नीतीश कुमार की इस कोशिश को रैली के दिन ही एक बड़ा झटका पटना में लगा, जब उनकी सरकार में उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने घोषणा कर दी कि बिहार प्रदेश भाजपा नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने के पक्ष में है और उन्होंने गुजरात के मोदी के साथ अपने रिश्तों को लेकर मीडिया में चल रही अटकलों को भी खारिज कर दिया। बिहार के मोदी का कहना था कि गुजरात के मोदी के साथ उनका 35 साल पुराना रिश्ता है और दोनों के संबंध बहुत अच्छे हैं। दोनों के संबंधों के बीच की कथित कड़वाहट को उन्होंने मीडिया की उपज बता दिया।

पर क्या सुशील और नरेन्द्र मोदी के बीच के रिश्तों के बारे में मीडिया अपनी तरफ से कहानियां गढ़ रहा था? क्या यह सच नहीं है कि सुशील मोदी ने कभी नरेन्द्र मोदी से बेहतर प्रधानमंत्री उम्मीदवार नीतीश कुमार को बताया था? क्या यह सच नहीं है कि उन्होंने अनेक बार ऐसे बयान जारी किए जिससे साफ पता चलता था कि वे गुजरात के मुख्यमंत्री को दी जा रही तवज्जों के हक में नहीं थे और जब जब नीतीश कुमार और उनके समर्थकों द्वारा नरेन्द्र मोदी पर हमले हुए, तो उन्होंने हमेशा उस पर चुप्पी साध ली, जबकि पार्टी में उनके विरोधी अश्विनी कुमार चैबे, गिरिराज सिंह और सीपी ठाकुर नरेन्द्र मोदी का पक्ष लेते रहे? क्या यह सच नहीं है कि नरेन्द्र मोदी के किसी समर्थक को पार्टी अध्यक्ष बनाने का उन्होंने पुरजोर विरोध किया और इसमें वे सफल भी रहे? क्या यह सच नहीं है कि बिहार प्रदेश भाजपा कार्यकारिणी के गठन में उन्होंने नरेन्द्र मोदी समर्थक लोगो की उपेक्षा कर दी?

सच तो यह है कि दिल्ली की रैली के पहले तक वे लगातार नीतीश समर्थक और नरेन्द्र मोदी विरोधी हरकतें करते रहे, लेकिन रैली के दिन ही उन्होंने नरेन्द्र मोदी के पक्ष में बयान जारी कर प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में उन्हें प्रोजेक्ट करने पर अपनी सहमति का बयान जारी कर डाला। यही नहीं उन्होंने नीतीश कुमार को यह चेतावनी भी दे डाली कि यदि उन्होंने डूबते जहाज (कांग्रेस) की सवारी की तो वे भी उसके साथ डूब जाएंगे।

यानी दिल्ली रैली के दिन ही नीतीश कुमार का पटना में एक मजबूत विकेट गिर गया। सुशील मोदी ने अपने सुर क्यों बदले, इसकी भी अपनी एक कहानी है, लेकिन इससे यह स्पष्ट हो गया है कि रैली के द्वारा भाजपा पर नरेन्द्र मोदी को आगे नहीं करने का दबाव डालने की नीतीश की राजनीति पराजित हो गई है। गुजरात के मोदी का अपनी पार्टी में समर्थन का दायरा और भी बढ़ गया है। सुशील मोदी के नरेन्द्र मोदी के समर्थन में खुलकर आ जाने के बाद बिहार में नीतीश के ऊपर भाजपा नेताओं का हमला और भी तेज हो सकता है, जिसके कारण कारण दोनो राजग घटकों की दूरी लगातार बढ़ती जाएगी।

फिलहाल भाजपा के नेतृत्व ने आगामी अप्रैल महीने में होने वाली अपनी हुंकार रैली की तारीख को बढ़ाकर 27 अक्टूबर कर दिया है। इसका सबसे बड़ा कारण नरेन्द्र मोदी ही हैं, क्योंकि उस रैली में वक्ताओं के बीच नरेन्द्र मोदी के गुणगाण करने की होड़ लगने की संभावना थी और रैली में आए लोग अगले प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में गुजरात के मुख्यमत्री के नाम का प्रस्ताव पारित करने के लिए भी दबाव डाल सकते थे। ऐसा प्रस्ताव पारित होने के बाद नीतीश कुमार सरकार से भाजपा को बाहर भी आना पड़ सकता है।

यही कारण है कि भाजपा ने अब रैली की तारीख बढ़ाकर 27 अक्टूबर की कर दी है, ताकि बिहार में तबतक राजग की सरकार बनी रहे। पर यदि नीतीश चाहें, तो सरकार से भाजपा को बाहर जाने का रास्ता वे पहले भी दिखा सकते हैं। 243 विधायकों वाली विधानसभा में बहुमत के लिए 122 विधायकों की जरूरत पड़ती है और नीतीश के जनता दल (यू) के पास 118 विधायक हैं। कांग्रेस के 4 विधायकों के साथ वे बहुमत बरकरार रख सकते हैं। कुछ निर्दलीय विधायकों का समर्थन भी उनके दल को हासिल हो सकता है। यानी अपनी सरकार को बचाने के लिए नीतीश कुमार भाजपा पर निर्भर नहीं हैं, हालांकि यह दूसरी बात है कि कम बहुमत के कारण विधायकों की मांगों का दबाव उनके ऊपर बढ़ जाएगा और उन विधायकों की मांगों को पूरा करते रहना उनके लिए आसान नहीं होगा। यही कारण है कि नीतीश कुमार भी जबतक संभव होगा भाजपा के सहयोग से ही अपनी सरकार चलाते रहना चाहेंगे।

बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग पर एक कमिटी गठन करने की बात करके केन्द्र सरकार और कांग्रेस ने भी नीतीश को अपनी ओर खींचने की कोशिश की है। नीतीश कुमार और उनका दल पहले से ही कांग्रेस की ओर बढ़ते अपनी रुझान को छिपा नहीं पा रहे हैं। राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार का समर्थन दिया था और जब ममता बनर्जी ने यूपीए सरकार से समर्थन वापस लिया था, तो नीतीश कुमार ने तत्काल यूपीए सरकार को स्थायित्व प्रदान करने वाले बयान अपनी अधिकार यात्रा के दौरान जारी कर दिया था और कहा था कि जो कोई भी बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देगा, वे उसका समर्थन करेंगे। यानी केन्द्र की यूपीए सरकार को सशर्त समर्थन देने की पेशकश नीतीश ने उस समय भी कर दी थी।

कांग्रेस की स्थिति बिहार में अत्यंत ही नाजुक है। पिछले विधानसभा चुनाव में उसका बुरी तरह सफाया हो गया था। मुस्लिम बहुत किशनगंज में उसके तीन विधायक जीते। चैथा विधायक विधानसभा के पूर्व स्पीकर थे। इन चार विधायकों की जीत के साथ कांग्रेस ने बिहार के इतिहास का सबसे बुरा प्रदर्शन रिकार्ड किया। उस चुनाव के बाद वहां का संगठन मरणासन्न है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सवा दो साल पहले ही चुनावी हार की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे चुके हैं, पर उनकी जगह किसी और व्यक्ति को अभी तक कांग्रेस का अध्यक्ष नहीं बनाया गया है। जाहिर है, कांग्रेस नेतृत्व के एजेंडे में बिहार रहा ही नहीं। इसलिए वह बिहार में किसी और के भरोसे चुनाव लड़ने की सोच रही है। लगता है कांग्रेस लालू की जगह नीतीश के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहती है। यही कारण है कि लाख कोशिशों के बाद भी केन्द्र में लालू यादव को मंत्री नहीं बनाया गया, जबकि अपने 4 सांसदों के साथ लालू लगातार यूपीए सरकार का समर्थन कर रहे हैं। भाजपा का साथ छोड़ने के बाद नीतीश कांग्रेस का साथ ही पसंद करेंगे और कोशिश करेंगे कि कांग्रेस के साथ मिलकर ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव जीतें। (संवाद)