डीएसपी की हत्या हो गई। यह संयोग की बात है कि वह डीएसपी एक मुस्लिम था। वह इसलिए नहीं मारा गया, क्योंकि वह मुस्लिम था, बल्कि इसलिए मारा गया कि एक पुलिस अधिकारी के तौर पर वह वहां ड्यूटी पर था। यदि वह हिंदू, ईसाई, सिख या बौद्ध होता, तब भी हत्यारे उसके साथ वैसा ही सलूक करते। यानी उसकी हत्या से उसकी सांप्रदायिक पहचान का कोई संबंध नहीं है। पर हत्या के बाद उत्तर प्रदेश के मुस्लिम नेताओं ने उसे सांप्रदायिक रंग देना शुरू कर दिया। इसमें सबसे आगे अखिलेश सरकार के मंत्री ही रहे। आजम खान ने कहा कि डीएसपी जिया उल हक की मौत के बाद वे समाज ( यानी मुस्लिम समाज) के सामने मुह दिखाने के काबिल नहीं हैं। दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम ने भी सांप्रदायिक बयान देने शुरू कर दिए। सांप्रदायिक आधार पर लोगों को गोलबंद कर जिया उल हक की हत्या का विरोध होने लगा। समाजवादी पार्टी मुसलमानों को अपना वोट बैंक मानती है। किसी भी चुनावी जीत के लिए वह मुसलमानों के समर्थन को आवश्यक मानती है। इसलिए वह किसी हालत में अपने आपको मुसलमानों का रहनुमा साबित करना चाहती है। जिया उल हक की हत्या को उसने एक डीएसपी की हत्या कम और एक मुस्लिम अधिकारी की हत्या ज्यादा माना। और उसके परिवार के सदस्यों को 50 लाख रूपये के चेक दे आए। परिवार से एक करोड़ रुपये की राहत की मांग की गई। उस मांग को भी स्वीकार कर लिया गया।
सवाल उठता है कि यदि आने वाले समय में कभी दुर्भाग्यवश इसी तरह की घटना किसी और पुलिस अधिकारी के साथ हो जाती है, तो क्या राज्य सरकार द्वारा दी गई अनुकंपा की राशि यही रहेगी? क्या उसके परिवार को भी एक करोड़ रुपये का मुआवजा दिया जाएगा? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि पुलिस वाले अपराधियों और दंगाइयों के साथ प्रायः मुठभेड़ का सामना करते रहते हैं और उनकी जान पर जोखिम बना रहता है और उनकी मजहबी पहचान कुछ भी हो सकती है। वे गैर मुस्लिम भी हो सकते हैं, तो समता का तकाजा यही है कि सभी को सरकार एक नजरिए से देखे। यह तो कोई बात नहीं हुई कि राजनैतिक दबाव समूह के रूप में काम कर रहे समुदाय के साथ सरकार ज्यादा उदारता के साथ पेश आए।
सवाल पुलिस अधिकारी की हत्या का ही नहीं है। वलीपुर गांव में ही डीएसपी की हत्या के दिन दो और लोगांे की भी हत्या हुई थी। पहली हत्या ग्राम प्रधान नन्हें यादव की हुई। नन्हें यादव की हत्या एकाएक नहीं हुई। उन्हें अपनी जान पर खतरे का पहले से ही अहसास था। उन्होंने पुलिस को भी उसकी सूचना दे रखी थी। पुलिस सुरक्षा की भी उन्होने मांग की थी। पर प्रधान को पुलिस सुरक्षा नहीं मिली और उनकी हत्या हो गई। फिर उनके समर्थकों ने उन लोगों पर हमला बोल दिया, जिन पर उन्हें हत्या को अंजाम देने का शक था। हमले के बाद दुतरफा लड़ाई शुरू हो गई थी। डीएसपी जिया उल हक उस संघर्ष को रोकने के लिए ही वहां गए थे। कहते हैं कि जिन लोगों ने नन्हें यादव को मारा था, उनके तार राजा भैया से जुड़े हुए थे। राजा भैया के एक ड्राइवर गुड्डू सिंह के साथ प्रधान नन्हें यादव का जमीन को लेकर झगड़ा था।
यानी राजा भैया और प्रधान के समर्थकों के बीच हिंसक झड़प् को रोकने के लिए ही डीएसपी वहां पहुंचे थे और खुद भी उस हिंसा के शिकार हो गए। अभी यह पता नहीं चल रहा है कि उनकी हत्या करने वाले प्रधान नन्हें यादव से जुड़े लोग थे या राजा भैया के कथित समर्थकों में से किसी ने उनकी हत्या की। उस हिंसक झड़प में प्रधान नन्हें यादव का भाई सुरेश यादव भी मारा गया। सुरेश यादव अपने प्रति़द्वंद्वी गुट की गोलियों का शिकार हुआ या पुलिस की गोली से मारा गया, इसके बारे में भी अभी कुछ दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। जांच के बाद ही पता चलेगा कि सुरेश यादव और डीएसपी की मौत किस पक्ष द्वारा चलाई गई गोली से हुई।
यहां सवाल यह भी उठ रहा है कि डीएसपी की मौत के साथ ही दो अन्य ग्रामीणों की भी मौत हुई थी, उनकी मौत पर मुख्यमंत्री ने वह संवेदनशीलता क्यों नहीं दिखाई, जो डीएसपी के मामले में दिखाई थी? नन्हें यादव का पूरा परिवार भी अनशन पर बैठने को मजबूर हो गया और उन लोगों ने जहर खाकर आत्महत्या करने की धमकी दी, तब मुख्यमंत्री ने वहां भी आने की घोषणा कर दी। वहां जाने मे आखिर मुख्यमंत्री ने विलंब से निर्णय क्यों लिया? जाहिर है, डीएसपी के किसी खास समुदाय से होने के कारण वे ज्यादा संवेदनशील थे। सांप्रदायिक राजनीति के तकाजे से वे डीएसपी की हत्या को तवज्जो देते दिखे, तो जातिवादी राजनीति के तकाजे से वे नन्हें यादव के परिवार पर मरहम लगाते दिख रहे हैं।
हत्याओं को सांप्रदायिक और जातिवादी चश्मे से देखने का यह तरीका खतरनाक है। दुर्भाग्य से यह उत्तर प्रदेश की नियति बन गई है। समुदाय के चश्मे से पुलिस बल को देखा जाना कतई उचित नहीं। इसके कारण पुलिस बल में कमजोर तबके और जातियों के पुलिस अधिकारियों और जवानों का मनोबल गिर रहा है। मुसलमान उत्तर प्रदेश की आबादी के साढ़े 18 फीसदी हैं, लेकिन अनेक ऐसी जातियां वहां हैं, जिनकी आबादी दो फीसदी, एक फीसदी या उससे भी कम है। वे कोई बड़ा दबाव समूह नहीं हैं। उनकी जाति समाज के लोगों की राजनीति में या तो पहचान नहीं है या बहुत कमजोर है। तो फिर वे क्या करें?
अपराधीकरण से भी उत्तर प्रदेश की राजनीति का पीछा नहीं छूट रहा है। राजा भैया के मामले को ही लें। कभी मुख्यमंत्री के रूप में कल्याण सिंह ने उन्हें कुंडा का गुंडा कहा था, लेकिन बाद में वे उनकी ही भाजपा सरकार में मंत्री बन गए थे। मायावती की बसपा सरकार में भी राजा भैया मंत्री थ,े हालांकि बाद में मायावती ने उन्हें गुंडा एक्ट में जेल के अंदर भी डाल दिया था। समाजवादी पार्टी की सरकार में भी राजा भैया मंत्री बन गए। अब उनके ऊपर डीएसपी की हत्या की साजिश का आरोप लग चुका है और वे अपने मंत्री पद से इस्तीफा भी दे चुके हैं। सवाल उठता है कि आखिर राजा भैया जैसे लोग सभी पार्टियों के लिए जरूरी क्यों हो जाते हैं? इस तरह के अनेक सवाल आज कुंडा के डीएसपी हत्या कांड के बाद उठ रहे हैं। (संवाद)
कुंडा कांड से उठते सवाल
सांप्रदायिक नजरिए से डीएसपी की मौत को क्यों देखें?
उपेन्द्र प्रसाद - 2013-03-06 13:08
उत्तर प्रदेश के कुंडा की घटना जिसमें एक डीएसपी की हत्या हुई और जिसके बाद राजा भैया को अपने मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा, कोई अभूतपूर्व घटना नहीं है। देश की सबसे अधिक आबादी वाला प्रदेश अरसे से आपराधिकरण, भ्रष्टाचार, जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति का शिकार हो गया है और उस स्थिति से निकलने का फिलहाल कोई संकेत भी नहीं मिल रहा है। डीएसपी की हत्या और उसके बाद की घटनाओं में सबकुछ यानी जातिवाद, सांप्रायिकता, अपराधीकरण और भ्रष्टाचार एक साथ दिखाई पड़ रहे हैं।