पिछले दों दशको से देश में गठबंधन की राजनीति चल रही है। कांग्रेस ने आजादी के बाद के पहले चार दशकों तक देश पर एकछत्र रूप से शासन किया। लेकिन 1990 के दशक से यह पुरानी पार्टी न केवल सिकुड़ती जा रही है, बल्कि इसका सामाजिक आधार भी इसके पैरों के नीचे से लगातार खिसकता जा रहा है। इसके पतन के साथ सपा और बसपा जैसे क्षत्रीय दलों का उदय भी हो चुका है।
भाजपा भी बहुत विस्तृत हो गई है। अपने विस्तार के साथ साथ इसने 1998 से 2004 तक 24 पार्टियों की गठबंधन सरकार का नेतृत्व भी किया। यह 1996, 1998 और 1999 के चुनावों में लगातार तीन बार लोकसभा की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। 2004 के चुनाव में भी कांग्रेस इससे मात्र 7 सीटें ही ज्यादा थीं। पर 2009 के चुनाव में कांग्रेस ने इसके ऊपर बड़ी बझ़त ले ली थी।
राष्ट्रीय पार्टियों के सिकुड़ने के दो मुख्य कारण हैं। सबसे पहला कारण तो यह है कि वे कमजोर हो गई हैं और उनके पास मजबूत नेतृत्व नहीं है। कांग्रेस संगठनात्मक कमजोरियों का सामना कर रही हैं, तो भाजपा के अंदर वाजपेयी के राजनीति छोड़ने के बाद नेतृत्व का संकट आ खड़ा हुआ है।
दूसरा कारण क्षेत्रीय और जातिवादी पार्टियों का उदय है। उनका उदय इसलिए हुआ है क्योंकि राष्ट्रीय पार्टियां कुछ क्षेत्रों और कुछ जाति समूहों की आकांक्षाओं को पूरा करने में विफल रही हैं। मुलायम सिंह यादव, मायावती, जयललिता, ममता बनर्जी और नवीन पटनायक जैसे मजबूत क्षेत्रीय नेताओं का उदय भारतीय राजनीति में हुआ है, क्योंकि वे लोगों की आकांक्षाआंे से अपने आपको जोड़ने मंे सफल हुए हैं। वे बहुत ही मजबूती के साथ अपने समर्थन आधार को अपने साथ बनाए हुए हैं।
चुनाव के बाद इन क्षेत्रीय नेताओं का सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका होगी। अधिकांश क्षेत्रीय पार्टियां कभी न कभी या तो यूपीए के साथ या एनडीए के साथ गठबंधन कर चुकी हैं। उनमें कुछ तो ऐसी हैं, जो अलग अलग समय में दोनों के साथ गठबंधन में रही हैं।
लेकिन चिंता की बात यह है कि यदि यूपीए और एनडीए छोटा होते चले गए तो फिर तीसरे अथवा चैथे मोर्चे अथवा किसी संघीय मोर्चे की सरकार बनेगी। यह देश के लिए अच्छा नहीं होगा। इसका कारण यह है कि अब तक का अनुभव यही कहता है कि इस तरह की सरकारें अच्छी नहीं होतीं। क्षेत्रीय पार्टियों का कोई राष्ट्रीय विजन नहीं होता और वे छोटे छोटे कारणों से केन्द्र को ब्लैकमेल करने का काम करती हैं। इसलिए अच्छा यही होगा कि कांग्रेस और भाजपा अपने आपको मजबूत करें।
पिछले दिनांे नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने के मसले पर भाजपा और जनता दल (यू) के बीच काफी तकरार हुआ और इसके कारण एनडीए के भविष्य पर ही सवाल खड़ा हो गया है। एक समय था, जब एनडीए में 24 पार्टियां हुआ करती थीं। लेकिन अभी उसके पास अभी करीब आधा दर्जन घटक पार्टियां हैं। 2004 के लोकसभा चुनाव के पहले डीएमके, बीजू जनता दल, नेशनल कान्फ्रेंस और एलजेपी ने किसी न किसी बहाने एनडीए को छोड़ दिया था। तेलुगू देशम पार्टी ने 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद इसे छोड़ दिया था। उसके बाद से एनडीए विपक्ष में ही है।
यदि जनता दल (यू) और भाजपा का रिश्ता टूट गया, तो फिर एनडीए में सपा, बसपा और तृणमूल कांग्रेस जैसे दलों का आना कठिन हो जाएगा, क्योंकि इन सबको मुसलमानों के वोट लेने हैं। तब एनडीए कैसे सरकार बना पाएगा?
2004 में सोनिया गांधी ने यूपीए गठबंधन तैयार किया। उसे वाम मोर्चा का भी साथ मिला, हालांकि बाद वाम पार्टियों ने यूपीए का साथ छोड़ दिया। यह सोनिया गांधी का ही कमाल था कि यूपीए 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद एक बार फिर सत्ता में आया। लेकिन कांग्रेस उस विश्वास को बनाए रखने में सफल नहीं हो पा रहा है, क्योंकि भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मसलों पर उसके पास कहने के लिए कुछ खास नहीं है और ये दोनों आज देश के सामने दो सबसे बड़े मुद्दे हैं। तृणमूल कांग्रेस और डीएमके का यूपीए से बाहर होना कांग्रेस के लिए चिंता की सबसे बड़ी बात है। अब यूपीए के 8 घटक बचे हुए हैं। इसे सपा, बसपा और राजद का बाहर से समर्थन मिल रहा है। तृणमूल कांग्रेस व डीएमके के अलावा, झारखंड मुक्ति मोर्चा, एमआइएम और टीएमसी ने भी कांग्रेस का साथ छोड़ दिया है। इसलिए कांग्रेस भी अब नये सहयोगियांे की तलाश में है। पर कांग्रेस की समस्या यह है कि प्रदेशों में गैर यूपीए क्षेत्रीय दलों का मुकाबला या तो कांग्रेस के साथ है या उसके किसी वर्तमान सहयोगी के साथ। इसलिए उनका यूपीए मंे आना आसान नहीं।
कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के पास अभी भी समय है। वे चाहें तो अभी भी अपनी स्थिति को संभाल सकते हैं। सबसे दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस को हो रहा नुकसान भाजपा के लाभ के रूप में सामने नहीं आ रहा है।(संवाद)
महान पुरानत पार्टी के दिन लद गए हैं?
गठबंधन राजनीति का जमाना बना रहेगा
कल्याणी शंकर - 2013-04-20 04:30
क्या यूपीए और एनडीए की घटती ताकत राजनैतिक पार्टियों की नई गोलबंदी का मार्ग प्रशस्त करेंगे? पिछले डेढ़ दशक से इन्हीं दोनों का देश पर शासन चल रहा है, लेकिन दोनों मोर्चों का आधार अनिश्चित हो गया है और उनके घटक दल भी अब विकल्प तलाशने लग गए हैं।