सोवियत सेना अफ्रगानिस्तान में थी, जेहादी तत्व उसके साथ उलझे हुए थे। सोवियत सेना वहां से वापस गई और जेहादी तत्वों को कश्मीर पर अपना ध्यान केन्द्रित करने का समय मिल गया। कश्मीर की अंदरूनी हालत उसके काम आई, क्योंकि वहां के लोग अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के छिने जाने के कारण गुस्से में थे और उन्हें लग रहा था कि केन्द्र के कारण उनके ये अधिकार छीने गए। बस क्या था, कश्मीर की घाटी अशांत हो गई और वहां अलगाववादियों के पौ बारह गए।
अलगाववादियों ने अपनी हरकतें तो 1987 के बाद ही तेज कर रखी थीं, 1990 में केन्द्रीय गृहमंत्री रुबिया सईद के अपहरण के साथ उसने सारे देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया। तब रुबिया को अलगाववादियों की शर्तों पर रिहा कराया गया। फिर तो उनके हौसले बुलंद होते गए और घाटी में कश्मीरी पंडितों का रहना दूभर होता गया। अलगाववाद के खिलाफ सघर्ष भी हो रहा है। बीच बीच में स्थिति बेहतर भी होती है, लेकिन अलगाववादी आंदोलन में वहां अनेक ताकतों का निहित स्वार्थ हो गया है, इसलिए जब भी शांति की स्थापना होने लगती है, तो वे तत्व सक्रिय हो जाते हैं और स्थिति को सामान्य नही होने देते।
अफजल को फांसी देकर केन्द्र ने एक कड़ा और अच्छा फैसला किया है, हालांकि फांसी दिए जाने मंे पारदर्शिता बरती जाती तो अच्छा होता। अफजल के परिवार वालों को सही तरीके से सूचित कर उन्हें शव सौंपा जाता तो बेहतर होता। हालांकि इसके कारण कुछ दूसरे तरह की समस्या आ सकती थी, लेकिन सरकार को उस दूसरे तरह की समस्या से भी कड़ाई से निबटने का इंतजाम करना चाहिए था। जहां कड़ाई की जरूरत हो, वहां कड़ाई ही करनी चाहिए। गोपनीयता बरतने से फौरी राहत तो कभी मिल जाती है, लेकिन इसके दूरगामी नतीजे अच्छे नहीं होते।
बहरहाल, अफजल की फांसी के बाद घाटी अशांत है। यह अप्रत्याशित नहीं है। जिस तरह से कश्मीर के अलगाववादी आंदोलन से निबटने में भी राजनीति की जाती है, उसके माहौल में यह स्वाभाविक है, लेकिन सरकार को इस अशांति का सामना करना ही होगा। मात्र इसलिए किसी आतंकवादी की सजा को स्थगित नही किया जा सकता कि सजा देने से अशांति बढ़ेगी। यदि सरकार का ऐसा रवैया रहा, तो आतंकवादी तत्व और भी ज्यादा खुराफात कर सकते हैं और नये नये लोग भी आतंकवाद की झोली में जा सकते हैं।
पर अफजल को फांसी दिया जाना ही काफी नहीं है। केन्द्र सरकार को कड़ा रवैया अख्तियार करते हुए आतंकवाद से जुड़े सभी लोगों के खिलाफ सख्ती दिखानी चाहिए। उमर अब्दुल्ला की एक शिकायत यह भी है कि पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे को सजा अभी क्यों नहीं मिली है। वह तमिलनाडु जेल में बंद राजीव गांधी के हत्यारों की रुकी फांसी पर भी सवाल खड़ा कर रहे हैं। केन्द्र सरकार को उस तरह के सवालों का भरपूर जवाब दिया जाना चाहिए और यह जाहिर कर दिया जाना चाहिए कि चाहे आतंकवाद किसी रूप और रंग का हो, केन्द्र सबके प्रति समान सख्ती बरतता है। (संवाद)
अफजल की फांसी और उसके बाद
आतंकवाद के खिलाफ कड़ा रुख बनाए रखना होगा
उपेन्द्र प्रसाद - 2013-02-13 13:12
अफजल गुरू को फांसी दिए जाने के बाद जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने जो भय जाहिर किया है, उसका कोई आधार नहीं है। उनका मानना है कि गुरू को फांसी दिए जाने के बाद घाटी के लोगों का अलगाव देश से बढ़ेगा। वे कहते हैं कि मकबूल बट्ट को 1984 में फांसी दी गई थी। शायद वह यह कहना चाह रहे हों कि कश्मीर में चला अलगाववादी आंदोलन मकबूल बट्ट को दी गई फांसी का नतीजा था और यह आंदोलन अफजल गुरू को फांसी मिलने के बाद तेज हो जाएगा।