यह तृणमूल कांग्रेस की राजनैतिक समझ की कमजोरी है कि उसके नेता अपनी इन दोनों उपलब्धियों को रेखांकित नहीं करते हैं। वाम मोर्चा के अंतिम दिनों मंे यह लगने लगा था कि उत्तर का पहाड़ी इलाका अलग राज्य बनने ही वाला है। राज्य के दक्षिणी जिनों में तो राज्य का प्रशासन ही गायब हो गया लगता था। इन दोनों इलाकों में थाना सहित सरकार के सारे कार्यालयों में कामकाज ठप हो गए थे। कर्मचारी उनमें नहीं आते थे। उनके पास काम करवाने के लिए कोई नहीं आता था। उत्तर में गोरखाजन्मुक्ति मोर्चा और दक्षिण में माओवादियों का राज चलता था।
लेकिन इन दोनों मोर्चों पर ममता बनर्जी ने वह कर डाला, जो वामपंथी दल नहीं कर पाए थे। गरीबों के पक्ष में बातें करने वाले वामपंथी नेता न तो गोरखाजन्मुक्तिवादियों का सामना कर पाते थे और न ही माओवादियों का। तब के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने तो उन इलाकों में जाना तक बंद कर दिया था। उनकी पार्टी के उन इलाकों के नेताओं ने भी मैदान छोड़ दिया था। वे अपने घरों को छोड़कर सुरक्षित इलाकों मंे या अन्य इलाकों के अपने रिश्तेदारों के घरों में चले गए थे। वामपंथी नेता बहाना बनाते थे कि ये जनजातीय समस्या है और इसका निदान बहुत ही ध्यानपूर्वक करना होगा। इस तरह की बात करते हुए वे उस इलाके से ही बाहर भाग खड़े हुए थे।
ममता बनर्जी अलग थीं। उन्होंने प्रदेश के दोनों समस्याग्रस्त इलाकांे का दौरा जारी रखा। वे गोरखा जन्मुक्ति नेताओं से भी बातें करती थीं और माओवादी नेताओं से भी। वे उनके इलाके में उनके दरवाजे पर जाकर उनके संवाद करने की हिम्मत रखती थीं। यह सत्ता में आने के पहले की बात है। और जब ममता सत्ता में आईं, तब भी उन्होंने उन इलाकों का दौरा करना जारी रखा। इसका फायदा भी हुआ।
पर सत्ता में आने के बाद ममता बनर्जी ने माओवादी और गोरखा नेताओं से अपने संबंधों को फिर से बहाल करने में सावधानी बरती। वे अपने वायदे के अनुसार इन इलाकों का विकास तो नहीं कर पाई, लेकिन उनकी सत्ता मंे आने के बाद प्रदेश प्रशासन ने इन इलाकों को फिर से हासिल कर लिया। उनके दफ्तर फिर से वहां काम करने लगा। कुछ जमीन से जुड़ी परियोजनाएं शुरू हुईं। स्थानीय लोगों ने भी इन योजनाओं और परियोजनाओं पर उत्साह दिखाए। केन्द्र ने भी इन क्षेत्रों के लिए कोष उपलब्ध करवाए। दार्जिलिंग पहाडि़यों के लिए 200 करोड़ रुपये का पैकेज मिला, तो जंगलमहल इलाके में पिछड़ा क्षेत्र विकास के नाम पर 8700 करोड़ रुपये की राशि उपलब्ध कराई गई। इसका असर यह हुआ कि सरकार विरोधी गतिविधियों में बेतहाशा कमी देखी गई।
इसका मतलब यह नहीं कि यह क्षेत्र समस्याहीन हो गया है। गोरखा जनमुक्ति नेतृत्व अभी भी अलग राज्य की मांग पर अड़ा हुआ है। माओवादियों ने गुप्त बैठकें करना अभी भी बंद नहीं किया है और वे फिर से अपने आपको लामबंद करने में लगे हुए हैं।
लेकिन जमीनी हकीकत में आए बदलावों को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। लोग देख सकते थे कि गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा के पास अब काफी धन आ गया है और वह सरकार की ओर से आया है। वे जितना मांग रहे थे, उससे भी ज्यादा उन्हें मिला है। दक्षिण के दूरदराज इलाके में चावल दो रुपये प्रति किलों के हिसाब से मिल रहा है। पुलिस के साथ हुई हिंसा के शिकार लोगों के परिवारों को नौकरियां भी मिली। स्कूल और काॅलेज खुले। साइकिलें बांटी गईं। पीने के पानी का भी इंतजाम किया गया। प्रदेश में हिंसा के स्तर में भारी कमी आई। पर्यटन उद्योग में फिर से जान आने लगी। हिंसा ग्रस्त इन इलाकों में जिंदगी फिर से पटरी पर आने लगी। ऐसा कई सालों के बाद पहली बार हुआ।
यही कारण है कि गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा द्वारा अलग राज्य की मांग करते हुए आंदोलन चलाने की ताजा कोशिश बेकार साबित हुई। उसे लोगों का बड़ा समर्थन नहीं मिल पाया। जाहिर है, ममता बनर्जी ने वह कर डाला, जो वामपंथी नेता अपने शासनकाल में नहीं कर पा रहे थे। (संवाद)
माओवादी उग्रवाद से निपटने का पश्चिम बंगाल मॉडल
जंगलमहल में ममता की बड़ी कामयाबी
आशीष बिश्वास - 2013-04-09 01:51
कोलकाताः ममता बनर्जी के कट्टर विरोधी भी इस बात को स्वीकार करेंगे कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने कम से कम दो मोर्चों पर बड़ी कामयाबी हासिल की है। एक मोर्चा है बंगाल का उत्तरी पहाड़ी इलाका और दूसरा मोर्चा है जंगलमहल। उत्तरी पहाड़ी इलाके में अलग राज्य की मांग के लिए तेज राजनैतिक गतिविधियां चला करती हैं, तो जंगलमहल का वह इलाका माओवादी उग्रवाद के लिए जाना जाता है।