हालांकि अंतिम समय में इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने थोड़ी कवरेज दी तथा चुनाव परिणाम की खबरें प्रसारित की, लेकिन इससे उपेक्षा की भरपाई नहीं हो सकती थी। ऐसा नहीं है कि इन चुनावों का महत्व राष्ट्रीय दृष्टिकोण से नहीं है। आखिर त्रिपुरा और नागालैंड के उग्रवादी पृथक्कतावादी संघर्ष पूरे देश की चिंता का कारण रहे हैं। सीमावर्ती राज्य होने के कारण हमारी सुरक्षा की दृष्टि से इनका महत्व अन्य कई राज्यों से ज्यादा हैं। ऐसे में इनके चुनाव परिणामों का राष्ट्रीय महत्व स्वयमेव स्पष्ट हैं।
आरंभ त्रिपुरा से करते हैं। त्रिपुरा का परिणाम इस मायने में महत्वपूर्ण है कि वाममोर्च ने प. बंगाल व केरल के लाल दुर्ग ढहने के बाद चैथी बार इस दुर्ग को बचाने में कामयाबी पाई है। निश्चय ही यह परिणाम माकपा एवं सम्पूर्ण वाम मोर्चे के चेहरे पर छाई निराशा को कम करेगा। सत्तारुढ़ माकपा को 49 स्थान मिले जो 2008 के चुनाव से 3 अधिक है और उसकी साथी भाकपा ने भी एक स्थान प्राप्त किया, जबकि कांग्रेस 10 पर ही अटकी रही। विश्लेषक विजय को माकपा की बजाय 64 वर्षीय लोकप्रिय मुख्यमंत्री माणिक सरकार की विजय बता रहे है। सरकार 1998 से लगातार वहां चुनाव जीत रहे हैं और यह चैथी जीत भी उनके नेतृत्व में ही हुई है। वे अपनी धानपुर सीट आसानी से जीत गए। त्रिुपरा जाने वाला कोई भी माणिक सरकार की सादगी, प्रशासन पर उनकी पकड़ए जनता और प्रशासन के बीच सीधे रिश्ते के उनके द्वारा विकसित किए गए तंत्र तथा विकास के कदमों आदि से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। सच कहें तो त्रिपुरा भारत में संसदीय लोकतंत्र का बहुत हद तक आदर्श रूप है। वह पहला राज्य है जहां एक आम मजदूर या रिक्शाचलक सीधे प्रदेश के मुख्य सचिव से मोबाइल पर बात कर सकता है और उससे मिल सकता है। माणिक सरकार ने प्रदेश की पेन्शन योजना में हर वर्ग के वरिष्ठ नागरिकों को शामिल किया है जो समय पर उन तक पहुंच जाता है।
इस तरह त्रिपुरा में ऐसे अनेक जन अभिमुख कार्यक्रम हैं जो अन्य राज्यों से उसे विशिष्ट बनाते हैं और छोटे-छोटे व्यक्ति के बीच मुख्यमंत्री माणिक सरकार की लोकप्रियता सिर चढ़कर बोलती है। यहां तक कि दूसरी पार्टियों के समर्थकों में भी उनका सम्मान है। त्रिपुरा के लगभग सारे गांव सड़कों से जुड़ चुके हंैं। जिस ढंग से उग्रवादी गतिविधियां समाप्ति पर आईं हैं उससे उनकी छवि में सुधार हुआ है। हालांकि इसमें बंगलादेश में शेख हसीना की सरकार आने का भी योगदान है, क्योंकि अब सीमा पर दोनों ओर से सहयेाग बढ़ा है और उग्रवादियों के लिए गतिविधयां चलाना कठिन हो गया है। निश्चय ही कांग्रेस के लिए त्रिपुरा चुनाव धक्का पहुंचाने वाला है। उसके साझेदार दल इंडिजेनस नेशनलिस्ट पार्टी औफ त्रिपुरा को एक भी स्थान नहीं मिला। उग्रवाद से मुख्यधारा की राजनीति में आए उसके अध्यक्ष बिजाॅय कुमार हृंखवाल अम्बास्सा से पराजित हो गए। हालांकि तृणमूल कांग्रेस ने अपनी स्थिति भांपकर वहां चुनाव नहीं लड़ा एवं उसके काफी कार्यकर्ता वहां कांग्रेस के समर्थन में काम कर रहे थे, पर त्रिपुरा में कांग्रेस की पराजय अवश्यंभावी थी। माणिक सरकार के मुकाबले कोई नेता उनके पास नहीं है और पार्टी के अंदर आंतरिक विभाजन इतना तगड़ा था कि चाहकर भी कांग्रेस मुख्यमंत्री पद के लिए नाम तय नहीं कर पाई। पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री समीर रंजन बर्मन तक बिसालगढ़ क्षेत्र से पराजित हो गए। उनके पुत्र एवं प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सुदीन राॅय हालांकि अगरतल्ला सीट से जीत गए, पर उन्होंने परिणाम को अनपेक्षित बताया।
इसके समानांतर मेघालय का परिणाम कांग्रेस के लिए दोहरी खुशियां लाने वाली हैं। न केवल मुकुल संगमा के नेतृत्व में उसकी सरकार वापस आई, बल्कि पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पी. ए. संगमा को अपने जीवन की सबसे बुरी पराजय का सामना करना पड़ा। 60 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस ने 29, युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट ने 8, संगाम की नेशनल पीपुल्स पार्टी या एनपीपी ने केवल 2 स्थान प्राप्त किए, जबकि 21 स्थान अन्य दलों व निर्दलीयों को मिला। निर्दलीयों की संख्या यहां 13 है। पी. ए. संगमा ने राकांपा से अलग होकर नेशनल पीपुल्स पार्टी का गठन किया था, जिसे मतदाताओं ने नकार दिया। उनके बेटे कोनार्ड को भी पराजय का मुंह देखना पड़ा। कोनार्ड पिछले विधानसभा में विपक्ष के नेता थे, क्योंकि तब संगमा परिवार राकांपा में था जिसने 15 स्थानों पर विजय पाई थी। हां संगमा के बड़े भाई जेम्स संगमा ने अवश्य अपनी दादेन्ग्र सीट बचा ली। इसके विपरीत मुकुल संगमा की पत्नी डिकान्ची ड शिरा ने महेन्द्रगंज तथा भाई जेनिथ ने भी विजय प्राप्त की। ऐसा लगता है कि मुकुल संगमा ने स्थिरता का जो नारा दिया वह लोगों को ज्यादा अपील कर गई, क्योंकि मेघालय ने 41 वर्षों में 23 मुख्यमंत्री देखे हैं। कुल मिलाकर यह पी. ए. संगमा के लिए ऐसा तगड़ा राजनीतिक आघात है जिससे उबरना उनके लिए आसान नहीं होगा। प्रदेश के चुनावी प्रदर्शन पर ही देश की राजनीति में उनका कद निर्धारित हो सकता था। वे राकांपा में हैं नहीं और उनकी अपनी पार्टी केवल नाम लेने के लिए विधानसभा में है।
नागालैंड में मुख्य लड़ाई कांगे्रस एवं नागा पीपुल्स फ्रंट के बीच थी जिसमें फ्रंट ने पुनः बाजी मारी। फ्रंट ने 38, कांग्रेस ने 8, राकांपा ने 4 तथा अन्यों ने 10 स्थान पाए। नेईफियू रिओ उत्तरी अंगामी द्वितीय विधानसभा क्षेत्र से छठी बार विजय प्राप्त कर तीसरी बात मुख्यमंत्री पद की कमान संभाली है। हालांकि वे एक-एक स्थान जीतने वाली भाजपा एवं जनता दल-यू के साथ मिलकर सरकार चलाएंगे, पर यह केवल चुनाव पूर्व समझौते का पालन करने के कारण, अन्यथा उन्हें बहुमत के लिए किसी दल के समर्थन की आवश्यकता नही। फ्रंट की जीत वस्तुतः क्षेत्रीय नागा स्वाभिमान की सोच की जीत है। कांग्रेस ने स्थिरता, शांति और विकास का नारा दिया तो फ्रंट ने क्षेत्रीयता, विकास, शांति एवं नागा स्वाभिमान का। फं्रट ने लोेगांें में विश्वास पैदा किया कि क्षेत्रीय शक्तियां उनके लिए ज्यादा अनुकूल हैं, क्योंकि यहां कोई दिल्ली का आलाकमान नहीं, सीेधे उनके साथ जुड़ा है तथा अगर स्थानीय दल की सरकार मजबूत होगी तो केन्द्र को उनकी बात सुननी पड़ेगी। रियो और फ्रंट दोनों की छवि स्वच्छ है और बहुमत नागाओं ने भी मान लिया है कि भारत के साथ रहने मेें ही उनका हित है। इसलिए जब रियो ने नागा शांति वार्ता को आगे बढ़ाने की भूमिका निभाने की बात की तो लोगों को वह अपील कर गई। सरकार और संगठन के बीच तालमेल इतना जबरदस्त है कि कभी कोई द्वंद्व उभरता ही नहीं। संगठन का तंत्र काफी सशक्त एवं सक्रिय है। कांगे्रस पर लोगों ने विश्वास नहीं किया। चुनाव के ठीक पूर्व फ्रंट ने पूर्व मुख्यमंत्री एवं कांग्रेस नेता एस. सी. जमीर की एक चिट्ठी प्रकाशित कर दी जिसमें केन्द्र से गिड़गिड़ाने की भाषा में मदद की अपील की गई थी। इसका व्यापक असर हुआ।
इस तरह अगर तीनों राज्यांे के चुनावी संदेशों को बारीकी से पढ़ें तो इसमें कई बातें उत्साहजनक एवं भारतीय लोकतंत्र की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। आम धारणा के विपरीत त्रिपुरा एवं नागालैण्ड में उग्रवादी तत्व चुनाव पर प्रभाव डालने में बिल्कुल सफल नहीं हुए। त्रिपुरा में इनके बहिष्कार के आह्वान के बावजूद भारी मतदान हुआ। नागालैंड में भी लोगों ने भारत के अंग के साथ क्षेत्रीयता, शांति, विकास का समर्थन किया। यानी ये परिणाम प्रकारांतर से स्थायी शांति स्थापना के लिए जनता की सामूहिक चाहत के प्रतिबिम्ब हैं। मेघायल में भी मतदाताओं ने सकारात्मक लक्ष्यों से विहीन क्षेत्रीयता को लगभग अस्वीकार कर दिया गया। तीनों राज्यों में ईमानदार, स्वच्छ और जनता से सीधे जुड़े उम्मीदवारों, पार्टियों को बहुमत का समर्थन मिलना यकीनन सुखद है। अगर इन चुनावों को पर्याप्त महत्व दिया जाता तो यह पूरे देश के लिए राजनीति और लोकतंत्र के लिए प्रेरणा का कारण बन सकता था। वास्तव में इन तीनों राज्यों के चुनावों में ऐसा बहुत कुछ है जिनसे हम सीख सकते हैं। लोकतांत्रिक व्यवहार के लिए ये वाकई मिसाल हैं। अब यह हमारी और केन्द्र सरकार की जिम्मेवारी है कि उनके साथ संवेदनशील रिश्ता बनाए रखकर उनकी आकांक्षाओं को विश्वसनीय तरीके से पुष्ट करने तथा उसके माध्यम से उनमें राष्ट्रीय संस्कार घनीभूत करने की कोशिश करें। (संवाद)
उत्तरपूर्व के तीन राज्यों के चुनावी संकेत
लोकतांत्रिक व्यवहार के लिए ये वाकई मिसाल हैं
अवधेश कुमार - 2013-03-09 11:56
उत्तरपूर्व को भारत का स्वर्ग मानने की चाहे जितनी कहावतें हमारे जेहन में भरीं गईं हों, वहां की आम राजनीतिक गतिविधियां मीडिया में वैसी सुर्खियां नहीं पातीं जिनकी वे हकदार हैं। आप देख लीजिए, तीन प्रमुख राज्यों त्रिपुरा, नागालैंड एवं मेघायल में चुनाव प्रक्रिया समाप्त हो गई, पर हमने इसकी वैसी चर्चा नहीं की जैसी आम उत्तर या दक्षिण भारतीय राज्यों के चुनाव की करते हैं।