लोकसभा में भाजपा का नेता विपक्ष का भी नेता होता है और उस हैसियत से उसका दर्जा एक कैबिनेट मंत्री के बराबर होता है। यह दर्जा अब श्री आडवाणी से छिन गया है। आडवाणी को दस दर्जे के छिन जाने का मलाल जरूर होगा। उन्होंने यह कहकर कि वे जिंदगी भर रथयात्री बने रहेंगे, यह संकेत दे दिया है कि वे जीते जी राजनीति को नहीं छोड़ेंगे।

आडवाणी को जिस तरीके से लोकसभा में पार्टी के नंता पद से हटाया गया, उससे भी खराब तरीके से जिन्ना प्रकरण के बाद उन्हें पार्टी के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया था। तग बहुत लोगों को लगा था कि उनका राजनैतिक जीवन समाप्त हो गया है। लेकिन जिन लोगों ने उन्हें अध्यक्ष पद से हटाया था, उनलोगों को ही आडवाणी को पार्टी के अंदर सर्वोच्च नेता के रूप में फिर से स्वीकार करना पड़ा। उन्हें दुबारा इसलिए स्वीकार किया गया, क्योंकि आडवाणी को हटाकर जिस राजनाथ सिंह को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया था, वे पार्टी को प्रभावी नेतृत्व देने में विफल हो रहे थे और गुजरात विधानसभा के चुनाव के समय नरेन्द्र मोदी का कद आडवाणी व वाजपेयी को छोड़कर भाजपा के अन्य सभी नेताओं से लंबा खिंच गया था। इसलिए गुजरात चुनाव परिणाम के आने के पहले ही आडवाणी की भाजपा के सर्वोच्च नेता के रूप में ताजपोशी कर दी गई। उन्हें भाजपा का 2009 के लोकसभा चुनाव का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया गया।

आडवाणी की वापसी इसलिए हुई क्योंकि राजनाथ सिंह विफल रहे। राजनाथ सिंह की सफलता का सबसे बड़ा पैमाना उत्तर प्रदेश में भाजपा की हैसियत थी। राजनाथ सिंह, जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तो उस समय हुए चुनाव में पार्टी उत्तर प्रदेश में पहले नंबर से दूसरे नंबर पर लुढ़क गई थी। जब उन्हें भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया और उसके बाद वहां जो विधानसभा के चुनाव हुए, उसमें पार्टी दूसरे स्थान से लुढ़ककर तीसरे पायदान पर आ गई। उन्हीं के अध्यक्ष रहते हुए भाजपा ने पिछला लोकसभा चुनाव लड़ा। उस चुनाव में तो पार्टी चैथे नंबर पर आ गई है। यानी राजनाथ सिंह के नेतृत्व में भाजपा उनके गृहराज्य में ही लगातार सिकुड़ती रही।

श्री गडकरी के भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या उनकी गति राजनाथ सिंह वाली ही होगी अथवा वे भाजपा की काया पलट करने में कामयाब हो जाएंगे? इस सवाल का जवाब तो खुद राजनाथ सिंह ने भी दिया है। उनका कहना है कि यदि गडकरी का अध्यक्ष के रूप में अपनी सत्ता का इस्तेमाल करने दिया गया तो वे सफल होगे। जाहिर है राजनाथ सिंह ऐसा कहकर अपने उत्तराधिकारी को आने वाली चुनौतियो से बागाह कर रहे हैं और उन्हें अपनी सत्ता का स्वतंत्र इस्तेतसन करने की नसीहत भी दे रहे हैं। राजनाथ सिंह यह कभी नहीं कहेंगे कि उन्हें अध्यक्ष के रूप में अपनी सत्ता का इस्तेमसल करने सक किसी ने रोका, लेकिन यह जग जाहिर है कि लोकसभा चुनाव के दौरान जब भाजपा अध्यक्ष ने सुधांशु मित्तल को एक छोटी सी राजनैतिक जिम्मेदारी दी थी, तो अरुण जेटली ने कितना तूफान मचाया था।

भाजपा अध्यक्ष के रूप में गडकरी का काम निश्चय ही बहुत चुनौतियों भरा है। आज भाजपा की हालत अपने गठन के बाद सबसे ज्यादा खराब है। 1985 में भाजपा को लोकसभा में जब मात्र 2 सीटंे मिली थीं और जब खुद वाजपेयी भी अपना चुनाव हार गए थे, तो उस समय भी भाजपा की स्थिति इतनी बुरी नहीं थी, क्योंकि तग पार्टी इतनी बड़ी नहीं थी और भाजपा हार के बावजूद कह सकती थी कि वह अन्य पार्टियो से अलग है और उन्हें बस एक बार आजमाया जाए, लेकिन अब तो भाजपा आजमायी हुई पार्टी है और यह अपने आपको दूसरों से अलग होने का प्रमाणपत्र भी नहीं दे सकती। एक पार्टी में जितनी तरह की बुराइयां हो सकती हैं, उन सबका दर्शन लोगों ने भाजपा में किया है। रुपया लेकर सवाल पूछने का मामला हो अथवा विकास निधि के खर्च में दलाली खाने का, सबमें भाजपा अन्य पार्टियों के ऊपर भारी पड़ी है।

जाहिर है भाजपा की राजनीति के ऊपर नैतिकता का संकट भी मंडरा रहा है। नैतिकता के धरातल पर अन्य पार्टियों से ऊंचा होने का दंभ भाजपा अब भर नहीं सकती। उसकी एक बड़ी समस्या अब अपने आपको कांग्रेस से अलग पार्टी के रूप में दिखने की है। अयोध्या में राम मंदिर तथा मुसलमानों से जुड़े उसके द्वारा उठाए जाने वाले कुछ मसले उसे कांग्रेस से अनग करते हैं, लेकिन मुस्लिम विराधी उसके वे मसले अब अपनी धार खो बैठे हैं। भाजपा ने 2004 में सत्ता गंवाने के बाद राम जन्मभूमि के मसले को कई बार भड़काने की कोशिश की, लेकिन वह हर बार विफल हुई। वरुण गांधी को माध्यम बनाकर उसने पिछले लोकसभा चुनाव में भी मुस्लिम विरोध की कथित हिन्दुत्ववादी राजनीति को आजमाना चाहा, लेकिन उसे उसमें भी करारी मात मिली। उसे यह पता ही नहीं चल पा रहा है कि वह किस मसले की राजनीति करे। आतंकवाद को भी उसने कई बार राजनैतिक मुद्दा बनाने की कोशिश की, लेकिन यह मसला उसकी चुनावी फसल की उपज नहीं बढ़ाती।

यानी नये भाजपा अध्यक्ष नीतीन गडकरी को अब एक साथ ही बहुत सारे मोर्चे को संभालना पड़ेगा। उन्हें कथित राष्ट्रीय नेताओं के आभामंडल से बड़ी आभा अपने चेहरे के चारों ओर तैयार करनी होगी। पार्टी के गिरे नैतिक धरातल को ऊपर उठाना होगा। प्रभावी तथा लोगों द्वारा स्वीकार्य मसलों की राजनीति करनी होगी। अनशासनहीन पार्टी की छवि को धोना भी उनकी प्राथमिकता होगी। उन्हे एक नई टीम भी बनानी पड़ेगी, जिसके सदस्य बदलते समय की चुनौतियों सक वाकिफ हों। और सबसे बड़ा काम तो उन्हे अपने गृहराज्य महाराष्ट्र में पार्टी को बाल ठाकरे के बाद की राजनीति के लिए तैयार करना होगा। उनका अपना गृहराज्य क्षेत्रीय राजनीति का गढ़ बनता जा रहा है और वह क्षेत्रीयतावाद हिन्दी प्रदेशों के खिलाफ है। कहने की जरूरत नहीं कि हिन्दी प्रदेश भाजपा की मुख्य भूमि है। महाराष्ट्र का क्षेत्रवाद भाजपा को वहां ही नहीं, अल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी प्रभावित करने की क्षमता रखता है, क्योंकि अब इसका अध्यक्ष महाराष्ट्र का है। इतनी सारी चुनौतियो के बीच यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा अपनी पुरानी ऊंचाई किस तरह हासिल करती है। (संवाद)