2009 में यूपीए सरकार ने यही किया था। उसके पहले 2004 में भी एनडीए सरकार ने लेखानुदान से ही काम चला लिया था। यानी एनडीए सरकार द्वारा पेश किया गया अंतिम बजट 2003 और यूपीए की पहली सरकार का अंतिम बजट 2008 में पेश किए गए थे, जबकि लोकसभा चुनाव क्रमशः 2004 और 2009 में हुए थे।
चुनाव के पहले पेश किए गए बजट के लोकप्रियतावादी होने की ही उम्मीद की जाती है। इसलिए यह बजट भी लोकप्रियतावादी घोषणाओं से भरपूर होने की उम्मीद की जा रही है। पर आज वित्त मंत्री पी चिदंबरम के पास उतने संसाधन नहीं हैं, जितने उनके पास 2008 का बजट पेश करते समय था। सच कहा जाय, तो 2003 का बजट जब तत्कालीन वित्त मंत्री जसवंत सिंह पेश कर रहे थे, तो उस समय भी उनके पास लोगों को देने के लिए आज से बहुत ज्यादा था। अभी तो हालत यह है कि प्रधानमंत्री से लेकर वित्त मंत्री और सरकार के वित्तीय सलाहकारों तक यही कहते दिखाई पड़ रहे हैं कि यदि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना है, तो कठोर कदम उठाने पड़ेंगे। जब वे कठोर शब्द का इस्तेमाल कर रहे होते हैं, तो उसका मतलब होता है लोगों को कठिन परिस्थितियों में डालना।
तो ऐसे माहौल में वित्त मंत्री पी चिदंबरम किस तरह की लोकप्रियतावादी घोषणाएं लोगों के लिए करने वाले हैं, जिनके कारण उनकी पार्टी और सहयोगी दलों के लिए ज्यादा से ज्यादा वोटों का जुगाड़ वे कर पाएंगे? देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कठोर कदम और यूपीए को दुबारा सत्ता में लाने के लिए लोकप्रियतावादी कदम के बीच का जो विरोधाभास है, उससे हमारे वित्त मंत्री आज जरूर उलझ रहे होंगे।
पी चिदंबरम ने केन्द्र सरकार का बजट सबसे ज्यादा बार पेश करने का रिकाॅर्ड बना रखा है। संयुक्त मोर्चा की देवगौड़ा और गुजराल सरकारों मंे भी वे वित्त मंत्री थे और मनमोहन सिंह की पहली सरकार मंे भी उन्होंने 5 बार बजट पेश किए थे। अब जाहिर है, बजट तैयार करने का उनका लंबा अनुभव है। इस अनुभव का फायदा उठाकर वे कठोर, परंतु लोकप्रियतावादी बजट तैयार करने का करिश्मा दिखाना चाहेंगे, पर आज उनके हाथ बहुत ही बंधे हुए हैं।
2008 में बजट पेश करते समय उन्होंने खुलकर दोन हाथों से रेबडि़यां बांटी थी। उन्हांेंने एक झटके में किसानों को दिए गए 60 हजार करोड़ रुपये के कर्ज को माफ कर दिया था। किसानों के लिए कर्जमाफी की इतनी बड़ी योजना की घोषणा हमारे देश में न तो उसके पहले कभी की गई थी और न ही उसके बाद इस तरह की घोषणा हुई है। अगले साल कांग्रेस की जीत का एक बड़ा कारण वह घोषणा हो सकती है, जिसने किसानों के बीच में सरकार को लोकप्रिय बना दिया था। सरकार की इस माफीनामे के विरोधी कह रहे थे कि इससे देश की बैंकिंग व्यवस्था चरमरा जाएगी, पर वैसा कुछ भी नहीं हुआ। किसानों के कर्ज की माफी भी हो गई और बैंकिंग व्यवस्था भी अपनी जगह पर अपने तरीके से कायम रही।
किसानों ही नहीं, बल्कि मध्यवर्ग को भी उस बजट में काफी रियायतें मिली थीं। वेतन आयोग की सिफारिशें भी उसी साल लागू की गई थीं। किसानों और सरकारी नौकरीपेशा लोगों की क्रयशक्ति एकाएक बहुत बढ़ गई और उसका असर बाजार पर भी बड़ा और विकास का माहौल तैयार हो गया था। उसी बजट में शिक्षा क्षेत्र के विकास के लिए 34 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की अतिरिक्त राशि का प्रावधान किया गया था। उच्च शिक्षा संस्थानों में छात्रों की संख्या 54 फीसदी बढ़ाने के ध्येय से यह प्रावधान किया गया था। नरेगा यूपीए सरकार की एक बहुत ही महत्वाकांक्षा योजना मानी जाती है। अपने पहले कार्यकाल में यूपीए ने इसकी शुरुआत की थी। पर इसे शुरू में पूरे देश में लागू नहीं किया गया था। सिर्फ कुछ चुनिंदा गरीब जिलों में ही इसे लागू किया गया था, पर 2008 के बजट में इसे पूरे देश भर मंे लागू करने की घोषणा कर दी गई थी और इसके लिए बजट राशि में 4 हजार करोड़ रुपये के अतिरिक्त प्रावधान कर दिए गए थे। सड़कों के निर्माण और पीने के पानी के लिए भी बड़ी बजट राशि का प्रबंध कर दिया गया था। आम लोगों को राहत देते हुए दवाइयों पर लगाए जाने उत्पाद शुल्कों में भी कटौती कर दी गई थी। छोटी चैपाहिया गाडि़यों और दोपहिया गाडि़यों को भी सस्ता कर दिया गया था। पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए कुछ इलाकों में नये होटलों के लिए 5 साल के टैक्स होलीडे की घोषणा भी की गई थी।
सच कहा जाय, तो 2008 के बजट में पी चिदंबरम ने जितनी लोकप्रियतावादी घोषणाएं की थीं और उन पर जितनी राशि का प्रावधान किया था, उसकी बराबरी शायद ही पहले का कोई बजट करे।
एनडीए सरकार का अंतिम बजट 2003 में आया था। चुनाव अगले साल नवंबर के महीने में होने तय थे। उस समय वित्त मंत्री को यह शायद पता नहीं था कि 2004 के मई में ही चुनाव हो जाएगा और उस साल भी फरवरी में उन्हें एक नियमित बजट पेश करना होगा। इसलिए जसवंत सिंह यह मानकर चल रहे थे 2003 का वह बजट चुनावी बजट नहीं था। इसके बावजूद उन्होंने उसमें अनेक ऐसे प्रावधान किए थे, जो लोकलुभावन थे। बच्चों की शिक्षा शुल्क पर टैक्स रियायत देने की घोषणा के साथ साथ वरिष्ठ नागरिकों और महिलाओं को भी अतिरिक्त टैक्स रियायतें दे दी गई थीं। शेयरों पर होने वाले कैपिटल गेन पर लगाए जाने वाले टैक्स को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया था डिविडेड टैक्स को भी पूरी तरह समाप्त कर दिया गया था। इस तरह शेयर धारकों के लिए राहत की सौगात लेकर जसवंत ंिसह का वह बजट उस साल आया था। सीमा शुल्कों को भी घटा दिया गया था। इसके अलावा सड़कों में भारी निवेश की घोषणा की गई थी। निजी सेक्टर के सहयोग से 48 नए राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण की भी घोषणा की गई थी।
यदि हम 2003 और 2008 में पेश किए गए बजट की तुलना करें, तो देखते हैं कि लोकप्रियतावादी होने के बावजूद 2003 का बजट 2008 के बजट के सामने कहीं नहीं टिकता। इसका एक कारण तो यह था कि चिदंबरम को यह पता था कि यह उनकी सरकार द्वारा लोकसभा चुनाव के पहले पेश किया जा रहा अंतिम बजट था, पर जसवंत सिंह को लग रहा था कि 2004 में वे शायद एक बजट और भी पेश कर पाएंगे।
इस बार भी चिदंबरम को पता है कि वे आगामी लोकसभा चुनाव के पहले अंतिम बार बजट पेश कर रहे हैं। पर क्या वे 2008 के अपने प्रदर्शन को दुहरा पाएंगे? इसकी संभावना इसलिए कम लग रही है, क्योंकि आज सरकार के हाथ बहुत हद तक बंधे हुए हैं। लेकिन चुनाव है, तो उसके जीतने के लिए कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा और इसके लिए मध्य वर्ग को रियायतें जरूर मिलेगी, भले ही इस बात देश के सबसे धनी तबकों पर टैक्स की मार बढ़ा दी जाए। (संवाद)
क्या 2008 के बजट को मात दे पाएंगे चिदंबरम?
बंधे हुए हैं वित्तमंत्री के हाथ
उपेन्द्र प्रसाद - 2013-02-20 13:40
अगला बजट मनमोहन सिंह सरकार के दूसरे कार्यकाल का संभवतः अंतिम बजट होगा भले ही आगामी लोकसभा का आमचुनाव अपने तय समय पर 2014 में ही हो, क्योंकि यह लगभग एक परंपरा बन गई है कि यदि लोकसभा चुनाव किसी साल की पहली छमाही में हो, तो उस साल सरकार फरवरी महीने में पूर्ण बजट पेश ही नहीं करती है, बल्कि लेखानुदान पेश करके उसे पारित करवा लेती है, जिससे वित्तीय वर्ष के शुरुआती कुछ महीनों के सरकारी खर्चों का इंतजाम हो जाता है।