हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के जलवायु सम्मेलन में भाग लेने के लिए जितनी कूटनीतिक कोशिशें हुईं उतनी और किसी के संदर्भ में नहीं हुई। यकीनन यह विश्व पटल पर भारत के बढ़ते महत्व का प्रमाण है। दुनिया के प्रमुख देश भी अब वैश्विक चुनौतियों के निदान में भारत की अपरिहार्यता स्वीकार करने को विवश हैं। किंतु देश के भीतर? एक अजीब अराजक हालात की स्थिति है। इस समय ऐसा लगता ही नहीं कि कुछ नए राज्यों के गठन के अलावा भारत की कोई अन्य प्राथमिकताएं भी हों। संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक दल ही किसी देश के भाग्यविधाता हैं और राजनीतिक दल हैं कि देश की मूल प्राथमिकताओं को दरकिनार कर अपनी कल्पना का राज्य बनाने या फिर राज्य संबंधी दूसरे की कल्पना का विरोध करने में तल्लीन है। कोई अपना मुंडन करा रहा है तो कोई दूसरे का मुंडन चेहरे वाले शरीर के पुतले जला रहा है। जरा पूरी दुनिया में नजर उठा लीजिए, भारत के समान आकर्षक अंतरराष्ट्रीय छवि और धाक वाले किसी दूसरे देश की आंतरिक दशा-दुर्दशा आपको दिखाई नहीं देगी। स्पष्टतः यह राजनीतिक दलों की अगंभीर और गैर जिम्मेवार भूमिका की ही दुःखद परिणति है।

पहले इस बात पर विचार करें कि देश की प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिएं? योजना आयोग द्वारा गठित एस. डी. तेंदुलकर समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सन् 2004-05 में देश में गरीबों की आबादी 41.8 प्रतिशत थी। यह आंकड़ा सामान्य नहीं है। स्वयं योजना आयोग उस समय गरीबों की संख्या 28.3 प्रतिशत बता चुका है। प्रति व्यक्ति खर्च या उपभोग के आधार पर गरीबी की सीमा का आकलन भारतीय परंपरा के अनुसार फिट नहीं बैठता, और इसमें भारतीय दृष्टिकोण से परिवर्तन होन चाहिए। किंतु यह अलग से विचार का विषय है। इस समय तो मूल प्रश्न यही है कि जिस देश को दुनिया भविष्य की आर्थिक और सामरिक महाशक्ति मानकर व्यवहार कर रहा है, उस देष में गरीबी की इतनी संख्या क्या शर्मनाक नहीं है? गरीबों की इतनी संख्या लेकर हम कैसी महाशक्ति बन पाएंगे? जरा सोचिए, हमारे राजनीतिक दलों की प्राथमिकता नए राज्यों के गठन पर बावेला मचाना होना चाहिए या फिर भारत के लिए गरीबी के कलंक के अंत के लिए एकजुट होकर कमर कसना? अगर गरीबी के आंकड़े के साथ महंगाई के ताजा आंकड़े को मिला दें तो स्थिति दिल दहलाने वाली है। महंगाई दर 4.6 प्रतिशत हो चुकी है। खाने के सामानों की दर मंे तो 3 प्रतिशत की वृद्धि है लेकिन खाद्य महंगाई 17.7 प्रतिशत बढ़ी है। यानी महंगई से त्रस्त आम आदमी के लिए राहत की कोई संभावना नहीं है। गरीब आबादी का सबसे अधिक खर्च खाने पर ही होता है। किसी भी आर्थिक आंकड़े में इस वर्ग की आय बढ़ने की तस्वीर नहीं है। जाहिर है, हमारे देश की इतनी बड़ी आबादी को अपनी कम आय में जीने के लिए और कतर-ब्यौंत करनी होगी।

ये स्थितियां एक दो दिनों में दूर नहीं हो सकतीं। किंतु अगर राजनीतिक दल नियति निर्धारक हैं तो उन्हें उन सारे कारणों की ईमानदारी से छानबीन करनी पर फोकस करना चाहिए कि आखिर विकास के इतने दावों के बावजूद देश में गरीबों की संख्या इतनी ज्यादा क्यों है? क्यों कुछ लोगांे की अमीरी बढ़ रही है तो दूसरी ओर कंगालों की फौज भी बड़ी हो रही है? आखिर सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद आम उपयोग की सामग्रियों के दाम घटने की बजाय क्यों उछल रहे हैं? कौन सी शक्तियां बाजार के भाव का निर्धारण कर रही है? अगर कारणों की ईमानदार छानबीन हो तो एकमात्र निष्कर्ष यही आएगा कि देश में आमूल बदलाव एवं पुनर्निर्माण की आवश्यकता है। अगर देश के राजनीतिक दल जन सेवा की एकमात्र भूमिका के प्रति ईमानदार होते तो उनकी प्राथमिकता भारत के पुनर्निर्माण के लिए काम करना होता। आर्थिक मंदी,दुनिया में आतंकवाद-उग्रवाद के खतरे तथा जलवायु संकट ने वर्तमान सम्पूर्ण ढांचे को प्रश्नों के घेरे में ला दिया है। क्या नेपाल के मंत्रिमंडल का हिमालय की गोद में बैठक करके सम्पूर्ण हिमालयी सभ्यता पर मंडराते खतरे का आभास कराने का प्रयास हमारे लिए इसके बचाने के लिए प्राणपण से संकल्प लेने का अवसर नहीं हो सकता है? किंतु विभ्रमित राजनीतिक दल मानो किसी कयामत की प्रतिक्षा कर रहे हैं।

इस समय संसद का सत्र चल रहा है और भयावह स्थितियां सामने है। इसमें एक स्वस्थ लोकतंत्र का तकाजा था कि सरकार और विपक्ष दोनों इन पर गंभीर बहस करें और प्राथमिकताओं का निर्धारण कर उनको हासिल करने के लिए रास्ता निकाले। किंतु दुर्भाग्य देखिए कि संसद भी इनकी अगंभीरता और गैर जिम्मेवार भूमिका का शिकार हो चुकी है। राज्य सभा के सभापति हामिद अंसारी ने संसद कार्यवाही की नियमावली में ऐसा संशोधन करने का सुझाव दिया है जिसमें प्रश्न काल में प्रश्न पूछने वाले सांसदों की अनुपस्थिति में भी उनका प्रश्न पूछा जा सके। हमने देखा कि 30 नवंबर को लोकसभा में प्रश्न पूछने वाले सांसद क्रमवार एक से 28 तक अनुपस्थित थे। राज्य सभा में ऐसे सांसदों की संख्या छः थी और सभापति को पूछना पड़ा कि क्या यह एक वायरस की तरह फैल रहा है? हमारे राजनेता एवं सांसद अपने तरीके से इसका बचाव कर रहे हैं। संसदीय समितियों की कार्यवाही का हवाला दिया जा रहा है। केवल दो चार सांसदों के मामले में यह सही हो सकता है किंतु मुख्य कारण राजनीतिेक दलों की अगंभीरता एवं दिशाभ्रम है। आखिर क्या कारण है कि प्राथमिक शिक्षा अधिकार विधेयक संसद पटल पर रखा गया और उसे पारित करने के समय राज्य सभा में केवल 55 सांसद उपस्थित थे। राजनीतिक दलों की गैर जिम्मेवार भूमिका का इससे बड़ा और क्या उदाहरण हो सकता है? आप देखिए 11 दिसंबर को बिमस्टेक देशों के बीच उग्रवाद और जलवायु परिवर्तन पर समझौता हुआ। बंगलादेश, भारत, श्रीलंका, थाइलैंड, म्यान्मार, नेपाल और भूटान जैसे देशों के इस संगठन का इन दो मामलों पर समझौता कितना महत्वपूर्ण परिणामों वाला हो सकता है इसका आभास हम सबको है। केवल पूर्वोत्तर ही नहीं, जेहादी आतंकवाद और माओवादी आतंकवाद से मुठभेड़ के लिए भी इन देशों का सहयोग आवश्यक है। बंगलादेश, भारत, नेपाल, भूटान, म्यान्मार सम्पूर्ण हिमलायी सभ्यता के अंग हैं। श्रीलंका और थाईलैंड भी इससे जुड़े हैं। हिमालयी सभ्यता को बचाने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होगी। लेकिन देश में राजनीतिक दलों का इनसे कोई सरोकार हो, ऐसा कहीं भी नजर नहीं आता। 1998 के नाभिकीय परीक्षण को लेकर देश के कुछ मुट्ठी भर वैज्ञानिक प्रश्न खड़े कर विश्व भर में भारत की क्षमता को संदेह के घेरे में ला रहे हैं, दूसरे पक्ष के वैज्ञानिक उसका खंडन कर रहे हैं, पर हमारे राजनीतिक दल इनसे निरपेक्ष बैठे हैं। क्यों?

स्पष्ट है कि इस प्रकार के अगंभीर और विभ्रमित राजनीतिक दलों वाला देश कभी भी वास्तविक महाशक्ति नहीं बन सकता। अंदर से अराजक व्यवहार वाले देश को कभी सशक्त होने का ठोस आधार उपलब्ध नहीं हो सकता। जब आप गैर प्राथमिक मुद्दों पर उलझे रहेंगे, देश को उच्चतम शिखर पर ले जाने का उपक्रम ही नहीं होगा तो फिर उसका परिणाम क्या आ सकता है? जाहिर है, अगर भारत को वाकई ठोस विकास का लक्ष्य हासिल करना है, गरीबी के कलंक और आर्थिक असमानता की खाई को पाटकर विश्व पटल पर सम्मानित और प्रेरणादायी स्थान पाना है तो फिर सबसे पहले हमें अपनी राजनीति को गंभीर और उत्तरदायित्वपूर्ण बनाना होगा। इस समय राजनीति के अखाड़े में जो मुख्य दल और नेता हैं, उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती। इसलिए बदलाव की पहल इनसे बाहर से करनी होगी। थोड़े शब्दों में कहंे तो हमारी आपकी एकमात्र प्राथमिकता इस समय राजनीति में बदलाव ही होना चाहिए। (संवाद)