पर राहुल गांधी के उस बयान के बाद कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने कहा कि राहुल गांधी की इच्छा प्रधानमंत्री बनने की है और वे यह बात अपने मुह से क्यों कहेंगे? दिग्विजय के उस बयान के बाद उम्मीद की जा रही थी कि राहुल उनकी बात का खंडन कर देंगे और कहेंगे कि उन्होंने जो कहा था उसका मतलब वही था और वास्तव में उनकी प्रधानमंत्री बनने में कोई दिलचस्पी नही। पर राहुल की ओर से वैसा बयान आया ही नहीं और मान लिया गया कि वास्तव में राहुल प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं और कांग्रेस आगामी लोकसभा चुनाव के पहले उन्हें अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश भी कर सकती है।
लेकिन कुछ दिनों के बाद पार्टी के एक अन्य वरिष्ठ नेता जनार्दन द्विवेदी, जो कांग्रेस की ओर से सर्वाधिक प्रमाणिक औपचारिक बात कहते हैं, उन्होंने दिग्विजय सिंह के उस बयान का खंडन कर दिया, जिसमें उन्होंने राहुल का गुणगाण करते हुए सोनिया और मनमोहन के रूप में दो सत्ता केन्द्रों के अस्तित्व के खिलाफ टिप्पणी कर दी थी और कह दिया था कि दो केन्द्रों वाला यह माॅडल काम नहीें कर रहा है। दिग्विजय सिंह ने इस माॅडल की विफलता को रेखांकित करते हुए कहा था कि राहुल युग में कांग्रेस का एक ही सत्ता केन्द्र होना चाहिए, तभी कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली सरकार सही ढंग से काम सकती है। श्री द्विवेदी ने कहा कि सोनिया और मनमोहन सिंह के बीच बहुत अच्छा तालमेल है और यह माॅडल पूरी तरह सफल रहा है। उन्होंने आने वाले दिनों में भी इसी माॅडल के बरकरार रखने के प्रति अपना समर्थन जताया।
जाहिर है, राहुल गांधी को लेकर कांग्रेस के अंदर दो लाइन है। एक लाइन दिग्विजय सिंह की है, जो राहुल को सभी तरह के अधिकारों से संपन्न देखना चाहते हैं, तो दूसरी लाइन जनार्दन द्विवेदी की है, जो राहुल के प्रति अभी भी सतर्क दृष्टिकोण रखती है। चूंकि जनार्दन द्विवेदी सोनिया गांधी से लगातार संवाद में रहते हैं और कांग्रेस की अपनी संस्कृति को देखते हुए यह हम नहीं कह सकते कि श्री द्विवेदी की यह लाइन उनकी अपनी लाइन है। बिना सोनिया गांधी की अनुमति के वे इस तरह का बयान दे ही नहीं सकते।
तो क्या सोनिया गांधी भी राहुल गांधी को लेकर आशंकित हैं? या कांग्रेस के रणनीतिकार नहीं चाहते कि राहुल गांधी को आगे रखकर पार्टी कम से कम मौजूदा राजनैतिक माहौल में कोई राजनैतिक रणनीति बनाए? या इसके दोनों कारण हैं?
राहुल गांधी जब से पार्टी के अंदर सक्रिय हुए हैं, पार्टी को चुनावों में अच्छी सफलता नहीं मिल रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की बेहतर जीत के लिए भले ही राहुल को श्रेय दिया गया, लेकिन सचाई यही है कि उस जीत के लिए यदि किसी को सबसे ज्यादा श्रेय ज्यादा है, तो वह मनमोहन सिंह हैं, क्योंकि अमेरिका के साथ परमाणु करार के मसले पर दृढ़ता दिखाकर और अपनी सरकार को भी खतरे में डालकर श्री सिंह ने शहरी मध्यवर्ग का दिल जीत लिया था और कांग्रेस को देश के सभी महानगरों में शानदार जीत मिली थी। अन्य शहरी इलाकों में भी कांग्रेस को उसके कारण ही जीत मिली थी। राहुल की परीक्षा तो लोकसभा चुनाव के बाद शुरू हुई और सभी परीक्षा में वे विफल हुए।
उनकी पहली परीक्षा बिहार विधानसभा में हुई। वहां उन्होंने अपनी पसंद के व्यक्ति मुकुल बासनिक को प्रदेश का प्रभारी बना दिया और उनके हाथ में ही चुनाव की कमान सौंप दी। उस चुनाव के कंाग्रेस को मात्र 4 विधानसभा सीटो ंपर जीत हासिल हुइ्र, जो बिहार के चुनावी इतिहास की कांग्रेस की सबसे शर्मनाक हार थी। उसके बाद राहुल की दूसरी परीक्षा तमिलनाडु विधानसभा के चुनाव में हुई। वहां दबाव डालकर कांग्रेस ने अपनी ताकत से ज्यादा सीटें डीएमके से प्राप्त कर ली, लेकिन करारी हार का सामना किया। पश्चिम बंगाल में भी ममता बनर्जी को दबाकर कांग्रेस ने ज्यादा से ज्यादा सीटें पाने की कोशिश की, लेकिन उसकी वहा चली नहीं। कांग्रेस को वहां मिली सफलता ममता बनर्जी के साथ का परिणाम था और राहुल की परीक्षा का वह स्थल ही नहीं बन सका।
राहुल की सबसे बड़ी परीक्षा उत्तर प्रदेश में हुई, जहां कांग्रेस को 2009 के लोकसभा चुनाव मंे उम्मीद से बेहतर सफलता मिली थी। कांग्रेस को वहां 22 लोकसभा सीटें मिली थीं और फीरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव की जीत के बाद वहां उसके 23 लोकसभा सांसद हैं। एक लोकसभा क्षेत्र में वहां 5 विधानसभा क्षेत्र हैं। इस लिहाज से 115 सीट पर जीतकर कांग्रेस अपने 2009 की सफलता को बरकरार रख सकती थी, लेकिन विधानसभा के जब चुनाव परिणाम निकले तो उसके पास 30 सीटें भी नहीं थीं। 2009 और 2012 के चुनावों के बीच राहुल गांधी ने अपनी पूरी ताकत वहां झोंक दी थी। लाखों युवकों और छात्रों को कांग्रेस की युवा और छात्र ईकाई के साथ राहुल ने खुद जोड़ा था। किसान आंदोलन में भी राहुल गांधी कूद पड़े थे। दलितों और अन्य गरीबो ंकी बस्तियों में जाकर उनके साथ खाना खाने और समय बिताने का सिलसिला भी उन्होनंे जारी रखा। चुनाव जीतने के लिए जो कुछ भी उनसे हो सकता था, वह सब उन्होंने किया। तब की प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने भी संगठन को लगातार सक्रिय रखा। लेकिन उसके बावजूद कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा और वह भाजपा से भी नीचे चैथे स्थान पर चली गई।
उत्तर प्रदेश में कंाग्रेस की हार के बाद एक चुनाव जिताऊ नेता के रूप में राहुल गांधी की क्षमता पर जो सवालिया निशान खड़ा हुआ है, वह अभी भी समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा। यदि कांग्रेस ने राहुल को अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाया, तो भाजपा को भी बाध्य होकर नरेन्द्र मोदी को अपना उम्मीदवार घोषित करना पड़ेगा। टीवी चैनलों पर दोनों की तुलना में जाहिर है नरेन्द्र मोदी भारी पड़ेते दिखंेगे। मोदी की तरह राहुल गांधी राजनैतिक बयानबाजी की कला नहीं जानते और उनके जैसा राजनैतिक अनुभव और कौशल भी उनके पास नहीं है। लगता है, इसी को देखते हुए सोनिया गांधी और कां्रगेस के उनके नजीदीक रणनीतिकार राहुल गांधी को नरेन्द्र मोदी से साथ प्रतिस्पर्धा में नहीं खड़ा करना चाहते। यही कारण है कि राहुल गांधी को लेकर कांग्रेस में झिझक है और उनकी चुनाव पूर्व भूमिका को लेकर भी पार्टी के अंदर अर्णिय की स्थिति है। (संवाद)
राहुल को लेकर कांग्रेस की झिझक
अनिर्णय का आखिर कारण क्या है?
उपेन्द्र प्रसाद - 2013-04-03 11:36
राहुल गांधी कांग्रेस के उपाध्यक्ष तो बन गए हैं और उसके बाद उन्होंने संगठन के कामकाज को भी पूरी तरह देखना शुरू कर दिया है, लेकिन आगामी लोकसभा चुनाव के पहले प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें पेश करने की बात को लेकर कांग्रेस के अंदर अनिर्णय बरकरार है। राहुल गांधी ने खुद कहा कि उनकी प्राथमिकता प्रधानमंत्री बनने की नहीं है, बल्कि उनका ध्यान कांग्रेस को मजबूत बनाने की है। किसी नेता का इस तरह का बयान अपने आपमें अटपटा नहीं माना जा सकता। आखिर कौन समझदार नेता यह कहना चाहेगा कि वह प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखता है?