आम बजट से भी रेल को कोई खास उम्मीद नहीं है और अपनी परियोजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए रेल को पब्लिक- प्राइवेट पार्टनरशिप ही नहीं, बल्कि भारी पैमाने पर बाजार से कर्ज का सहारा भी लेना पड़ रहा है। चालू वित्त साल में ही 151 अरब रुपये के कर्ज बाजार से उठाने का लक्ष्य रेलमंत्री ने रखा है।

सुविधाओं के नाम पर रेलमंत्री ने शायद कुछ भी रेलयात्रियों को नहीं दिया है। जब रेल यात्रियों की मुख्य समस्या गंदगी, भीड़, असुरक्षा और ट्रेन पर उपलब्ध खराब, पर महंगा खाना हो, तो उन्हें मुफ्त वाई फाई का लोभ और अनुभूति नाम की के विलासिता वाले कोच की यात्रा से राहत कैसे मिल पाएगी? रेल मंत्री ने बार बार अपने भाषण में कहा कि सुविधाएं बढ़ाने के लिए रेलवे को पैसा चाहिए। पैसे की कमी को उन्होंने रेलवे में सुविधाओं की कमी का कारण बताया, लेकिन सवाल उठता है कि पैसा कहां से आएगा? पैसा या तो रेल भाड़ा से आता है या रेल किराया से। रेल भाड़े को तो बढ़ा दिया गया, लेकिन किराये को बढ़ाने में रेलमंत्री के हाथ ठिठक गए, क्योंकि ऐसा करके वे देश के लोगों को नाराज नहीं कर सकते थे। इसका कारण यह है कि चुनाव होने वाले हैं ओर चुनाव के पहले वे लोगों का गुस्सा मोल नहीं लेना चाहते थे। इसलिए उन्होंने घोषणा कर दी कि किराये में बढ़ोतरी नहीं होगी।

पर दूसरी ही सांस में उन्होंने चार मदों मं वृद्धि की घोषणा कर दी। सुपरफास्ट का सरचार्ज बढ़ा दिया जाएगा। आरक्षण का शुल्क भी बढ़ेगा और उसे कैंसिल कराते समय टिकट कटाने वालों से अब पहले की अपेक्षा ज्यादा पैसे काटे जाएंगे। इतना ही नहीं, तत्काल का किराया भी बढ़ा दिया जाएगा। गौरतलब है कि इन चारों का इस्तेमाल करके लालू यादव ने रेल की आमदनी बढ़वा दी थी। वे घोषणा करते रहते थे कि किराया नहीं बढ़ाया, पर चुपके से ज्यादा से ज्यादा सीटों को तत्काल श्रेणी में वे डलवा दे थे और उसका किराया बढ़वा देते थे। ज्यादा से ज्यादा ट्रेनों को उन्होंने सुपरफास्ट ट्रेन का नाम दे दिया, जबकि वे सभी सुपरफास्ट ट्रेनें नहीं हैं। इस तरह सुपर फास्ट ट्रेन के नाम पर भी यात्रियों से अतिरिक्त पैसे वसूल लिए जाते थे।

लालू यादव का फार्मूला श्री बंसल ने भी इस बार अपनाने की कोशिश की है, लेकिन लालू को इस बात का फायदा मिलता था कि उनके हाथ की उस सफाई को लोग उस समय समझ नहीं पाते थे, लेकिन बाद में लोगों को पता चल गया कि लालू कैसे लोगों से बढ़ा किराया ले रहे हैं। अब जब श्री बंसल कह रहे हैं कि उन्होंने किराया नहीं बढ़ाया है, तो कोई यह मानने को तैयार नहीं है कि वास्तव में उन्होंने किराया नहीं बढ़ाया है। सच तो यह है कि लालू के समय में तत्काल टिकटें बहुत ही ज्यादा महंगी हो गई थीे। ममता बनर्जी ने रेल मंत्री के रूप में उन टिकटों की कीमतें घटा दी थी। अब पवन बंसल फिर उसे बढ़ा रहे हैं। जाहिर है कि लोगो ंके बीच यह संदेश भेजने में सफल नहीं हो पाएंगे कि उन्होंने रेल किराया बढ़ाया ही नहीं है। सच तो यह है कि उन्होंने उन लोगों से भी ज्यादा पैसा वसूल करेंगे, जो टिकट कटाने के बाद यात्रा नहीं करते और टिकट वापस करते हैं। वेटिंग लिस्ट की लंबी लाइन होती है और जिनका टिकट कन्फर्म नहीं होता, उनमंे से अधिकांश टिकट कैंसिल कराते हैं। ऐसे लोगो ंकी तायदाद भी कम नहीं है।

रेलमंत्री अपने भाषण में वह जोश पैदा नहीं कर सके, जिसे देखने के हमारे देश के लोग आदी हो गए हैं। रामविलास पासवान से लेकर दिनेश त्रिवेदी तक के भाषणों में लोगों को कुछ न कुछ दिखाई देता था। पिछले रेल बजट में दिनेश त्रिवेदी ने रेलवे के लिए एक स्वप्नदर्शी बजट पेश करते हुए किराए बढ़ाए थे। उनके उस स्वप्नदर्शी बजट का स्वागत तो हुआ था, लेकिन बाद में उन्हें अपनी कुर्सी गंवा देनी पड़ी थी और उनके अनेक प्रावधान अटक गए थे। इस बार पवन बसंल को बजट बनाते समय ज्यादा आजादी मिली हुई थी। वे यदि चाहते, तो श्री त्रिवेदी के कदमों पर चलकर रेलवे के लिए एक अच्छा बजट पेश कर सकते थे, लेकिन लगता है कि कोष की कमी ने उनके हाथ बांध कर रख दिए और उन्हें, एक ऐसा बजट पेश करना पड़ा, जिससे भारतीय रेल को कोई दिशा मिलती नहीं दिखाई पड़ रही है और न ही इससे उसकी दशा में कोई सुधार होता दिखाई दे रहा है।

रेल टिकटों की कालाबाजारी आज रेलवे की एक बड़ी समस्या बनकर सामने आ गई है। इस मोर्चे पर कोई ठोस कार्रवाई करके अथवा कोई ठोस घोषण करके वे लोगों की वाहवाही लूट सकते थे, पर ऐसा उन्होंने किया ही नहीं। निजी एजेंटों को टिकट बुकिंग का अधिकार देकर टिकटों की दलाली का एक बहुत बड़ा तंत्र तैयार कर दिया गया है। जो टिकट दलाल पहले रेलवे स्टेशनों तक सीमित थे, वे अब महानगरों ही नहीं, बल्कि नगरों और कस्बों के गली मुहल्ले तक फैल गए हैं। इंटरनेट और मोबाइल द्वारा तेज संवाद स्थापित होने के कारण इन दलालों के रेलवे में टिकट बुकिंग करने वालों के साथ भी गठजोड़ बनते जा रहे हैं। इन सबके कारण टिकटों की भारी कालाबाजारी हो रही है। रेलवे लगातार कालाबाजारी को थामने के लिए कुछ न कुछ करता है, लेकिन दलाल उनसे भी तेज साबित होते हैं। निजी एजेंटों को टिकट बुकिग के काम से हटाकर इस नेटवर्क की कमर श्री बंसल तोड़ सकते थे और लोगों की वाहवाही ले सकते थे, पर लगता है कि उन्होंने इस तरफ सोचा ही नहीं और यदि सोचा भी होगा, तो शायद निजीकरण के इस युग में एक निजीकरण विरोधी कदम उठाने की उनकी हिम्मत नहीं हुई होगी।

चुनावों को ध्यान में रखकर श्री बसंल ने रेलवे की अनेक परियोजनाएं शुरू करने की घोषणा कर दी है और एक्सप्रेस, पैसंेजर, इएमयू और डीएमयू की 94 नई गाडि़यों को चलाने की भी घोषणा कर दी है, हालांकि लोगों की शिकायत यह भी है कि अब अनेक घोषणाएं क्रियान्वित ही नहीं की जातीं। अपनी तरफ से रेलमंत्री ने चुनाव का ध्यान तो रखा है, लेकिन उसका शिकार रेल हो गई है और रेल यात्रियों के बीच अपने बजट को लोकप्रिय बनाने में भी श्री बसंल सफल नहीं रह पाए हैं। (संवाद)