अगर तिहाड़ जैसे देश के सर्वप्रमुख जेल में इस तरह कैदी सजा पाने के पूर्व ही अपना प्राणांत करने को विवश होता है या उसे मार डाला जाता है तो इसका अर्थ है कि अपराध न्याय प्रणाली के महत्वपूर्ण अंग जेलों की दशा हमारी कल्पना से ज्यादा भयावह है। पर इसके अलावा इन घटनाओं का क्या महत्व हो सकता है! लेकिन यह हमारा देश है जहां हर अस्वाभाविक घटना को सनसनीखेज विवाद बना देना ज्ञानी होने का सबसे बड़ा प्रमाण माना जाता है। बेशक, राम सिंह यदि न्यायालय के आदेश से फांसी के फंदे पर झूलता तो उसकी मौत स्वाभाविक मानी जाती, लेकिन उसने खुदकुशी की है या फिर जेल के अंदर उसकी हत्या की गई है, इस पर मृत युवती की मां का कहना था कि ’हमें इससे कोई मतलब नहीं है कि उसके साथ क्या हुआ। हम तो मानते हैं कि यह ईश्वर का न्याय है।’ यहां तक कि दुष्कर्म के आरोपियों को फांसी देने की मांग को लेकर धरना- प्रदर्शन करने वालों मंे से एक वर्ग ने भी यही भाव प्रदर्शित किया है। सच कहें तो खबरों की चीरफाड़ की बीमारी से ग्रस्त हम पत्रकारों के अलावा ज्यादातर लोगों की राय यही है। उसकी मृत्यु पर किसी को कोई गम नहीं। आखिर एक समय उसने स्वयं न्यायालय में निवेदन किया ही था कि उसे फांसी दे दी जाए।
जाहिर है, आम लोगों की प्रतिक्रिया यही है कि उसे तो मरना ही था, इसलिए मृत्यु का लंबे समय तक इंतजार करने की जगह उसने पहले ही अपना काम तमाम कर लिया। लोग कह रहे हैं कि यह नहीं भूलिए के उसने तो अपने साथियों के साथ मृतका एवं उसके दोस्त को मरा हुआ समझकर ही फेंका था। देश मंे 16 दिसंबर 2012 की उस अकल्पनीय अपराध को लेकर जैसा माहौल है उसमें यदि उसे फांसी नहीं होती तो फिर नया तूफान खड़ा हो जाता। वास्तव में राम सिंह एवं उस दुष्कर्म में संलिप्त चार साथियों को यह कल्पना भी नहीं रही होगी कि वह कांड देश में इतने बड़े बवण्डर का कारण बन जाएगा, इसलिए वे मानसिक तौर पर असहनीय दबाव से गुजर रहे होंगे। फिर जेल में उनके साथ कैदियों का व्यवहार भी हिंसक घृणा का था और संभव है उनके प्रति सुरक्षा में लगे सिपाहियों का रवैया भी वैसा ही हो। आखिर ऐसे कुकर्मियों के प्रति आम तौर पर किसी की सहानुभूति हो ही नहीं सकती। राम सिंह ने यदि आत्महत्या की तो उसमें बर्बर कांड में अपनी भूमिका के अपराध बोध का भय और जेल के अंदर के प्रतिकूल व्यवहारों से उत्पन्न घबराहट की ही मुख्य भूमिका हो सकती है। मानसिक संतुलन वाला या अंदर से मजबूत कोई व्यक्ति वैसी दरिंदगी का व्यवहार नहीं कर सकता। ऐसे सारे अपराधी अंदर से कमजोर और मानसिक रुप से असंतुलित व्यक्ति होते हैं जिनकी सोच और कर्मों में एकरुपता या संगति ढूंढना मुश्किल होता है। ऐसे लोग अपराध के बाद समाज और कानूनी प्रक्रिया का सामना करने से घबराते हैं। इसलिए राम सिंह की आत्महत्या में आश्चर्य का कोई पहलू नहीं है।
हालांकि यह कहना कि उसके हाथों में रड लगे थे, इसलिए वह आत्महत्या के लिए फंदा आदि तैयार ही नहीं कर सकता, अतिवादी कल्पना ही नजर आती है। जो व्यक्ति बस चला सकता है, किसी लड़की के साथ कुछ ही मिनट में दो बार दुष्कर्म कर सकता है, वह फांसी का फंदा नहीं बना सकता इस पर विश्वास करना कठिन है। इसी तरह उसकी मृत्यु से अन्य आरोपियों के मुकदमे पर असर पड़ने की आंशका भी निरर्थक है। इससे केवल इतना होगा कि पुलिस न्यायालय में उसकी आत्महत्या की रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी और न्यायालय उससे मुकदमा खत्म कर देगा। किंतु शेष आरोपियों पर पहले के समान ही मुकदमा चलता रहेगा। अगर वह साक्ष्य होता तो शायद असर पड़ता, लेकिन वह तो स्वयं आरोपी था। किंतु अगर उसने आत्महत्या की तो उसका अवसर और उसके लिए रस्सी और फंदे तैयार करने में मिली कामयाबी गंभीर मामला है। वास्तव में राम सिह की मृत्यु हमारे लिए कोई मुद्दा है ही नहीं, उसकी मृत्यु किस तरह हुई यह मुख्य मुद्दा है, क्योंकि इसमें चेतावनी निहित हैं। कहा जा रहा है कि उसने डिब्बों को पैक करने वाली रस्सी और दरी के धागों से फंदा तैयार किया तथा प्लास्टिक की बाल्टी का सहारा लेकर ग्रील तक पहुंचा। जेल में इतना कतई संभव नहीं होना चाहिए था। यही बातें उसके बाद आत्महत्या करने वाली महिला पर लागू होती है। इसका अर्थ यह भी है कि अगर ऐसा कैदी, जिसका जिन्दा रहना कई दृष्टियों से आवश्यक हो, वह भी अपना काम इस तरह तमाम कर सकता है। अगर उसके दिल में हमारी सुरक्षा में संेध संबंधी कोई राज है तो वह उसके साथ ही चला जाएगा। इस नाते यह गंभीर घटना है।
सरकारी रिपोर्ट बताती है कि हर वर्ष औसत 40 कैदी आत्महत्या कर लेते हैं। नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड्स ब्यूरो की 2011 की रिपोर्ट में 68 कैदियों के आत्महत्या करने का आंकड़ा है। जेलांे में आत्महत्या! ऐसी घटना की तो कल्पना तक नहीं की जानी चाहिए। किंतु ऐसा हो रहा है। इस पर अध्ययन करने वालों ने कई कारणों को रेखांकित किया है। इनमंें क्षमता से अधिक कैदियों के कारण व्यवस्था चरमरा जाने के प्रमुख कारण माना गया है। अगर किसी जेल की क्षमता के डेढ़ गुणा, दो गुणा, ढाई गुणा अधिक कैदी रखे जाएंगे तो उनकी दुर्दशा होगी ही। तिहाड़ जेल की क्षमता करीब साढ़े छः हजार कैदियों की मानी जाती है, पर यहां औसतन 12 हजार कैदी हमेशा रहते हैं। इतने लोगों के खाने-पीने, रहने, सोने, शौच, स्नान आदि के लिए उपयुक्त व्यवस्था, स्वास्थ्य का उचित परीक्षण व देखभाल तथा सुरक्षा व निगरानी भी पूरी तरह संभव नहीं। इस कारण जेल अनेक कैदियों के लिए यातना स्थल बन जाता है। ऐसे माहौल से कैदी उबते हैं और कई बार अवांछित कदम उठा लेते हैं। भारत की जेलांे में मानसिक स्वास्थ्य जांच और उस पर निगरानी रखने की वैसी व्यवस्था भी नहीं जैसी अमेरिका सहित विकसित देशों में है। उन देशांे में स्वास्थ्य जांच में ही आत्महत्या प्रवृत्ति की जांच का एक काॅलम है। इसके चिन्ह मिलते ही उसे आत्महत्या संभावी श्रेणी में डालकर कड़ी नजर रखी जाती है तथा मनो चिकित्सकों या प्रशिक्षित व्यक्तियों से उसकी काउंसेलिंग कराई जाती है। जेलों के संबंधित कर्मचारियों को भी उसके अनुसार प्रशिक्षित किए जाने की व्यवस्था है। हमारे यहां की जेलों में इस प्रकार की व्यवस्था का अभाव है। जाहिर है, राम सिंह की मृत्यु ने पूरे शिद्दत से इस बात को रखांकित किया है और इस दिशा में कदम उठाए जाने चाहिए। जेल सुधार के एजेंडे में आत्महत्या प्रवृत्ति की पहचान और उसे रोकने के उपाय भी शामिल होने चाहिए।
किंतु अगर राम सिंह की मृत्यु में उसे ऐसा करने के लिए विवश करने का पहलू है तो फिर तिहाड़ जेल के लिए डूब मरने की बात है। आखिर जेल की आंतरिक स्थिति ऐसे जंगल राज की कैसे हो सकती है जहां किसी कैदी को, चाहे वह कितने भी बर्बर अपराध का आरोपी या अपराधी हो उसे मरने के लिए विवश किया जाए। इसका एक संदेश तो यह हो सकता है कि ऐसे कुकर्म करने वालों से अपराधी भी घृणा करते हैं। आखिर जेल में तो अपराधी और आरोपी ही कैद होते हैं। इससे ऐसे इरादा रखने वालों के अंदर यह भय पैदा होगा कि जेल में कैदी भी उन्हें मार सकते हैं। पर कानून के राज की दृष्टि से यह खतरनाक स्थिति है। समय-समय पर देश के कई भागों से जेलों में मारपीट और कई बार गोली चलने तक की घटनाएं सामने आतीं रहतीं हैं। यह स्थिति असह्य और सर्वथा अनुचित है। जेलों की कल्पना कभी यातनास्थलों की रही होंगी, अब सजा के साथ सुधार गृहों के रुप में इसके विकसित करने पर वैश्विक सहमति है। अगर किसी से अपराध हुआ तो जेलों मेें उसे स्वाभाविक पश्चाताप एवं आत्मसुधार की प्रेरणा का उपयुक्त माहौल होना चाहिए। इससे अपराध को अंजाम देकर अंदर जाने वाले बाहर आंए तो एक बदले हुए अच्छे इन्सान के रूप में। यानी जेल का माहौल अपराध और बुराई के परित्याग तथा अच्छाई को प्रवृत्त करने वाला होना चाहिए। राम सिंह की घटना ने इसके विपरीत स्थिति को चिन्हित किया है। जिस महिला ने आत्महत्या की उस पर लगे आरोप ही संदेहास्पद हैं। उसके साथ क्या हुआ? क्या वह पुलिस और न्याय व्यवस्था के सामने लाचार हो गई थी? या जेल में उसका शोषण हो रहा था?
तो कुल मिलाकर राम सिंह का जाना हमारे लिए आंसू बहाने या छाती पीटने का मामला नहीं है। ऐसे दरिंदों का हश्र हमेशा बुरा हो यही कामना प्रायः हर व्यक्ति की रहती है। न जाने दुनिया में कितने ऐसे कुकर्मी आत्महत्या या हत्या के शिकार हुए और माता-पिता व संबंधियों के अंदर उठने वाले हूक के अलावा किसी को उस पर अफसोस नहीं होता। इसलिए राम सिंह को हीरो बनाना उचित नहीं। किंतु इस तरह जेल में आत्महत्या या हत्या एक खतरनाक स्थिति है जिस पर हर हाल में विराम लगना चाहिए।(संवाद)
तिहाड़ जेल में आत्महत्याएं
यह जेलों की खतरनाक स्थिति का प्रणाम है
अवधेश कुमार - 2013-03-16 10:49
दिल्ली बर्बर दुष्कर्म का आरोपी राम सिंह मर गया। यकीनन उसकी मौत से जेल में कैदियों की सुरक्षा का मामला पुनः एक बार डरावने रूप मे ंसामने आया है, जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। यह पहलू इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि उसके तीन दिन बाद अपहरण के आरोप में बंद एक महिला कैदी ने तिहाड़ में ही आत्महत्या कर ली।